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नूर मूवी रिव्यू : सोनाक्षी की यह फिल्म 'अकीरा' की तरह फर्जी नारीवादी फिल्म नहीं है

सोनाक्षी सिंहा इस फिल्म में कुछ भूलों के बावजूद वे अपनी योग्यता की बेहतरीन छाप छोड़ने में कामयाब रही हैं

Anna MM Vetticad

खामियों के बावजूद सोनाक्षी सिंहा की इस फिल्म की स्टोरी ठोस है. यह अकीरा की तरह फर्जी नारीवादी फिल्म नहीं है.

ठोस कहानी 


नूर राॅय चौधरी, मुंबई में युवा मीडिया कर्मी है जो सार्थक पत्रकारिता करना चाहती है. ऐसी पत्रकारिता जिससे मानवता प्रभावित हो और उसका लक्ष्य सबकी भलाई हो.

वो अपनी पत्रकारिता द्वारा बड़े काम करना चाहती है जैसे भ्रष्टाचार को बेनकाब करना और उसकी वीडियो न्यूज एजेंसी सनी लियोनी का इंटरव्यू, ‘रिप्ले बिलीव इट आॅर नाॅट’ जैसे नाटकीय कार्यक्रम उससे करवा रही थी.

उसे लगता है कि वो जो करना चाहती है वो उसे कभी करने का मौका नहीं मिलेगा. इस वजह से वह अपनी जिंदगी उदासी में बिताने लगती है.

फिर एक दिन नूर के हाथ ऐसी जबरदस्त खबर लग जाती है जिससे उसे लगता है अब उसके दिन जरूर बदलेंगे. हालांकि उस रिपोर्ट में अपने नौसिखिएपन में वो अपने शुभचिंतकों को ही नुकसान पहुंचा देती है और अपना रास्ता भी लगभग बंद कर लेती है.

निर्देशक सुनहिल सिप्पी की 'नूर' की कहानी उसके प्रायश्चित और वो कैसे अपनी जिंदगी को पटरी पर वापस लाती है, के बारे में है. यह लेखक सबा इम्तियाज की किताब ‘कराची यू आर किलिंग मी’ पर आधारित है. स्क्रिप्ट अल्थिया डेल्माज-कौशल, शिखा शर्मा और खुद सिप्पी ने लिखी है जबकि डायलाॅग इशिता मोइत्रा उध्वानी ने लिखे हैं.

कमियों बावजूद खोखली फिल्म नहीं

इस फिल्म के गहराई से विश्लेषण से पहले यह जरूरी है कि एक जरूरी बात की चर्चा कर ली जाए. पिछले साल से ही थियेटरों में जानबूझ कर मुख्य महिला किरदार आधारित फिल्में का तांता लगा है.

अफसोस यह है कि उनमें से अधिकतर ढपोर शंख साबित हुईं. जिनमें न कोई कथानक था और न ही महिलाओं मुद्दों की कोई समझ थी. उनमें महिलाओं के लिए प्रतिबद्धता भी कतई नहीं थी.

हाल के दिनों में विद्या बालन की महिला प्रधान फिल्मों ने बाॅक्स आॅफिस पर जबरदस्त कमाई की है. इन फिल्मों का एक मात्र उद्देश्य इसी ‘ट्रेंड’ के तर्ज पर महिला प्रधान फिल्में बनाकर कमाई करना है.

ये सच है कि ऐसी फिल्मों के निर्माता महिलाओं को ‘ट्रेंड’ ही मानते हैं न कि पुरूष पात्रों की तरह जीवन के वास्तविक चरित्र. इस वजह से वे अपने मकसद में नाकाम होते हैं. वे हल्की पटकथा और लचर रूप में उभरते महिला किरदारों को पेश करते दिखते हैं.

इनमें भी सबसे लचर फिल्म सोनाक्षी सिंहा के मुख्य किरदार वाली ‘अकीरा’ रही जो पिछले साल आई थी. नूर में भी हालांकि मुख्य किरदार सोनाक्षी का ही है मगर शुक्र है कि यह इस तरह की अधिकतर फिल्मों से अलग है. इसकी कहानी ठोस है और अकीरा शैली की फर्जी ‘महिला केंद्रित’ फिल्मों जैसी खोखली नहीं है.

