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रंगून फिल्म रिव्यू: बेहतरीन फिल्म की तलाश में एक्शन क्वीन कंगना

कंगना ऐसे किरदार बखूबी निभाती हैं जिन्हें निभाने का मौका किसी बड़ी अभिनेत्री को नहीं मिला

Anna MM Vetticad

ब्लडी हेल!

वो भारत-म्यांमार सीमा के नजदीक एक स्टेज के ऊपर से घोड़े को कुदा देती है, आंख पर पट्टी बांधकर कई फीट दूर निशाने पर चाकू फेंकती है, गुंडों की पिटाई करती है और एक ताकतवर सैनिक से मिट्टी में कुश्ती करती है और चलती ट्रेन पर तेजी से दौड़ती है.


बात यह नहीं है कि कंगना रनौत एक फिल्म में ये सब कर लेती हैं. बात यह है कि, वो यह सब चुनौती भरे स्टंट करते हुए विश्वसनीय लगती हैं, और अच्छी भी लगती हैं. इसलिए मैं रंगून में उनके किरदार का तकिया कलाम इस्तेमाल कर रही हूं: ब्लडी हेल!

कंगना एक क्वीन हैं. अगर रंगून से कोई एक सबक सीखना हो तो वो यह है: हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री बहुत ही भयानक ढंग से बेवकूफ है जो अपनी महिला अदाकाराओं की जबरदस्त प्रतिभा का फायदा नहीं उठाती, और कंगना, प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण, अनुष्का शर्मा या उन जैसी सशक्त और तेजतर्रार महिलाओं को और ऐक्शन फिल्मों में मुख्य भूमिका नहीं देती.

जब रंगून में हीरोइन अपनी शारीरिक ताकत दिखाती है तो फिल्म मजबूत दिखती है. यह दूसरी जगहों पर लड़खड़ाती है, लेकिन एक जोशीली महिला को वो सब करते देखना हो जो अब तक सिर्फ मर्दों के ही हिस्से आता था, तो यह फिल्म देखी जा सकती है.

विशाल भारद्वाज की ताजा फिल्म हमें 1940 के दशक में ले जाती है जहां पर्दे पर मिस जूलिया नाम रखने वाली एक ऐक्शन स्टार बंबई के सिनेमा पर राज करती है.

फिल्म में जूलिया कारोबारी उस्ताद और प्रोड्यूसर रूसी बिलिमोरिया (सैफ अली खान) की शादीशुदा है और उससे अपने पालतू की तरह बर्ताव करता है, एक खूबसूरत जानवर की तरह जिस पर दया दिखाई जानी है, लाड़-प्यार किया जाना है और महफूज रखा जाना है. उसे प्यार करना है तो उस तरह जैसे वो सोचता है कि किसी महिला को किया जाए, लेकिन सम्मान न दिया जाए.

इन दोनों से दर्शक रूबरू होता है कई युद्धों की पृष्ठभूमि में. भारत में महात्मा गांधी और उनके जैसे स्वतंत्रता सेनानी देश को अहिंसा के हथियार की मदद से अंग्रेजों से आजादी दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. वहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपनी आजाद हिंद फौज बना रहे हैं. ये दोनों विचारधाराएं लोगों का दिल-दिमाग जीतने की कोशिश कर रही हैं.

इस बीच बिलिमोरिया कारोबारी किन्हीं वजहों से अंग्रेजों का कर्जदार बन जाता है. हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि मिस जूलिया को भारत-म्यांमार सीमा तक जाना पड़ता है जहां उसे 'ब्रितानी' सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए कई शो करने  हैं.

यहीं मिस जूलिया की मुलाकात होती है जमादार नवाब मलिक (शाहिद कपूर) से, नवाब मलिक भी अंग्रेजों की सेना में दूसरे कई भारतीयों की तरह काम कर रहा है और अपने ही लोगों को गुलाम रखने के काम में लगा है.

