इत्तेफाक के लिए फिल्म के निर्माता करन जौहर और शाहरुख खान की यह साझा रणनीति थी कि फिल्म से जुड़ा कोई भी सितारा फिल्म को इंटरव्यू के माध्यम से प्रमोट नहीं करेगा. उनका यह मानना था की भूल चूक में ही फिल्म से जुड़े सस्पेंस का खुलासा हो जाता है. अब फिल्म के निर्माताओं की यह रणनीति कितनी कारगर साबित हुई यह तो कुछ वक़्त के बाद ही पता चलेगा.
इत्तेफाक को देखने में कोई ख़ास मज़ा नहीं आता है. इस फिल्म का सिर्फ एक ही प्लस पॉइंट है और वह यह है कि अगर आपने इस तरह की फिल्में काफी मात्रा में पहले देखी हैं तो आपको लगेगा कि अभय चोपड़ा की ये पहली लीक से थोड़ी हटकर चलती फिल्म है.
मर्डर मिस्ट्री हिंदी फिल्मों में एक तरह का ही पैटर्न फॉलो करती हैं और वो ये है कि पूरी फिल्म में शक की सुई किसी एक ऊपर घूमती है और आखिर के दस मिनट में कहानी पूरी तरह से उलट जाती है. यहां पर शक की सुई फिल्म के किरदारों पर हमेशा बनी रहती है. ये अलग बात है कि आखिर में एक को मुज़रिम भी साबित कर दिया जाता है लेकिन वो दस मिनट फिल्म में वापस लौटकर आ जाता है और इत्तेफाक कोई अपवाद नहीं है.
स्टोरी
कहानी लंदन के एक लेखक विक्रम (सिद्धार्थ मल्होत्रा) के बारे में है जिनके ऊपर अपनी ब्रिटिश मूल की पत्नी की हत्या का इल्ज़ाम है. प्लॉट का पहिया कुछ ऐसे चलता है कि एक और हत्या का इलज़ाम उनके सर पर आ जाता है. इस बार उनके ऊपर इल्ज़ाम है माया (सोनाक्षी सिन्हा) के पति की हत्या का. इन दोनों ही मर्डर्स की गुत्थी सुलझाने का काम देव (अक्षय खन्ना) को दिया जाता है. कई रोडों से उलझने के बाद वो केस की गुत्थी सुलझा ज़रूर लेते हैं लेकिन तब तक काफी देरी हो चुकी होती है. इसके आगे और कुछ कहना फिल्म के सस्पेंस को निकालने के बराबर ही होगा.
एक्टिंग
अगर अभिनय की बात करें तो फिल्म में किसी का काम उभर कर सामने आता है तो वह अक्षय खन्ना ही हैं. समझ में नहीं आता है की वो इतनी कम फिल्में क्यों करते हैं. उनका काम सधा हुआ है. एक नो नॉनसेंस पुलिस अफ़सर जो हंसी मज़ाक भी करता है, के रोल में अक्षय खन्ना काफी जंचे हैं. सिद्धार्थ को लेकर वही परेशानी है जो उनकी हर फिल्मों में रहती है. एक्सप्रेशंस और चेहरे पर भाव ले आने की जब बात होती है तो लगता है की किसी ने उनको पहाड़ पर चढ़ने का आदेश दे दिया है.
फिल्म में कई सीन्स ऐसे हैं जहां पर उनके चेहरे पर एक्सप्रेशंस ना होने की वजह से वो सीन्स मात खा जाते हैं. सोनाक्षी सिन्हा का अभिनय फिल्म में औसत दर्जे का है. वह अपने किरदार में और जान डाल सकती थी. उनके किरदार को देख कर लगता है की सोनाक्षी का दिल उसमे पूरी तरह से नहीं है.
मर्डर मिस्ट्री जॉनर की फिल्मों की सबसे ख़ास बात ये होती है की चेहरे पर इतने भाव होने चाहिए कि फिल्म देखने वाले को हमेशा इस बात का एहसास बना रहे कि सामने वाले की बातों में सच्चाई छुपी है. हर वक़्त हर पल देखने वाले के मन में एक किस्म का विश्वास जगाना बेहद जरूरी होता है. सिद्धार्थ और सोनाक्षी दोनों ही इस मापदंड पर खरे नहीं उतरते हैं.
इत्तेफाक में ऐसा कुछ भी नहीं है कि वो आपको बांध कर रखे. महज दोनों मर्डर सस्पेक्ट्स के दो वर्सन फिल्म में चलते रहते हैं. कहना जरूरी है की 1969 में आई यश चोपड़ा की इत्तेफाक के मुकाबले ये फिल्म कहीं नहीं ठहरती है. इस फिल्म की कहानी को तीन दिनों में समेटा गया है जबकि पहली फिल्म एक रात की कहानी थी.
इस फिल्म का एक बड़ा हिस्सा दोनों क़िरदारों का इंट्रोगेशन है जो बांध कर नहीं रखता है. यह गनीमत है कि इंट्रोगेशन के सीन्स लम्बे नहीं बन पड़े हैं क्योंकि फिल्म तुरंत फ्लैशबैक में चली जाती है. ज़रा याद कीजिये फिल्म तलवार के इंट्रोगेशन्स वाले सीन्स. अक्सर इस तरह की फिल्मों में एक हाई पॉइंट आता है जब दर्शक अपना निर्णय बनाने में जुट जाते हैं.
अफ़सोस इत्तेफाक में ऐसा कुछ भी नहीं है. महज 107 मिनट की ये फिल्म कई जगहों पर बोर करती है ये अपने आप में बहुत कुछ कहता है. सिर्फ ये कह कर फिल्म को प्रमोट करना कि किलर कौन है ज्यादा नहीं होता है. भई, कहानी कहने का तरीका भी तो निराला होना चाहिए.