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Film review: ‘ओमेर्टा’ से राजकुमार राव और हंसल मेहता की जोड़ी ने नहीं दिखाया पिछला कमाल

ओमर शेख की भूमिका में राजकुमार राव ने एक तरह से जान फूंक दी है. उन्हें देखकर डर लगता है

Abhishek Srivastava

‘ओमेर्टा’ कहीं से भी एक आसान फिल्म नहीं है. इसको बनाना निर्देशक हंसल मेहता के लिए आसान काम नहीं रहा होगा और उससे भी कठिन काम है इसे देखना. ये फिल्म आपको परेशान करेगी, सोचने पर मजबूर करेगी और साथ ही साथ इसके कुछ सीन्स आपको विचलित भी करेंगे. विश्व में फैले आतंकवाद को लेकर हॉलीवुड में आजकल दर्जनों के भाव से टीवी सीरीज और फिल्में बन रही हैं. कुछ इसी तरह की मुहिम पिछले कुछ सालों से बॉलीवुड में न्यूयॉर्क, कुर्बान, फैंटम, विश्वरूपम और टाइगर जिंदा है जैसी फिल्मों से शुरू हो चुकी है. लेकिन इक्का-दुक्का फिल्मों को छोड़कर कोई भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कामयाब नहीं हो पाई है. ‘ओमेर्टा’ उन्हीं फिल्मों की परंपरा में एक सुधार है. सुधार कहना इसलिए भी ठीक होगा क्योंकि इसकी कहानी काल्पनिक नहीं है और ये एक ऐसे आतंकवादी के बारे में में है जिसका सरोकार भारत से है और जिसकी गतिविधियों से किसी समय देश को खासी परेशानी हुई थी. ‘ओमेर्टा’ आतंकवादी ओमर शेख की कहानी को बयां करती है और बताने की कोशिश करती है कि ओमर आतंकवादी क्यों बना और भारत के नक्शे पर उसकी वजह से खून के छींटे किस तरह से पड़े. लेकिन हंसल मेहता की ये कोशिश कई जगहों पर औंधे मुंह गिर जाती है.


ओमेर्टा की कहानी मुलत ओमर शेख के आतंकवादी बनने की कहानी है

फिल्म की कहानी दिल्ली से शुरू होती है जहां पर ओमर शेख को पाकिस्तान से भेजा गया है दहशतगर्दी फैलाने के लिए. जब चार विदेशियों का अपहरण ओमर सफलतापूर्वक कर लेता है तब उसे लगता है कि उसका मिशन कामयाब हो जाएगा लेकिन जब पुलिस उसे एन वक्त पर धर दबोचती है तब उसके प्लान पर पानी फिर जाता है. ओमर को जेल से रिहा करने का मौका उस वक्त मिलता है जब इंडियन एयरलाइंस के विमान आईसी 814 की हाईजैकिंग अफगानिस्तान के कंदहर में हो जाती है. बंधकों को रिहा करने के एवज में जिन तीन आतंकवादियों की मांग हाईजैकर्स करते हैं उनमें से एक नाम ओमर का भी होता है. इसके बाद फिल्म फ्लैशबैक में आती जाती रहती है. इसी बीच ओमर के आतंकवादी गतिविधियों की तीन सबसे बड़े कारनामों से दर्शक अवगत होते हैं – 9/11 अटैक, पत्रकार डैनियल पर्ल की हत्या और 26/11 के मुंबई धमाके. फिल्म का खात्मा ओमर के जेल पर होता है.

राजकुमार राव का एक और शानदार अभिनय का नमूना

ओमर शेख की भूमिका में राजकुमार राव ने एक तरह से जान फूंक दी है. उनको देखकर डर लगता है और जिस तरह के हाव-भाव राजकुमार राव ने फिल्म के किरदार को जिन्दा करने के लिए अपने किरदार में डाले हैं उसकी पूरी तरह से तारीफ करनी पड़ेगी. जब ओमर शेख डैनियल पर्ल की हत्या करता है वो सीन शायद आप देख न सकें. कुछ न कहते हुए सिर्फ अपने हाव-भाव से राजकुमार राव ने अपने क्रूरता का परिचय दे दिया है. राव मेहनत करने में पीछे नहीं हटे हैं लेकिन उनके अंग्रेजी उच्चारण में तमाम खामिया हैं. फिल्म मे ओमर को लंदन का दिखाया गया है. अगर उनके उच्चारण फिल्म में एक जैसे होते तो बात समझ में आती है लेकिन ये हर वक्त बदलता रहता है. शायद हंसल ने ऐसा सोचा नहीं होगी लेकिन कहीं न कहीं फिल्म देखते वक्त ऐसी भावना निकल कर आती है कि ओमर शेख को कुछ हद तक ग्लोरिफाई किया जा रहा है. अगर आप फिल्म में ये बताते हैं कि ओमर को दूध पीने का शौक है, शतरंज के मोहरों को जानता है और उसकी पढ़ाई लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में चल रही है तो ये ग्लोरिफाई करने की ही कोशिश है. इस फिल्म में दूसरा कोई अहम किरदार है तो वो राजेश तैलंग ही है जो फिल्म में पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था यानी कि आईएसआई के एक अफसर बने हैं. उनकी उपस्थिति काफी काम समय के लिए है लेकिन बेहद ही असरदार है. इन दोनों के अलावा और भी कई किरदार है फिल्म में कम समय के लिए जो अपना असर छोड़कर निकल जाते हैं.

हंसल ने इस फिल्म के लिए समझौता नहीं किया है लेकिन ये काम नहीं करता है

हंसल मेहता के निर्देशन में कसावट की कमी है. फिल्म में ऐसे कई मौके हैं जब देखकर लगता है कि हंसल ने शॉर्ट कट अपनाया है. अगर ये सिर्फ ये बताने की कोशिश करती कि ओमर ऐसा क्यों बना तब भी ये फिल्म सार्थक हो सकती थी लेकिन फिल्म में कोई ठोस वजह इसके पीछे नहीं बताई गई है. पाकिस्तान के जो सीक्वेंसेज हैं वो फिल्मी नजर आते हैं. कुछ नयापन नजर नहीं आता है. फिल्म महज डेढ़ घंटे की है और शुरुआत का जो सीक्वेंस है जब ओमर चार विदेशियों को झांसे में डालकर उनको बंधक बनाने की कोशिश करता है वो कुछ ज्यादा ही लम्बा बन पड़ा है. इस फिल्म के अधिकतर डायलॉग अंग्रेजी में हैं क्योंकि ओमर का सरोकार लंदन से था. इस फिल्म के डायलॉग को अंग्रेजी में रखने का सीधा मतलब यही है कि दर्शकों के एक वर्ग को पहले से ही फिल्म से दूर कर देना लेकिन ये सच है कि इसके डायलॉग फिल्म को एक अलग तरह का कलेवर देते हैं लेकिन ट्रीटमेंट की कमी की वजह से उसका असर नजर नहीं आता है. हंसल मेहता की ये फिल्म अगर कुछ जगहों पर बेहद कसी हुई जान पड़ती है तो कुछ जगहों पर बेहद ढीली. गनीमत इसी बात की है कि डेढ़ घंटे मे सब कुछ खत्म हो जाता है. हंसी-मजाक जैसा मनोरंजन अगर आप बॉलीवुड की फिल्मों में ढूंढते हैं तो शायद वो आपको इस फिल्म में न मिले लेकिन अगर आपको थ्रिल चाहिए तो ओमर की कहानी को आप एक बार आजमा सकते हैं. ‘ओमेर्टा’ से ज्यादा उम्मीद बांधना गलत होगा.