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Review बाबूमोशाय बंदूकबाज : गैंग्स ऑफ वासेपुर का 'घटिया वर्जन' है ये फिल्म

कमियों से भरी इस फिल्म में नवाज को उनके टैलेंट के हिसाब से खेलने का मौका नहीं दिया गया

Abhishek Srivastava

बाबूमोशाय बंदूकबाज का कलेवर दूसरा हो सकता था अगर ये फिल्म लीक पर चलती तो. लीक पर चलने का ये मतलब है कि ये फिल्म यूपी के क्राइम और राजनीति को जोड़ती है, शुरुआत भी उसी से होती है लेकिन इसका खात्मा पर्सनल लेवल पर होता है. फिल्म के पहले फ्रेम से ही इस बात का पता चल जाता है कि बाबूमोशाय बंदूकबाज पर अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर का जबरदस्त हैंगओवर है.

अच्छी शुरुआत-बुरा अंत


जब फिल्म शुरु होती है तो ये फिल्म आम बॉलीवुड मसाला नजर नहीं आती. इसलिए इसके प्रति रुचि बनी रहती है लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती है इसका ग्राफ भी नीचे गिरता चला जाता है और अंत में आप खुद से बोलते हैं कि ये सब क्या हो रहा है? शुरुआत जिस तरह से फिल्म की होती है उसको देखकर लगता है कि रियलिज्म को पर्दे पर लाने की ये एक अच्छी कोशिश है लेकिन ये सबकुछ बाद में गर्त में चला जाता है.

फिल्म में यूपी के शहर का जिक्र नहीं किया गया है लेकिन गाड़ियों के नंबर प्लेट से पता चलता है कि इसकी पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश के किसी पूर्वांचल इलाके के जिले की है. फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दीकी बाबू बिहारी के किरदार में हैं और वो एक कांट्रेक्ट किलर हैं यानि की बाहुबली नेताओं की जमात उनको सुपारी देती है लोगों को जान से मारने की.

सुपारी किलर बने हैं नवाज

दो लोकल लेवल के नेताओं के लिए वो काम करते हैं जिनमें से एक का किरदार दिव्या दत्ता ने निभाया है जबकि दूसरे नेता के किरदार में हैं अनिल जॉर्ज. जब नवाज को पता चलता है कि उसका इस्तेमाल किया जा रहा है तब उसका रवैया बदल जाता है और उसी बीच एक दूसरा कांट्रेक्ट किलर, जिसका रोल निभाया है जतिन गोस्वामी ने, शहर में आ जाता है जो नवाज को अपना गुरु मानने लगता है.

ऐसे भी मौके आते हैं जब शागिर्द, गुरु की जान बचाता है लेकिन इंटरवेल के वक्त नवाज के साथ कुछ हादसा हो जाता है जिसका खुलासा मैं यहां नहीं कर सकता. उसकी वजह से नवाज आठ सालों के लिए शहर से गायब हो जाते हैं जब वापस उनका आना होता है तब उन्हें इस बात का इल्म होता है कि धोखाधड़ी उनके साथ किस-किस ने की थी और फिर उसके बाद वो सभी से बदला लेते हैं.

डायरेक्शन ने किरकिरा किया मजा

अभिनय की बात करें तो नवाज से बुरे अभिनय की उम्मीद रखना बेईमानी होगी. इस फिल्म में भी उन्होंने अपने अभिनय के जलवों की अदा बिखेरी है लेकिन गलतियों से भरी स्क्रिप्ट ने उनका साथ नहीं दिया है. उनकी पत्नी के रोल में है बिदिता बाग जिन्होंने फिल्म में महज ग्लैमर का तड़का मारा है. उनका अंदाज बिंदास है लेकिन यही चीज हम उनके अभिनय के बारे में नहीं कह सकते. छुटभैये नेता के रोल में दिव्या दत्ता भी दमदार हैं. बांके बिहारी के किरदार में जतिन काफी सहज नजर आते हैं.

