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हर रोल के लिए नया किरदार गढ़ता हूं, उसे शॉर्ट फिल्म में क्यों बर्बाद करुं: पंकज कपूर

जैसे-जैसे जीवन से जो बातें समझ में आ रही हैं, उस अनुभव का इस्तेमाल करने की कोशिश करता हूं.

Avinash Dwivedi

'भारत के चलते-फिरते एक्टिंग स्कूल' कहे जाने वाले पंकज कपूर 29 मई को 63 साल के हो गए. पंकज कपूर के निभाए किरदारों की मिसालें दी जाती हैं. इस मौके पर उन्होंने अपनी जिंदगी और करियर के तमाम पहलुओं पर फ़र्स्टपोस्ट हिंदी से बातचीत की. पेश है पंकज कपूर से हमारी स्पेशल बातचीत:

क्या किरदार आपको देखकर लिखे जाते हैं या आप किरदारों के अनुसार खुद को ढालते हैं?


अभी तक ये मेरे जीवन में नहीं हुआ कि किरदार मुझे ध्यान में रखकर लिखे गए हों. अगर कोई लिख रहा है तो मैं बहुत खुश होऊंगा कि मेरे स्टाइल को देखकर लिखा जा रहा है. वैसे तो बड़ी मुश्किल से ही काम पहुंचता है मुझ तक. जब आता है तो किरदार के साथ मैं न्याय करने की पूरी कोशिश करता हूं.

शुरुआती किरदारों और आज के किरदारों में क्या अंतर पाते हैं?

ये तो दर्शक तय करेंगे. मैं बस ये कोशिश करता हूं कि जैसे-जैसे जीवन आगे बढ़ता जा रहा है, जीवन से जो बातें समझ में आ रही हैं या जिन्दगी को परख कर जो मैं समझ रहा हूं. उस अनुभव का जितना हो सकता है इस्तेमाल करूं. हां, ये जरूर समझना चाहिए कि ऐसे किरदार बहुत कम ही होते हैं जो बिल्कुल तैयार करके आपके सामने पेश किए जाएं, मतलब पहले भी और अब भी बहुत कुछ अपनी समझ से किरदारों में जोड़ने की गुंजाइश बनी रहती है.

कोई ऐसी फिल्म आपने कभी की हो जिसे करने के बाद लगा हो कि अभी बहुत काम करना बाकी है, अभी बहुत सीखना बाकी है?

मुझे तो हर प्रोजेक्ट के बाद लगता है कि अभी बहुत काम बाकी है, अभी बहुत इंप्रूवमेंट की जरूरत है. अभी कई ऐसे नए पहलू हैं जिन्हें सीखने, समझने, जानने की आवश्यकता है.

पैरलल सिनेमा के दौर की आज भी तारीफ होती है पर उससे जुड़े कई एक्टर उस दौर से असंतोष जता चुके हैं. ऐसे में आप एक एक्टर के तौर पर उसे कैसा मानते हैं? आज उस दौर को कैसे याद करते हैं?

सब चीजें जरूरत के चलते होती हैं. जो लोग उस तरह का सिनेमा बनाना चाहते थे, जैसा नहीं बन रहा था. उन लोगों ने अपनी सोच के हिसाब से सिनेमा बनाया. उन्हें भी उस वक्त नहीं मालूम था कि इसे इतने अच्छे से स्वीकार लिया जाएगा.

एक वजह ये भी थी कि दूसरी तरह के सिनेमा में हाथ डालने के लिए हाथ कम भी थे और मौका भी नहीं मिल पाता था. ये दोनों ही बातें साथ-साथ काम कर रही थीं. पर ये जरूर है कि हमारे यहां एक ही तरह का सिनेमा बन रहा था ऐसे में कुछ लोगों ने हिम्मत की और अलग तरह का कैरेक्टर सिनेमा में दिखाने की कोशिश की. उन्होंने जैसा सोचा, वैसा बनाया और एक हद तक उनका सिनेमा कामयाब भी हुआ.

फिर जिस जमाने में हम लोगों ने सिनेमा में एंट्री की थी सिनेमा में उस जमाने में हीरो होता था. हीरोइन होती थी. कैरेक्टर एक्टर होता था जिसमें ज्यादातर वो हीरो का दोस्त होता था या विलेन होता था. इतने लोगों के अलावा बहुत हुआ तो एक कॉमेडियन होता था. इसके अलावा कैरेक्टर्स नहीं सोचे जाते थे.

अपनी पत्नी सुप्रिया पाठक के साथ कपूर.