रंगून की कहानी इन दो त्रिकोणों के आस-पास घूमती है: जूलिया, रूसी और नवाब; भारत, गांधी और बोस.

देखने में तो ऐसा लगता है कि इन हालात में फिल्म में कई संभावनाएं पनप रही हैं और रंगून के बड़े हिस्से में ऐसा दिखता भी है . कंगना बड़ी आसानी से एक ऐसी महिला का किरदार निभा ले जाती हैं जो कभी नाज़ुक है तो कभी ताकतवर, जख्मी है तो कभी ऐसी भी कि किसी चीज का असर न हो, एक बच्ची जो फिल्म के दौरान ही महिला में तब्दील हो जाती है.

कंगना और उनके किरदार का बदन उतना ही लुभावना लगता है जितना उनका दिमाग: वो नाज़ुक लगती है लेकिन जरूरत पड़ने पर गजब की ऊर्जा और फुर्ती दिखाती है.

शुक्रिया इस बात का कि रूसी का किरदार वैसा दिलकश, पसंद करने लायक, अल्हड़ इश्कबाज नहीं है जिसे सैफ ने कुछ फिल्मों में निभाया है. वो एक अनैतिक लेकिन रिझाने वाला इंसान है, एक आदमी जो भले-बुरे और अंदरूनी द्वंद्वों के फेर में उलझा हुआ है, जिनसे उसका सामना होने पर वो खुद भी हैरान होता दिखता है.

सैफ इसे फिल्म में उतने ही आश्वस्त नजर आते हैं जितना वो अब तक के अपने सबसे बढ़िया किरदारों में दिखे हैं, रूसी को पसंद करना मुश्किल लगता है लेकिन उससे नफरत करना भी नामुमकिन है.

हालांकि, पूरी फिल्म के दमदार होने के लिए जरूरी था कि दर्शक को जूलिया और नवाब की जोड़ी पसंद आए न कि जूलिया और रूसी की, लेकिन अजीब बात है कि कंगना और शाहिद की केमिस्ट्री में वो गर्मजोशी नहीं दिखती.

और शाहिद पूरी भूमिका में भावहीन दिखते हैं, जो कि समझ से बाहर है क्योंकि वो विशाल भारद्वाज के साथ अपने करियर की सबसे बढ़िया परफॉर्मेंस, हैदर (2014), देने के बाद यहां दिखाई देते हैं.

अच्छी केमिस्ट्री अच्छे अभिनय से ही नहीं मिलती, यह आती है शानदार कहानी से. रंगून में दिक्कत यहीं हैं. हैदर की कहानी जहां बांधे रखने वाली थी, रंगून में सब कुछ बिखरा-बिखरा सा लगता है, फिल्म जैसे कहानी से अलग-थलग चलती है, दृश्यों को बाहर से बताते हुए न कि किसी हिस्सेदार की तरह.

रंगून की कहानी मैथ्यू रॉबिंस ने लिखी है, उन्होंने साल 2011 में आई सात खून माफ भी लिखी थी, जिसे विशाल भारद्वाज ने निर्देशित किया था. स्क्रीनप्ले को रॉबिंस, सबरीना धवन और विशाल भारद्वाज ने मिलकर लिखा है.

शायद विशाल भारद्वाज को रॉबिंस के साथ मिलकर काम करने से पहले ही अंदाजा होना चाहिए था कि, सात खून माफ में तमाम माहौल और कुतूहल बनाने के बावजूद वो फिल्म उस दुनिया की लगी ही नहीं थी जैसी उसे बनाने की कोशिश की गई थी.

यही वजह है कि रंगून पर्दे पर बेजान लगती है. फिल्म को रफ्तार पकड़ने में भी वक्त लगता है. रंगून सबसे बढ़िया लगती है इंटरवल के बाद लेकिन फिर बहुत ज्यादा नाटकीय, भद्दे अंत के साथ चित हो जाती है. फिल्म का अंत अपने राष्ट्रवादी जोश में भावनात्मक रूप से बहुत दुख देने की कोशिश करता है लेकिन मनोरंजक ढंग से घिसा-पिटा लगता है.

