view all

Review भूमि : इस कमजोर फिल्म को संजय दत्त बचाने में नाकामयाब रहे हैं

इस फिल्म को डायरेक्टर ओमांग कुमार ने कुछ खास संजीदगी से नहीं बनाया है

Abhishek Srivastava

भूमि में एक सीन है जब संजय दत्त अपनी बेटी के एक बलात्कारी को बस में मारते हैं. वह बलात्कारी धौलपुर से लखनऊ, एक बस में बैठ कर भागने की कोशिश करता है. संजय दत्त उसे बेरहमी से मार देते हैं. उसी वक़्त फिल्म के विलन शरद केलकर अपने घर के अंदर पंड़ितों के साथ बैठ कर श्राद्ध की पूजा करने में व्यस्त हैं. अगले सीन में हम देखते हैं कि बलात्कारी की लाश बस से बाहर फेंकी जाती है और शरद केलकर अपनी गुंडा पार्टी के साथ बाक़ायदा कुर्सी लगाकर संजय दत्त का इंतज़ार कर रहे हैं.

आप समझ गए होंगे की मैं क्या कहना चाहता हूं. जी हां इस तरह के कई मौके आपको संजय दत्त की इस कमबैक फिल्म में देखने को मिलेंगे. भूमि से अगर किसी को फायदा मिलेगा तो वो सिर्फ संजय दत्त ही हैं. समझ में नहीं आता है कि मेकर्स ने इस फिल्म को बनाया ही क्यों? कुछ महीने पहले ही इसी कहानी को दो और फिल्ममेकर्स ने पहले ही बना कर हमें दिखा दिया था. जी हां मैं बात कर रहा हूं रवीना टंडन की मातृ और श्री देवी की मॉम की. बीस साल पहले जो रिवेंज ड्रामे बनते थे वह कुछ इसी तरह के होते थे लेकिन लगता है की निर्देशक ओमंग कुमार ने फिल्मों के बदलते रंग रूप को अनदेखा कर दिया है.


बेतुकी फिल्म है भूमि

भूमि सही मायने में एक बेतुकी और बकवास फिल्म है जो आपका सिर्फ समय जाया करेगी. इसको देख कर लगता है कि फिल्ममेकर को यह फिल्म बनाने की बेहद ही जल्दी थी और इस जल्दबाज़ी में उनसे एक नहीं बल्कि कई भूलें हो गई हैं. फिल्म की कहानी की जब शुरुआत होती है तब यही लगता है की इसके सेटिंग काफी हद तक निजी जिंदगी के करीब होने वाली है. लेकिन जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ती है इसका ग्राफ़ दक्षिण की तरफ चला जाता है.

कहानी

फिल्म की कहानी संजय दत्त (अरुण सचदेव) और उनकी बेटी अदिति राव (भूमि) के बारे में है. संजय दत्त आगरा में अपनी जूतों की दुकान चलते है और अदिति एक वेडिंग प्लानर हैं. शादी से महज एक दिन पहले अदिति राव का बलात्कार तीन लोग मिल कर देते हैं. उसके पीछे की वजह यह है की अदिति राव को जब उनका एक चाहने वाला अपने प्रेम का इज़हार करता है तो वह उसको मन कर देती हैं क्योंकि वो किसी और से प्रेम करती हैं. मामला अदालत में जाता है और यह तीनों वहां पर बरी हो जाते हैं. लेकिन बदले की भावना पिता और बेटी अंदर बनी रहती है और जब अंदर की टीस बढ़ जाती है तब उन तीनों को मारने का सिलसिला शुरू हो जाता है.