सीधे शब्दों में कहें तो, 'एक इंसान क्या होता है?' इसकी कोई परिभाषा ही नहीं थी. हीरो और विलेन की डिसाइडेड चीजें होती थीं कि इन्हें ये-ये करना है. ये मैं बाय एंड लार्ज बात कर रहा हूं क्योंकि इसी सिनेमा के अंदर गुरुदत्त, बिमल रॉय ने भी सिनेमा बनाया.

बाद में शेखर कपूर ने, बीआर चोपड़ा ने, यश चोपड़ा ने भी सिनेमा बनाया है. इन सब लोगों ने अच्छी कहानियों के इर्द-गिर्द अच्छी फिल्में बनाने की कोशिश की और सफल भी रहे. तो ऐसा कहना कि एक ही तरह के फिल्ममेकर थे मुनासिब नहीं होगा. या एक ही तरह की फिल्में बन रही थीं.

हां ये जरूर है कि कोई डायरेक्टर फिल्म बना रहा है और उसका दायरा बहुत बड़ा है तो ऐसे में उसे स्टार की जरूरत पडे़गी. उस समय कम एक्सपेंस में फिल्म नहीं बन सकती. उसको मजबूरन स्टार्स की जरूरत पड़ेगी. जिसमें डायरेक्टर्स को और फिल्म के प्रोड्यूसर्स को ये यकीन है कि स्टार्स के आ जाने से फिल्म को बड़ी ओपनिंग मिलेगी. ऐसे में अगर फिल्म अच्छी बनी है तो ओपनिंग के बाद चल जाएगी.

दूसरे तरह का वो सिनेमा है जिसमें आप फिल्में विश्वास के साथ बनाते हैं कि मुझे यही फिल्म बनानी है या मैं ऐसी ही बनाना चाहता हूं. या मेरे हालात ऐसे हैं कि मैं ऐसे ही फिल्म बनाऊंगा. जैसे जब हम लोगों ने अभिनय में कदम रखा तो हम लोग तो हमारे लिए मसला ये था कि हमें तो अभिनय करना है.

और एक ही तरह का रोल जो उस वक्त का 'मेनस्ट्रीम' सिनेमा में उपलब्ध था, उसे नहीं कर पाएंगे. क्योंकि उसमें इंटरेस्ट नहीं आता था. इसलिए तरह-तरह का काम करने के लिए, तरह-तरह की फिल्में चाहिए, तरह-तरह के किरदार चाहिए. वो लोग चाहिए, जो जिंदगी के बारे में लिखते हों, जिंदगी से जुड़े किरदार बनाते हों. तो उसकी तरफ हमारा रुझान नेचुरल तौर से बना और इस तरह से मैं भी पैरलल सिनेमा का हिस्सा बना.

'फाइंडिंग फैनी' में डिंपल कपाड़िया, नसीरूद्दीन शाह, दीपिका पादुकोण और अर्जुन कपूर के साथ पंकज कपूर.

शॉर्ट फिल्म्स का दौर चल रहा है. इसके जरिए कई फिल्मकार वो मुद्दे उठा रहे हैं जिनपर मेनस्ट्रीम बात करने में हिचकता है. क्या इनसे वो काम होगा जो कभी पैरलल फिल्में करती थीं?

मैं शॉर्ट फिल्म्स को समझ नहीं पा रहा हूं. बनाने के लेवल पर भले ही समझ लूं पर एक्टिंग के तौर पर ये मुझे समझ नहीं आती हैं. क्योंकि जैसा काम मैं करता हूं, मेरी कोशिश ये रहती है कि एक हर बार नया इंसान बनाया जाए. जो आपसे जुड़ता हो या जो आपने किया है, वो उससे जुड़ता हो.

एक्टिंग की बात करें तो किरदारों का जो विस्तार है उसके लिए शॉर्ट फिल्म्स में स्कोप नहीं है. पर ऐसा नहीं है कि मैं शॉर्ट फिल्मों को पूरी तरह से नकार रहा हूं. आगे चलकर ऐसा हो सकता है कि मेरा इसमें इंटरेस्ट डेवलप हो जाए और मुझे लगे कि नहीं इनमें भी काम करना चाहिए. पर मौजूदा हालत में ये मुझे नहीं समझ आती हैं.

