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टीआरपी के चक्कर में टीवी का बजा बैंड: राजश्री ओझा

राजश्री ओझा से फ़र्स्टपोस्ट की संवादाता रूना आशीष ने 'बिन कुछ कहे' सीरियल और उनके कैरियर के बारे में बात की

Runa Ashish

निर्देशक राजश्री ओझा की पहली फिल्म 'चौराहें थीं. यह फिल्म हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार निर्मल वर्मा की चार कहानियों पर आधारित थी. इसके बाद उनकी अगली फिल्म 'आएशा' आई.

इसके बाद वे लंबे समय से मनोरंजन जगत में नहीं दिखी. अब राजश्री ओझा जी टीवी के सीरियल 'बिन कुछ कहे' के निर्माता के तौर पर अपना भाग्य आजमाने उतरी हैं.


राजश्री ओझा से फ़र्स्टपोस्ट हिंदी की संवादाता रूना आशीष ने इस सीरियल और उनके कैरियर के बारे में बात की.

टीवी की बनती बिगड़ती दुनिया के बारे में राजश्री ओझा कहती हैं, 'आजकल बहुत सारे लोगों ने टीवी देखना छोड़ दिया है. वो टीवी पर कुछ अलग देखना चाहते हैं, दर्शकों के एक वर्ग का टीवी से अलगाव हो गया है. जो लोग टीवी रेटिंग देखकर देखते हैं वे कुछ नया नहीं देखना चाहते हैं. इसलिए वे अभी भी उसी तरह के शोज के सामने बैठे हैं.'

वे आगे कहती हैं, 'आज की पीढ़ी तो वैसे भी टीवी नहीं देखती है. वो तो इंटरनेट पर है. हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा क्योंकि इंटरनेट और वेब शोज की इस दुनिया में ऐसा ना हो जाए कि लोग इस माध्यम में शिफ्ट हो जाएं.'

राजश्री ओझा (तस्वीर: रूना आशीष)

राजश्री कहती हैं, 'इसके पहले मैंने हमेशा निर्देशन का काम किया है और कई बार गुस्सा हो जाती थी कि निर्माता ने ये काम नहीं किया या वो काम नहीं किया. लेकिन आज जब मैं खुद निर्माता बनी हूं तो मालूम पड़ता है कि कितनी सारी बातों का ध्यान सिर्फ निर्माता को ही रखना पड़ता है. बहुत कुछ सहना पड़ता है.'

फिल्म और टीवी सीरियल के बीच अंतर को बताते हुए वे कहती हैं, 'फिल्म का क्या है कि वो खत्म हो जाती है लेकिन सीरियल को तो मैं लगभग 6 महीने से शूट ही कर रही हूं. वो तो अच्छा है कि मेरे 176 एपिसोड्स हैं. वर्ना मुझे लगता है कि शूट तो लगातार चलती ही जा रही है.'

'बिन कुछ कहे' सीरियल तीन बेटियों और एक मां की कहानी है. मां एक वॉर विडो है. बड़ी बेटी की शादी टूट चुकी है और वो एक बच्चे के साथ इनके साथ रहती है. मंझली बेटी एक सिंगर बनना चाहती है और  सबसे छोटी बेटी एक पत्रकार है. उसे अपनी ही कंपनी के मालिक से प्यार हो जाता है.

सोनम और अभय देओल के साथ बनाई फिल्म आएशा के बाद आप कहां गुम हो गई थीं?

इस फिल्म को लोगों ने बहुत सराहा. आएशा के बाद मुझे कुछ फिल्में मिलीं और मैंने साइन की लेकिन ये फिल्में स्टूडियो के बाहर की रोशनी नहीं देख पाई या बंद हो गई. लेकिन जल्द ही मैं एक और फिल्म कर रही हूं.

यह फिल्म महिलाओं के विषय पर है और निर्माता भी तैयार हैं. जैसे ही कुछ बताने लायक बात हुई तो मैं बता दूंगी.

टीवी सीरियल्स के बाद अब फिल्मों में भी महिलाएं अब दमदार रोल में दिखने लग गई हैं लेकिन वो दिन कब आएगा जब टीवी पर पुरुषों को भी दमदार रूप में दिखाया जाएगा?

हाल ही में मैंने स्टार प्लस पर शो देखा था 'पी.ओ.डब्ल्यू.- बंदी युद्ध के'. मेरे हिसाब से इस शो में बहुत ही संजीदगी के साथ पुरुषों की सोच को दिखाया गया था और संध्या मृदुल और अमृता ने बहुत बेहतरीन काम किया है.

वैसे भी 80 के दशक में जो महिला प्रधान फिल्में हुआ करती थीं वो कहानी ही अब सीरियल्स में पहुंच गई है. दूसरी तरफ सिनेमा में फिल्मों का नया रूप चल निकला है. टीवी पर कुछ बदलना असंभव तो नहीं लगता है लेकिन यह एक दो दिन में होने वाली चीज नहीं है. लेकिन एक दिन टीवी में बदलाव जरूर आएगा.

टीवी में कई रिएलिटी शोज या दूसरे शोज बाहर के देशों से यहां आए हैं. वो दिन कब होगा जब भारतीय शोज को विदेशी लोग देखेंगे और उन पर आधारित सीरियल्स बनाएंगे?

देखिए वो लोग टीवी के सास बहू सीरियल्स समझ नहीं पाएंगे. जाहिर है उनको वो चीजें पसंद आएंगी जिनसे वो अपने आप को जोड़ सकें.

ऐसे में मुझे ऐसा लगता है कि शायद 'मालगुड़ी डेज' जैसे एकदम हमारी मिट्टी से बने शोज होंगे. जिसमें एक छोटा लड़का उसकी दादी और दोस्तों की कहानी होगी तो शायद विदेशी लोगों को भी वो सब्जेक्ट पसंद आएगा. तभी वे हमारे शोज और सीरियल्स से जुड़ सकेंगे और वहां पर ऐसे शोज को अडॉप्ट किया जा सकेगा.

तो आपको क्या लगता है कि अच्छा कंटेंट कहां से लाए?

देखिए हमारे देश में बहुत सारा साहित्य है मेरे हिसाब से उन पर शोज बनना चाहिए. पहले इस तरह के शोज और सिनेमा बनते थे. गुलजार और ऋषिकेश मुखर्जी ऐसी फिल्में बनाते थे जिसमें साहित्य से ली गई कहानियां थीं.

इसे फिर से शुरू करना चाहिए. वैसे भी अच्छे निर्देशक हैं या प्रोडक्शन हाउस हैं. पैसे भी बहुत है टेक्नॉलॉजी भी है.

अब फिल्मों के मामले में ईरान को ही देख लीजिए ना. कम पैसे में कितनी बढ़िया फिल्में ले आते हैं. और रही बात टीवी की तो एक बार टीआरपी से हट कर अच्छा कंटेंट देकर देखते हैं.