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फिल्म रिव्यू: दर्शकों को ‘उल्लू’ नहीं बना पाएगा ये ‘फुल्लू’

फिल्म का मैसेज ‘स्ट्रांग’ है लेकिन स्टोरी बहुत कमजोर है

Hemant R Sharma

इस ‘फुल्लू’ को आप भी ‘उल्लू’ ही समझेंगे, जैसा कि उसके गांव का हर इंसान समझता है. इस फुल्लू का सभी को एक बड़ा संदेश ये है कि जो औरत के दर्द को नहीं समझता भगवान उसे मर्द नहीं समझता.

ये बात भी सही है कि सेनेटरी नैप्किन की जरूरत हर महिला को है लेकिन उस पर एक पूरी कमर्शियल फिल्म बना देने की जरूरत शायद उतनी नहीं है.


फुल्लू के लिए इसे इसलिए कहना जरूरी है कि लास्ट के महज दस मिनट के मैसेज के लिए आप इस बोरिंग फिल्म को झेल नहीं पाएंगे. फिल्म और भी एंटरटेनिंग बन सकती थी लेकिन डायरेक्टर शायद मैसेज के चक्कर में इसे मैनेज नहीं कर पाए.

महिलाओं की महावारी के इसी दर्द को दूर करने के लिए फुल्लू जिस दर्द को सहता है उसे देखकर शायद आपकी आंखों में आंसू भी आ जाएं. लेकिन अगर आप सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिए फिल्म देखने थिएटर में जाते हैं तो आपको अपने पैसे जाया हो जाने पर भी रोना आ सकता है.

फुल्लू का ट्रेलर यहां देख लीजिए

मेकर्स ने क्या सोचकर बनाई फुल्लू?

इस फिल्म्स के मेकर्स अपनी प्लानिंग में शायद ये भूल गए कि मेट्रो के लोग इस फिल्म के दर्शक नहीं हैं और छोटे शहरों के लोगों के लिए फुल्लू के पास वो मसाला नहीं है जिसके लिए लोग पैसा खर्च करके थिएटर्स तक जाते हैं.

तो फिर ये फिल्म किन दर्शकों के लिए है?  इसका जवाब मेकर्स के पास ही होगा. हां, किसी सरकारी मुहिम का अवॉर्ड पाने के लिए अगर उन्होंने ये फिल्म बनाई है तो उनका ये अच्छा लेकिन ‘महंगा’ प्रयास है.

शारिब को शाबासी

एक्टर शारिब हाशमी ने फिल्म में अपनी पूरी जान लगा दी है. गांव के 30 साल से बड़ी उम्र के एक लड़के फुल्लू के तौर पर वो पूरी तरह फिट नजर आए हैं.

एक ऐसा लड़का, जिसे रोजगार या पैसा कमाने से कोई मतलब नहीं है, उसका मन तो गांव की औरतों के लिए शहर जाकर उनका सामान लाने में लगता है. भले ही उसकी मां अपने सिर पर पुराने कपड़े लादकर गुदड़ी बेचती फिरे.

सैनेटरी नैप्किन बनाने का है सपना

जब फुल्लू जिंदगी में थोड़ा सीरियस होता है तो वो सैनेटरी नैप्किन बनाने के सपने संजोने लगता है और ऐसा भी लगता है कि महिलाओं से कहीं ज्यादा उसे इसकी ज्यादा जरूरत है.

सोते-जागते, खाते-पीते उसे सिर्फ सैनेटरी नैप्किन बनाने की ही चिंता है. इसलिए नहीं कि उसे इन्हें बेचकर पैसा कमाना है, सिर्फ इसलिए क्योंकि वो महिलाओं को कपड़े से होने वाले इन्फेक्शन से बचाना चाहता है.

यहां तक कि अपनी बहन की शादी के झुमकों के पैसे से भी वो सेनेटरी नैप्किन खरीदकर ले आ जाता है.

नूतन सूर्या और ज्योति सेठी लाजवाब

फुल्लू की मां के तौर पर नूतन सेठी अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रही हैं. एक विधवा मां जो बुढ़ापे में मेहनत करके अभी तक रोटी कमा रही है और उसके बेटे को रोजगार की कोई परवाह नहीं है. वो कैसे अपनी औलाद को कोसती है नूतन ने उसे बखूबी निभाया है.

ज्योति सेठी फुल्लू के वाइफ के कैरेक्टर में अच्छी तरह से ढली हुई नजर आई हैं.

इनामुल हक है असली एंटरटेनर

इनामुल हक करीब सात मिनट के कैमियो रोल में आए हैं और आते ही उन्होंने अपना धमाकेदार अंदाज दिखा दिया है. इनामुल की एंट्री से उनके एक्जिट तक का छोटा सा हिस्सा ही फिल्म का सबसे एंटरटेनर पार्ट है.

इनामुल हक को पिछले साल अक्षय कुमार के साथ एयरलिफ्ट में इराकी मेजर के रोल में और जॉली एलएलबी 2 में बहरूपिए आतंकवादी के रोल में लोगों ने काफी नोटिस किया.

बहुत स्लो है फिल्म

फुल्लू की मां उसकी शादी करा देती है लेकिन स्टोरी की तरह ही फुल्लू की जिंदगी भी धीरे-धीरे ही चलती नजर आती है. बड़े ही बोरिंग अंदाज में फुल्लू शहर जाता है वहां एक झगड़े में फंसकर वो पुलिस के चंगुल में भी फंस जाता है.

एक अखबार की रिपोर्टर उसे पुलिस के चक्कर से निकलवाती है और फुल्लू को सेनेटरी नैप्किन की कंपनी में लगवाती है जहां फुल्लू नैप्किन बनाना सीखता है और फिर गांव आकर उसे अपने ढंग से बनाने की कोशिश करता है.

बहुत खोया पर पाया क्या?

फुल्लू की वाइफ अब प्रेगनेंट है इसलिए इस सेनेटरी नैप्किन के एक्सपेरिमेंट में वो फंस जाता है. गांव की महिलाएं उसका इस एक्सपेरिमेंट में साथ नहीं देती, उल्टा उसका सामाजिक बहिष्कार होता है. इस नैप्किन के प्रयोग की खातिर फुल्लू को बहुत कुछ खोना भी पड़ता है. आखिर में उसे जो मिलता है, उससे उसे और गांव की महिलाओं को कैसे फायदा हो रहा है उस पर अगर ये कहानी कुछ बताती तो हो सकता है और ज्यादा एंटरटेनिंग बन जाती.

शारिब शानदार हैं

शारिब हाशमी ने 2012 में आई फिल्मस्तान में जबरदस्त एक्टिंग की थी. उसके बाद 2015 में आई बदमाशियां में भी उनके काम को सराहा गया था.

फुल्लू में उनकी एक्टिंग बहुत ही शानदार है. शारिब ने साबित कर दिया है कि वो बॉलीवुड में बहुत आगे तक जाएंगे.

फिर भी फुल्लू की कमर्शियल सक्सेस के बारे में मैं एक बार फिर से ये ही बात दोहराना चाहूंगा कि ये फुल्लू दर्शकों को उल्लू नहीं बना पाएगा क्योंकि थिएटर तक आने वाले दर्शक अब बहुत स्मार्ट हो चुके हैं.