क्योंकि मेहनत तो मुझे उतनी ही लगानी है, एक नया इंसान या एक नया किरदार गढ़ने में. और वो पांच-दस मिनट में बर्बाद हो जाए तो मुझे वो पसंद नहीं आता है. पर हां अगर मैं अपने आपको प्ले कर रहा हूं तो किसी शॉर्ट फिल्म का हिस्सा हो भी सकता हूं. खैर, ये मेरा अभी का विचार है, इसमें बदलाव भी आ सकते हैं.

एक्टर टीवी करने का रिस्क नहीं लेते पर आपने बिना झिझके टेलीविजन किया. आपको पहचान भी शुरुआती दौर में टीवी से ज्यादा मिली. उस रिस्क के पीछे क्या बात थी?

ये सुझाव एक-दो बहुत समझदार फिल्ममेकर्स ने मुझे दिया. उन्होंने कहा कि आप टीवी छोड़ दीजिए, मजबूरन मुझे उनकी फिल्में छोड़नी पड़ीं. क्योंकि ये क्रिटिकल है, कोई मुझे बताए कि मैं क्या काम करूं ये मुनासिब नहीं है. मैं जो करना चाहता था वो कर रहा था.

टेलीविजन से दूरी क्यों बना ली जबकि पहचान आपकी करमचंद से हुई? और क्या टीवी पर फिर से आने का संयोग बना तो टीवी पर दिखेंगे?

मीडियम बहुत कमाल का है, हम सब जानते हैं. लेकिन कमाल के मीडियम का चेहरा आज जो है, मुझे तो सही नहीं लग रहा है! मेरी मानसिकता, मेरी सोच हो सकता है कि दूसरों से मुख्तलिफ हो. पर हां मैं आज भी टीवी के लिए ओपन हूं और ऐसा कोई प्रोजेक्ट आता है जो वाकई अच्छा है, लिमिटेड एपिसोड्स का हो तो मैं करूंगा. अनलिमिटेड एपिसोड्स का नहीं करूंगा.

फिर चैनल का उसमें दखल नहीं होना चाहिए. ऐसा नहीं कि पांच एपिसोड्स के बाद चैनल बताए कि अब क्या दिखाना है. ऐसा होता है तो मेरे लिए काम करना मुश्किल हो जाता है.

जो निगेटिव किरदार निभाए हैं आपने वो खास हैं. दोहराव नहीं है. फ्रेश और व्यवहारिक. आपको कौन सा किरदार पसंद आता है और क्यों?

ऐसा मैं कैसे कह सकता हूं? सारे ही मेरे बच्चे हैं. अपनी तरफ से पूरी कोशिश की गई. कभी-कभी ऐसा होता है कि कुछ काम नजर में ज्यादा आ जाते हैं, कुछ काम जो होते हैं जिन पर थोड़े वक्त के बाद लोगों का ध्यान जाता है. कुछ ऐसे होते हैं जिनमें पहली बार में ही ऐसा लगने लगता है कि अरे वाह ये क्या काम किया है!

मेरी कोशिश तो हर बार अच्छा करने की रहती है. फिर बहुत सी चीजें डायरेक्टर पर भी निर्भर करती हैं, राइटर पर भी, स्क्रिप्ट पर भी. ऐसे में किसी एक किरदार का नाम ले पाना मुश्किल है.

हां, मेरी जो ऑडियंस है, मैं उनसे चाहता हूं कि वो मुझे किसी एक रोल के साथ जोड़कर न देखें. बल्कि पूरे काम के हिसाब से देखा जाए.

'जाने भी दो यारों' का तरनेजा का किरदार मिसाल है. सारे ही किरदारों में कॉमिक पुट है. आपके किरदार अपेक्षाकृत सीरियस है. उस किरदार के बारे में कुछ बताइए कि उसे गढ़ने में आपकी कितनी मेहनत थी?

मैं बहुत खुश हूं कि ऐसा लोग मानते हैं. जबकि पर्सनली मैं उस कैरेक्टराइजेशन में खुद को कमजोर पाता हूं. लगता है किरदार में पूरी तरह से उतर नहीं पाया. लेकिन बहुत से ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं कि वो किरदार बहुत ही बेहतरीन था.

उस वक्त मेरा नया-नया दौर था सिनेमा ज्वाइन करने का और जद्दोजहद थी इस मीडियम को समझने की, इसके अंदर अभिनय करने की. कोशिश बरकरार थी कि किस तरह से क्या चीज की जाए. जो भी वो कैरेक्टर बना वो उस कोशिश का हिस्सा है. कुछ लोग समझते हैं कि ये बहुत गहराई तक उतरा है. तो जो लोग ये समझते हैं उनको मैं सलाम करता हूं.

