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जाने भी दो यारों : जब कुंदन शाह ने काटा अनुपम खेर का रोल, नसीरुद्दीन शाह को दिया कैमरा

कुंदन शाह भले ही अपनी कल्ट फिल्म की सफलता फिर न दोहरा सके फिर भी जानकार उन्हें अपनी क्राफ्ट का कुंदन ही मानते हैं

Abhishek Srivastava

दिवंगत ओम पुरी की पत्नी नंदिता पुरी ने अपनी किताब ओम पुरी - अनलाइकली हीरो में निर्देशक कुंदन शाह के बारे में उल्लेख किया है. उन्होंने अपनी इस किताब में लिखा है की कुंदन शाह अपनी फिल्मों के सेट पर अक्सर  खोए रहते थे. एक बड़ी ही बेचैन किस्म की ऊर्जा उनसे हमेशा निकलती रहती थी. लेकिन उनकी सबसे बड़ी खूबी ये थी की वो अपने कलाकारों पर पूरा भरोसा करते थे और सेट पर उनको इम्प्रोवाईस करने का पूरा मौका देते थे.

नियम कायदों से दूर रहे कुंदन


किताबों में जो फिल्म बनाने के नियम कानून रहते हैं उनसे वो दूर ही रहे. कुंदन शाह के बारे में इससे सटीक आंकलन नहीं हो सकता है. कम शब्दों में ये उनकी शख्सियत और उनके फिल्म बनाने के क्राफ्ट को पूरी तरह से बयान कर देता है. कुंदन की आधी पढ़ाई गुजराती में हुई थी और आधी पढ़ाई अंग्रेजी इसलिए हमेशा से ही इस दुविधा में रहे कि भाषा के ऊपर उनकी ज्यादा महारत है. जीवन यापन के लिए उन्होंने बी. कॉम की पढ़ाई के बाद एक पब्लिशिंग हाउस में क्लर्क की नौकरी महज इसलिए पकड़ ली थी क्योंकि उनको किताबों का बेहद शौक था और वो किताबों के पास रहना चाहते थे. अपने नौकरी के ही दौरान उन्होंने फिल्म इंस्टिट्यूट की परीक्षा पास करके डायरेक्शन के कोर्स में दाखिल ले लिया था.

7 लाख में बनकर तैयार हुई थी 'जाने भी दो यारों'

लगभग 35 सालों का फ़िल्मी सफर और महज 7 फिल्में उनके हुनर को बयान नहीं करती और ये इसलिए भी था कि कुंदन शाह ने कभी कंप्रोमाईज करना नहीं सीखा था और दुनियादारी उन्हें आती नहीं थी. उनकी पहली फिल्म 'जाने भी दो यारों' जब सिनेमाघरों में 1983 में रिलीज़ हुई थी तो वो सफलता के चरम सीमा पर अपनी पहली फिल्म से ही पहुंच गए थे लेकिन उस सफलता के पीछे उन्हें क्या-क्या करना पड़ा था इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है. 'जाने भी दो यारो' की लागत महज 7 लाख रुपए थी जो एनएफडीसी के खाते से आए थे.

घर से बनकर आता था खाना

फिल्म में जो भी काम कर रहा था उनके लिए खाना कुंदन के घर से ही बनता था जो उनकी पत्नी दो बाइयों की मदद से बनाती थीं. खाने में अक्सर दूधी और आलू की सब्ज़ी ही परोसी जाती थी. जब कुंदन की पहली फिल्म बन कर तैयार हो गई थी तो उस वक़्त उस फिल्म की लम्बाई चार घंटे और पांच मिनट की थी. लेकिन एडिटर रेनू सलूजा ने पूरी फिल्म पर ऐसी कैची चलाई की उसकी लम्बाई बाद में दो घंटे और ग्यारह मिनट में सिमट कर रह गई थी.

अनुपम खेर का रोल कटा

इसी फिल्म से अनुपम खेर डिस्को किलर के किरदार में अपनी फ़िल्मी पारी की शुरुआत भी करने वाले थे लेकिन रेनू सलूजा की कैची उस फिल्म में कुछ इस तरह से चली की वो किरदार फिल्म से पूरी तरह से निकल गया. शायद आज भी अनुपम खेर अपनी किस्मत को कोसते होंगे. 'जाने भी दो यारो' एक ऐसी फिल्म थी जो उनके गुस्से से निकली थी जो उनके आसपास हो रहा था. फिल्म का सार उन्होंने अपने दो पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट के मित्रों से ही लिया था जो हैदराबाद में उस वक़्त रहते थे लेकिन ज़माने की मार की वजह से फोटोग्राफी की दुनिया में परचम लहराने की बजाये इंडस्ट्रियल फोटोग्राफी करने लगे थे.

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राशन कार्ड पर मिलता था सीमेंट

जिन दिनों कुंदन फिल्म की कहानी लिख रहे थे ये वो भी दिन थे जब महाराष्ट्र में ए आर अंतुले की सरकार थी और सीमेंट राशन पर मिलता था. जब उनकी सोसाइटी की टंकी में गटर के पानी का रिसाव होने लगा तब कुंदन को सीमेंट लेने दादर उनके दफ्तर में जाना पड़ा था क्योंकि सोसाइटी के सेक्रेट्री के नाते वो उनकी जिम्मेदारी थी. मांग थी सीमेंट की दस बोरी की लेकिन उनको महज पांच बोरी ही नसीब हुई और इस विषय को भी उन्होंने फिल्म में अपनी तरह से पिरोया.