फिल्म की सेटिेंग काफी हद तक हमें रियालिटी के करीब ले जाती है जो फिल्म में अपील करती है. लेकिन अधपकी कहानी की वजह से मजा किरकिरा हो जाता है. इस फिल्म के निर्देशक कुशान नंदी है और एक बात साफ है कि भले ही उनके इरादे नेक थे लेकिन पर्दे पर वो उसे उतारने में नाकामयाब रहे है. फिल्म पर कभी उनकी पकड़ दिखाई देती है तो दूसरे ही पल वही पकड़ ढीली है जाती है और ऐसा पूरी फिल्म में होता है.

इस फिल्म से मुझे ढेरों शिकायत हैं. पहली बात ये कि फिल्म में कांट्रेक्ट किलर को ऐसे दिखाया गया है मानो वो आपके पड़ोस में ही रहता है और उसकी चाल ढाल आम आदमी जैसी ही है. यानी व्यवस्था को लेकर डर नाम की चीज उसके अंदर नहीं है. फिल्म की शुरुआत जिस तरह से होती है उसके देखकर ये लगता है कि आगे काफी जबरदस्त चीजें देखने को मिलने वाली हैं.

फिल्म का शुरु का क्रेडिट रोल सत्तर के गानों के माध्यम में नवाज के किरदार को बखूबी बयां कर देता है. यही लगता है कि राजनीति का एक और गंदा रुप अपने वीभत्स रुप में देखने को मिलेगा. लेकिन कुछ समय के बाद जब फिल्म में जब दूसरे कांट्रेक्ट किलर की एंट्री होती है तब फिल्म ढलान पर आ जाती है और ये तभी रुकती है जब फिल्म खत्म होती है.

फिल्म में नवाज को उनको सिर पर गोली लगती है लेकिन वो बच जाते है. एक सीन में उनके सीने में गोली गलती है लेकिन अगले ही दिन अपनी पत्नी से रास रचाते हैं. दूसरा कांट्रेक्ट किलर यानी बांके बिहारी भी गोली का शिकार होता है लेकिन बच जाता है. फिल्म में पुलिस वाले को भी पीठ में गोली लगती है लेकिन वो भी बच जाता है. लगता है फिल्म को लिखने वाले गालिब असद भोपाली अपने दिमाग की नहीं बल्कि अपने दिल की सुन रहे थे कि मुझे फलां किरदार को बचाना है.

फिल्म में कुछ सींस हैं जब वाहवाही निकलती है मसलन जब नवाज, बिदिता और जतिन नशे में नाचते हैं या फिर जो फिल्म में इंस्पेक्टर तारा शंकर मोहन बने भगवान तिवारी अपनी पत्नी और सात बच्चों से रुबरु होते हैं तब. एक गाने बर्फानी को छोड़ दें तो बाकी असरदार साबित नहीं होते.

ऐसी फिल्मों में जबतब राजनीति की बिसात पर जो चालें चली जाती हैं, देखने को नहीं मिलती है तब तक मजा नहीं आता है. फिल्म में नवाज ऐसे घूमते नजर आते हैं मानो पुलिस के लिये वो एक अदृश्य चीज हों. फिल्म ने दूसरे कांट्रेक्ट किलर के रोल को कुछ ज्यादा ही तरजीह दे दी है.

फिल्म के बीच में इन दोनों को बड़ा हिस्सा दिया गया है और उन दोनों में एक तरह की स्पर्धा होती है कि कौन कितनों को मार सकता है.  ये सब कुछ बेहद ही बेतुका लगता है. जब-जब फिल्म रियालिटी के करीब जाती है तब फिल्म का कमर्शियल एसपेक्ट उसके आड़े आ जाता है. नवाजुद्दीन के किरदार को अच्छी तरह से स्केच ना कर पाने की वजह से नवाज खुलकर अपने तेवर नहीं दिखा पाये हैं. कुल मिलाकर एक लचर स्क्रिनप्ले एक अच्छी कहानी पर भारी पडी है.