चेहरा-मोहरा बॉलीवुड की एक खास मांग होती है. कितना मुश्किल होता है, ग्रीक गॉड जैसा शरीर और लुक्स न होने पर बॉलीवुड में जगह बनाना?

परमात्मा का बहुत बड़ा हाथ था मेरे ऊपर कि बिना खास चेहरे-मोहरे के रास्ता बनता चला गया. बाकि रास्ते भी वैसे ही खुले. मेरा काम था कोशिश करते रहना, मेहनत करते रहना. मेहनत और ईमानदारी ये दो चीजें मैंने अपने साथ हमेशा रखीं और बाकि ऊपर वाला सारे रास्ते खुद ही खोलता चला गया.

मकबूल का किरदार इरफान की परफॉर्मेंस को भी ढंक लेता है, उस किरदार के लिए कैसे तैयारी की थी?

ऐसा नहीं कहा जाना चाहिए. इरफान का रोल अलग था, मेरा अलग. इरफान बहुत अच्छे अभिनेता हैं और बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. पर 'अब्बा जी' जैसा कैरेक्टर डेवलप करना है तो विशाल भारद्वाज जैसे डायरेक्टर होने चाहिए जो आपका बतौर अभिनेता साथ दें. जो आप कहना चाह रहे हैं वो समझें. और उसको फिल्म के अंदर उतारें.

इसलिए अबतक जो तीन फिल्में (ब्लू अंब्रेला, मकबूल और मटरू की बिजली का मंडोला) विशाल भारद्वाज के साथ की हैं, तीनों में बिल्कुल मुख़्तलिफ कैरेक्टर उभर कर आए हैं. और इस खास तरह के काम की नींव उनके साथ पहली ही फिल्म से पड़ गई थी. हम लोग बहुत अर्से से साथ काम करना चाह रहे थे. पर जब ये मौका आया तो मैं कुछ झिझक रहा था, कैरेक्टर को लेकर.

ऐसे में अब्बास टायरवाला (जिनके साथ मिलकर विशाल ने स्क्रीनप्ले लिखा था), विशाल और मैंने मिलकर कैरेक्टर डेवलप करने के लिए कुछ मीटिंग कीं. कुछ क्लैरिटी, कुछ समझ पैदा की गई कि किस तरह का ये कैरेक्टर होना चाहिए. जो-जो मेरे जेहन में आ रहा था, मैं विशाल के साथ डिस्कस करता जा रहा था. इस तरह से 'अब्बा जी' का कैरेक्टर बना.

जिन डायरेक्टर्स के साथ आपने काम किया, उनमें से कौन है काम करने के ढंग के चलते बेहद पसंद आता है? और आप किसे सबसे ज्यादा काबिल मानते हैं?

ये सवाल गलत है. मैं कभी नहीं कह पाऊंगा कि ये डायरेक्टर अच्छा है और ये बुरा है. इसलिए नहीं कि ये पॉलिटिकली गलत बात है. बल्कि इसलिए कि हर डायरेक्टर अपनी स्ट्रेंथ और अपनी वीकनेस के साथ आता है. और जब-जब उसकी स्ट्रेंथ सही इस्तेमाल हो जाती है तो बहुत अच्छी फिल्म बनाता है.

मैंने जिन डायरेक्टर्स के साथ काम किया है, मुझे सभी के साथ काम करना अच्छा लगा. कोई परेशानी नहीं रही. हां, विशाल भारद्वाज के साथ तीन फिल्में की हैं और एक एक्टर-डायरेक्टर के तौर पर हमारे बीच अलग लेवल की अंडरस्टैंडिंग है. इसलिए उनके लिए मेरे दिल में अलग जगह है.

फिर केतन मेहता के साथ काम किया है. फिल्म आई है 'टोबाटेक सिंह'. राजीव मेहरा के साथ मैंने कई सीरियल किए हैं. वो मुझे बहुत पसंद हैं. होमी अदजानिया के साथ 'फाइंडिंग फैनी' की है, साथ काम करने के लिए वो जबरदस्त इंसान हैं.

'डॉक्टर की मौत' बनाने वाले तपन दा से बहुत कुछ सीखा था. मृणाल सेन, कुंदन शाह के साथ काम करना मुझे बहुत पसंद आया. बासु दा (चटर्जी) के साथ मैंने तीन फिल्में की हैं. उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला.

