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नूर रिव्यू : धीमी स्टोरी और घटिया एडिटिंग ने चुराया सोनाक्षी का 'नूर'

नूर से सोनाक्षी को बहुत उम्मीदें थी लेकिन ये फिल्म दर्शकों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती

Kumar Sanjay Singh

पत्रकारिता के सरोकार को लेकर कई फिल्में बन चुकी हैं. सोनाक्षी सिन्हा स्टारर 'नूर' उन फिल्मों से इस मायने में अलग है कि इसमें इस प्रोफेशन के दागदार होते जा रहे चेहरे को सरल और सपाट लफ्जों में बयां कर दिया गया  है.

पाकिस्तानी लेखक सबा इम्तियाज़ के उपन्यास 'कराची यू आर किलिंग मी' पर आधारित 'नूर' एक साथ कई मुद्दों पर फोकस करती नजर आती है. इसी कोशिश में फिल्म की बागडोर कभी-कभी निर्देशक के हाथों से फिसलने लगती  है. इस बिखराव से कथ्य की गंभीरता कम हो जाती है.


कहानी

नूर' कहानी है एक ऐसे पत्रकार की है, जिसके लिए ख़बरों के मायने अलग हैं लेकिन टीआरपी का दबाव इतना है कि उसका बॉस उसे अपनी ही नजरों में बेरंग बना देता है. एक दिन 'नूर' के हाथ लगती है एक ऐसी ख़बर जिससे उसे अपने सपने पूरे होते नज़र आते हैं. लेकिन फिर कुछ ऐसा होता है कि नूर के सपने तो टूटते ही हैं साथ ही उसकी जान भी खतरे में पड़ जाती है और फिर किस तरह नूर अपनी गलतियों को सुधारती है और उस लक्ष्य तक पहुंचती है जो कभी उसने तय किया था. यही  फिल्म की  कहानी है.

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ढीली है स्क्रिप्ट

पत्रकारिता केवल जोश का मामला नहीं है बल्कि इसकी कुछ जिम्मेदारियां भी है. पत्रकार होने का दावा करने वाला हर शख्स इस सच्चाई से वाकिफ है लेकिन सनसनी और सबसे तेज होने की गलाकाट प्रतियोगिता के कारण हर शख्स आंखें बंद रखने को मजबूर है. नूर जैसे पत्रकार जब आंखें खोलने की कोशिश करते हैं तो अनुभवहीनता उन्हें मुश्किलों में डाल देती है. इस पेशे में जोश के साथ होश का होना भी जरूरी है. 'नूर' बिना लाग लपेट के अपनी बात कहती है लेकिन इस बात को कहने लिए ऐसा लगता है कि निर्देशक घुमाकर कान पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं. सोनाक्षी के किरदार को स्टेब्लिश करने के लिए काफी फुटेज जाया किया गया है.

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बोरिंग स्क्रीनप्ले

कहानी के सूत्र पकड़ने के लिए दर्शकों को लंबा इंतज़ार करना पडेगा. स्क्रीनप्ले में कसाव की कमी फिल्में को उबाऊ बना देती है. एक-एक घटना को गति देने के लिए काफी लंबा समय लिया गया है. यही वजह है कि फिल्म कहीं-कहीं धीमी नजर आती है.

अच्छी है एक्टिंग

अभिनय की बात करें तो सोनाक्षी सिन्हा में काफी परिपक्वता आई है. अपने किरदार को उन्होंने पूरी ईमानदारी और तल्लीनता से निभाया है. पूरब कोहली और एम के रैना असरदार हैं. कन्नन गिल अच्छे लगे.

स्ट्रॉन्ग सिनेमेटोग्राफी, घटिया एडिटिंग

निर्देशक के रूप में सुनील सिप्पी की सोच तो उम्दा नज़र आती है लेकिन इस सोच को अमली जामा पहनाने के लिए थोड़ा और सीखने की जरुरत है. फिल्म की सिनेमेटोग्राफी इसका सबसे मजबूत और एडिटिंग सबसे कमजोर पहलू है. फिल्म में मुंबई को शहरी ज़िंदगी का प्रतिमान मानते हुए एक लंबा मगर असरदार स्केच पेश किया गया है. यहां शब्दों की कंजूसी मैसेज को और असरदार बना सकती थी. कुल मिलाकर 'नूर' भले ही बॉक्स ऑफिस के सारे लटके -झटकों की मांग पूरी ना करती हो लेकिन इस फिल्म से प्रेरणा ली जा सकती है.