इसके बावजूद रंगून में कुछ अच्छी चीजें भी हैं. पंकज कुमार की सिनेमैटोग्राफी कल्पनामय और भव्य है, स्पेशल इफेक्ट्स में कहीं-कहीं दिखती कमजोरी के बावजूद फिल्म शानदार लगती है.

डॉली अहलूवालिया की कॉस्ट्यूम्स और हेयर स्टाइलिंग कमाल की है. कंगना के जोश, पुराने जमाने की कोरियोग्राफी और अच्छे से लिखे गए गानों का जब इस अफ़साने और भव्य सेट से बखूबी मिलन होता है तो रंगून के कई गाने और डांस नंबर यादगार बन जाते हैं.

संगीत विशाल भारद्वाज का है, गाने गुलजार ने लिखे हैं. यह वाकई में ऐसी टीम है जिसे बार-बार दोहराया जाना चाहिए. दोनों मिलकर रंगून के लिए अलग-अलग मूड का सतरंगी इंद्रधनुष तैयार करते हैं.

इसमें सोच में डुबो देने वाला रुमानी गाना 'ये इश्क है...' शामिल है तो शरारत से भरा 'मेरे मियां गए इंग्लैंड' भी. फ़िल्म में अरिजीत सिंह का गाया “सूफी के ज़ुस्फी की/ लौ उठी अल्लाह हू/ जलते ही रहना है/ बाकी न मैं न तू” और रेखा भारद्वाज की आवाज़ में “मेरे मियां गए इंग्लैंड/ बजा के बैंड/ न जाने कहां करेंगे लैंड/ कि हिटलर चौंके ना” जब आप सुनते हैं तो सोचते हैं कि काम की यही क्वालिटी फ़िल्म में दूसरी जगह भी देखने को मिले.

काश, ऐसा हो पाता

रंगून के शुरुआती प्रचार से ऐसा लगा कि यह फियरलेस नादिया की सच्ची कहानी पर आधारित है. नादिया ऑस्ट्रेलिया में 1908 में जन्मी वह अभिनेत्री थीं जिन्होंने अपने दौर में हिन्दी फिल्मों में एक ऐक्शन स्टार के तौर पर राज किया.

1996 में उनका निधन हुआ था. जैसा कि अक्सर बॉलीवुड फिल्मों के साथ होता है, अफवाह की जगह एक आधिकारिक बयान ने ले ली है कि फिल्म का नादिया से कोई लेना-देना नहीं है.

सच तो यह है कि जूलिया का किरदार शायद नादिया से प्रेरित हो लेकिन यह एक बायोपिक नहीं है. यह उस दौर का एक प्रेम त्रिकोण है जब भारत के लोग महात्मा और नेताजी की परस्पर विरोधी विचारधाराओंं में से एक को चुनने की कोशिश कर रहे थे.

मकबूल, ओमकारा और हैदर जैसी फिल्में बनाने वाले विशाल भारद्वाज का रंगून जैसी फिल्म बनाना बिल्कुल मुनासिब है. दुख की बात यह है कि शेक्सपीयर के नाटकों पर बनी पिछली तीन फिल्मों की गजब की कहानी के बिना बनी रंगून में कुछ चीजें तो ठीक लगती हैं लेकिन यह फिल्म अपने दर्शक को बांधे रखने में नाकाम रहती है.

इसके बावजूद कंगना ऐसे किरदार बखूबी निभाती हैं जिन्हें निभाने का मौका हिंदी फिल्मों में किसी बड़ी अभिनेत्री को बीते कई दशकों में नहीं मिला. इसके लिए भारद्वाज बधाई के पात्र हैं और कंगना भी, क्योंकि वो जो बदलाव दुनिया में देखना चाहती हैं उसी को निभा भी रही हैं. हालांकि यह ऐक्शन क्वीन कहीं ज्यादा बेहतर फिल्म की हकदार थी.