भावना तलवार, जिनके साथ मैंने 'धर्म' नाम की फिल्म की. उनके अंदर भी बहुत संभावनाएं हैं. राजकुमार संतोषी के साथ 'हल्ला बोल' की और वो बहुत ही समझदार और अलग तरह के, बेहतरीन डायरेक्टर हैं.

अपने बेटे शाहिद कपूर के साथ.

निर्देशन क्या महज एक प्रयास था या आगे भी करना चाहेंगे? कभी बीबीसी ने लिखा था कि आप डरते हैं, आपके बच्चे आपके साथ फिल्म करने से मना ना कर दें.

दर्शकों ने चाहा तो निर्देशक के रूप में जरूर दिखेंगे. पूरे परिवार के साथ दिखेंगे. पर बच्चों वाली बात शायद मैंने कभी नहीं कही. अगर ऐसा कुछ लिखा गया है तो बिल्कुल बकवास लिखा गया है. मैंने किसी खास पल में मजाक में ये कह दिया होगा. जिन पत्रकार ने भी लिखा है, उन्होंने उसे गलत ढंग से कोट किया है. दोबारा उन्हें इंटरव्यू नहीं मिलेगा.

फिल्म डायरेक्ट करने का सवाल है तो जब मन होगा कोई ऐसी कहानी मिलेगी और भगवान की ऐसी मौज होगी तो फिल्म डायरेक्ट हो ही जाएगी.

किस तरह के किरदार अब भी आपसे अछूते हैं जो आप करना चाहेंगे?

सिर्फ हिंदुस्तान में 125 करोड़ लोग हैं. इनमें से 10-12 करोड़ किरदार ऐसे होंगे, जिन्हें करना चाहूंगा. अभी तो कई जन्म इसी को पूरा करने में लग जाएंगे. इसलिए लिखने वालों की और फिल्में बनाने वालों की कमी नहीं होनी चाहिए.

NSD से आज भी जुड़ाव है? और आज के एनएसडी और तब के एनएसडी में क्या अंतर पाते हैं? सीटें बहुत कम. एक्टिंग में सुधार के प्रयास कैसे करें?

अभी NSD के साथ एक औपचारिक रिश्ता है. वर्तमान डायरेक्टर वामन केंद्रे मुझे बुलाते हैं तो चला जाता हूं. इससे एक सुख मिलता है कि कोई तो बुलाता है. दूसरा सुख ये मिलता है कि मैं भी यहीं से पढ़कर निकला हूं. पर आज वहां क्या हो रहा है, किस लेवल की पढ़ाई है? इसके बारे में कोई खास जानकारी नहीं है.

बात अभिनय की है तो हम सारे अभिनय करते ही हैं. अपनी आम जिंदगी में भी करते हैं. दादी-नानी की कहानियों से सीखना शुरू कर देते हैं. ऐसे में जहां तक एक्टिंग की तालीम पाने की बात है. वो ऐसी है कि जो पॉपुलिस्ट तरीके होते हैं, वही लोगों को इस करियर की ओर खींचते हैं.

जो बहुत ग्लैमरस हैं, जिनकी फिल्में बहुत ज्यादा पैसे कमा लेती हैं या जो बहुत गुडलुकिंग है. एक्टिंग का इम्प्रेशन उन्हीं के साथ आगे बढ़ता है. इसका मतलब ये नहीं कि वो लोग बुरे एक्टर हैं. उनमें से कुछ बहुत अच्छे हैं. पर कैसे अभिनय करना चाहिए, इसकी एक अलग समझ है, जिसे अकेले मैं भी नहीं बता सकता.

अभिनय क्या चीज है और उसे कैसे करना चाहिए? इसकी गहरी समझ होनी चाहिए. साथ ही जो लोग सिखाने की कोशिश कर रहे हैं वो समझदारी से सोचें कि क्या सिखाया जाए?

जो आपका डायलॉग डिलिवरी का अंदाज है, वो खासा अनोखा है. ये एक्टिंग का खास स्टाइल है या इसमें पंजाबी होने का भी योगदान है?

ये किरदार पर निर्भर करता है. ब्लू अंब्रेला करते वक्त हिमाचली का अंदाज आना चाहिए. तो डायलॉग उसी किरदार के हिसाब से बोलने होते हैं. जल्दी-जल्दी और धीरे डायलॉग बोलना वैसा ही है जैसे हम जल्दी में होते हैं तो जल्दी-जल्दी खाना खा लेते हैं. जब जल्दी नहीं होती तो आराम से खाते हैं. इसी तरह डायलॉग डिलिवरी किरदार के स्वभाव पर निर्भर करती है.