खोया नसीरुद्दीन शाह का कैमरा

बेहद तकलीफ भरे माहौल में इस फिल्म को बनाने की कवायद में उनको एक और अभिनेता ने काफी परेशान किया और वो कोई और नहीं बल्कि खुद नसीरुद्दीन शाह थे. नसीर को उनके इस ब्लैक ह्यूमर पर भरोसा नहीं था और इस वजह से वो फिल्म की इस पूरी मेकिंग को लेकर आश्वस्त नहीं थे. तंगी की इस फिल्म शूटिंग में अभिनेता खुद अपने घर से फिल्म का प्राप लेकर आते थे. उसी में से एक था नसीर का कैमरा जो फिल्म की शूटिंग के आख़िरी दिन मरीन लाइन्स स्टेशन पर चोरी हो गया था. इस चोरी से सबसे ज्यादा किसी को तकलीफ हुई तो वह थे खुद कुंदन जिन्होंने आगे चलकर एक नया कैमरा नसीर को दिया था.

पहले दर्शकों ने नकार दी थी फिल्म

फिल्म में खबरदार मैगज़ीन के एडिटर का जो रोल भक्ति बर्वे ने निभाया था उसके लिए कुंदन सबसे पहले अपर्णा सेन के पास गए थे लेकिन नरेशन के वक्त कहानी पसंद नहीं आने की वजह से उनको नींद आ गई थी. इस फिल्म के लिए शूटिंग के पहले चार दिन का रिहर्सल भी रखा गया था मुंबई के रविंद्र नाट्य मंदिर में. यह भी फिल्म का नसीब ही था की जब कुंदन की ये फिल्म सिनेमा हॉल्स में रिलीज़ हुई तब इसके चाहने वालो की तादाद ना के बराबर थी. इसको कल्ट फिल्म बनने में लगभग दस साल और लग गए. ये तो स्टेट ब्रॉडकास्टर दूरदर्शन का शुक्र था जिसकी वजह से लोगों को ये फिल्म देखने का मौका मिला.

दोहरा नहीं पाए अपनी कल्ट फिल्म की सफलता

ये भी सच है की 'जाने भी दो यारों' की सफलता को कुंदन अपनी बाकी फिल्मों में दोहरा नहीं पाए. लेकिन 'जाने भी दो यारों' के बाद उनको अपनी अगली फिल्म बनाने में दस साल से ऊपर का समय लग गया इसके लिए दोष किसी और के ऊपर नहीं बल्कि फिल्म जगत के चलन के ऊपर जाना चाहिए जहां कमर्शियल फिल्में खुदा मानी जाती हैं. अगर एक निर्देशक 'जाने भी दो यारों' जैसी फिल्म बनाने के बाद अपनी दूसरी फिल्म के लिए माथा पच्ची करता है तो इससे ज्यादा दुःख की बात और नहीं हो सकती है. उनकी अगली फिल्म शाहरुख खान के साथ फिल्म कभी हां कभी ना थी. 1993 में जब ये फिल्म रिलीज हुई थी तब समीक्षकों ने इसकी भूरी-भूरी प्रशंशा की थी लेकिन पैसे बनाने के मामले में ये फिल्म भी 'जाने भी दो यारो' की तरह पिछड़ गई थी. इस फिल्म के लिए भी कुंदन को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ा था.

कई फिल्मों का किया निर्माण

लेकिन उसके बाद उन्होंने जो भी फिल्में बनाई उनको देखकर यही लगा की कुंदन की धार जा चुकी थी और कहीं ना कहीं फिल्म जगत के चलन से हताश हो चुके थे. दिल है तुम्हारा, हम तो मोहब्बत करेगा, एक से बढ़कर एक कुछ ऐसी फिल्में थी जिनको दर्शकों का प्यार नहीं मिला. सिर्फ क्या कहना बॉक्स ऑफिस पर कुछ पैसे बनाने में कामयाब हो पाई थी. यह भी अजीबो गरीब इत्तेफ़ाक़ की ही बात थी कि जिस कुंदन को अपनी दूसरी फिल्म बनने में दस साल से ऊपर का वक़्त लग गया था उसी कुंदन की दो फिल्में क्या कहना और हम तो मोहब्बत करेगा सन 2000 में एक हफ्ते के फासले पर रिलीज हुई थी.

बेहतरीन कॉमेडी में सबसे ऊपर 'जाने भी दो यारों'

फिल्म जगत के कमर्शियलाइजेशन की मार कुंदन के फ़िल्मी क्रॉफ्ट पर पूरी तरह से पड़ी. ये अपने आप में एक बड़ी बात है कि अगर भारत की सबसे बेहतरीन कॉमेडी फिल्मों में अगर 'जाने भी दो यारों' का नाम सबसे ऊपर शुमार है उसको बनाने वाले एक बेहद ही संजीदे और पैरेलल फिल्म मूवमेंट के प्रोडक्ट कुंदन शाह को जाता है ना की कमर्शियल फिल्मों के बेताज बादशाह डेविड धवन या किसी और को. ये अपने आप में बहुत कुछ कहता है. आज कुंदन हमारे बीच नहीं है लेकिन कॉमेडी का अलग रंग जो उन्होंने 'जाने भी दो यारों', कभी हां कभी ना, नुक्कड़ और ये जो है जिंदगी से भरा उसकी भरपाई आने वाले कई सालों तक करना मुश्किल है. सादगी से जीने वाले इस कमाल के डायरेक्टर को हमारा सलाम है.