यह देख कर बेहद आश्चर्य होता है की अपनी कमबैक व्हीकल के लिए संजय दत्त ने यह फिल्म क्यों चुनी. शूजित सरकार ने अपनी फिल्म पिंक से अदालती करवाई के सीन्स को एक नई दिशा दी थी और एक तरह से ऐसे सीन्स का व्याकरण बदल दिया था. जो सीन्स हम भूमि में देखते है वह उसी की एक बेहद ही बेतुकी कॉपी है. आप अपनी फिल्मों में इतने सिनेमेटिक लिबर्टी नहीं ले सकते हैं कि अदालत के कायदे कानून को भी पूरी तरह से फ़िल्मी बना दें.

कोर्ट के सीन्स के साथ ये कैसा मजाक?

इस फिल्म के अदालत वाले सीन्स भी बेहद बचकाने लगते हैं. शुरुआत में जो पिता और बेटी के रिश्ते को दिखाया गया है जब बेटी अपने पिता के सिर और दाढ़ी के बाल काला करती हैं या फिर जब पिता अपनी बेटी के सर में तेल लगता है तो वो काफी लुभाता है लेकिन जिस तरह से शरद केलकर अपनी गुंडा पार्टी के साथ बीहड़ के इलाकों में 'हाईड एंड चीख' का खेल खेलते हैं, उससे देखकर यही लगता है की लेखक और निर्देशक ने एक समय के बाद कह दिया होगा की फिल्म की रियल अपील चूल्हे में जाए.

संजय दत्त ने रिलीज से पहले इस फिल्म का जमकर प्रमोशन किया है

इस फिल्म में कुछ एक मोमेंट्स है जो आपको पसंद आएँगे लेकिन पूरी फिल्म को लेकर यही बात मैं नहीं कह सकता हूं. नयापन के नाम पर इसमें कुछ भी नहीं है. एक बात यहां पर मैं यह कहना चाहूंगा की यह फिल्म पिता और बेटी के बारे में है जो एक दूसरे से बेहद प्यार करते हैं लेकिन यहाँ जब बेटी के अभिनय के स्तर औसत दर्जे के है तब फिल्म के सीने की धड़कन बंद हो जाती है.

रोल में फिट रहे हैं संजय

अभिनय के मामले में संजय दत्त के चेहरे पर जब गुस्से की लकीरें बननी शुरू हो जाती है तब आप उनके लिए ताली बजाते हैं. एक असहाय पिता के रोल में संजय दत्त सहज दिखाई देते है लेकिन अदिति राव को अभी भी अपने अभिनय में पैनापन लाने की जरुरत है. शरद केलकर को देख कर गुस्सा ज़रूर आता है लेकिन धौली के रूप में उनके किरदार को मज़ाक बना दिया गया है. शेखर सुमन फिल्म में क्या कर रहे है यह समझ में नहीं आता है. आप फिल्मों को इसलिए देखने जाते है की आपको उसमे एक नई कहानी मिलेगी लेकिन यही कहानी जब इस साल तीसरी बार दोहराई जा रही है कुछ एक कॉस्मेटिक चेंजेस के साथ तो आप क्या कहेंगे. देख कर आश्चर्य होता है की यह वही ओमंग कुमार थे जिन्होंने मेरी कॉम बनाई थी लेकिन बाद में सरबजीत में गच्चा खा गए थे.

याद रखने वाली बात है की मेरी कॉम के वक़्त उनके सर पर संजय लीला भंसाली के हाथ था लेकिन उनकी पिछली दो फिल्मों से वो अपने फिल्मों की कमान खुद ही संभाले हुए हैं. ओमंग कुमार के लिए वक़्त आ गया है की वो अपने फिल्मों की विवेचना करे और किसी मंझे हुए फिल्म मेकर के साथ विचार विमर्श. यहां पर मैं फिल्म के सिनेमैटोग्राफ़ी की तारीफ़ करुंगा जो बेहद ही उम्दा है. अगर आप संजय दत्त के ज़बरदस्त फैन हैं तो इसको देखने में कोई हर्ज नहीं है वरना न्यूटन भी बगल के सिनेमा हॉल में आज ही के दिन रिलीज़ हुई है.