नूर इसीलिए, अपनी कमियों के बावजूद चलती लग रही है. फिल्म के अधिकतर हिस्से में सिप्पी की 28 वर्षीय हीरोइन विश्वसनीय पात्र लगती है. हालांकि कई बार वो बेहद मूर्ख भी दिखती हैं लेकिन फिर भी भरोसेमंद किरदार लगती हैं.

वास्तविकता के करीब हैं फिल्म के चरित्र

इस फिल्म में वो अपने खूबसूरत मगर दिखावटी रूप से कहीं अधिक संभावनाशील लगीं. अस्त-व्यस्त, हमेशा हड़बड़ाई सी, समय से हमेशा पिछड़ती, सुनिश्चित, जो कुछ हाथ में आए उसीसे अपने बाल बांधने पर उतारू, फिर भले वो मोजा ही हो, बाॅयफ्रेंड बनाने को आतुर, अपने मोटापे से चिंतित, डट कर पार्टी में मगन अपने सामाजिक जीवन के बाद के घंटों में गंभीर.

नूर की भावनाएं, लक्ष्य, सपने वगैरह स्पष्ट सोच से प्रभावित हैं और पटकथा हमें इस मतवाली महिला को उसकी सनकी, मिलीजुली शोभा के साथ जानने का मौका देती है.

आप जैसे ही ये सोचने लगते हैं कि नूर का चरित्र दूसरी ब्रिजेट जोंस की तरह का चरित्र है अर्थात् स्वच्छंदतावाद का खोल चढ़ा कर लिखा गया चरित्र है. जो अपने अगले बाॅयफ्रेंड और अपने अगले दाव की चिंता करने के अलावा मूल विषय से कोसों दूर बनने की राह पर जा रहा है, तभी पटकथा लेखकों की टीम हमें अपनी रचनात्मकता से रूबरू कराती है.

नूर द्वारा अपनी मुंबईया पृष्ठभूमि होने के कारण मुंबईया भाषा में लाइनें बोलना फिल्म के अधिकतर हिस्से में मददगार साबित होता है. उसका अपने पिता समान संपादक-मालिक से ‘तू’, ‘तुम्हारा’ कह के धृष्टता से बात करना उसके बेलौस व्यवहार को दिखाता है.

यह हिस्से किसी ऐसे व्यक्ति के हाथों लिखे प्रतीत होते हैं जिसके मन में खबरिया माध्यमों के दफ्तरों में कामकाज की शैली की बड़ी बासी छवि बसी हुई है. फिल्म में बस यही प्रमुख कमी है, जबकि वैसे देखें तो इसमें दिखावे के जरिए प्रभावित करने की कोशिश कतई नहीं की गई.

नूर का अधकचरा बिग ब्रेक हमें खबरों की कवरेज के प्रतिबद्धता और उसकी दोबारा सुध लेने के भाव से रहित क्षणिक प्रभाव के बारे में सोचने को मजबूर कर देता है.

कैमरों के जाने के बाद वास्तविक मनुष्य अपने हाल पर, उन ताकतों के हाथों में फिर से पड़ जाते हैं, जिनके रहमो-करम पर वे कैमरे की रोशनी पड़ने से पहले निर्भर थे, तब क्या होता है.

दिलचस्प सह-किरदार 

सोनाक्षी सिंहा अपने किरदार को बड़े सामान्य रूप में निभाती दिखती हैं. नूर के रूप में उनका प्राकृतिक अभिनय फिर से यह सवाल खड़ा करता है कि वो खुद की बुनियादी रूप और प्रतिभा को अक्षय कुमार के साथ वाली फिल्मों में या औरतों को अपमानित करने वाली या सिर्फ उनके सौंदर्य और भड़कीली अदाओं के जरिए शोहरत कमाने को आतुर फिल्मों पर क्यों बर्बाद करती हैं!

सह-किरदार दिलचस्प हैं. कानन गिल और शिबानी दांडेकर, दोनों का ही व्यक्तित्व आकर्षक है और उन्हें और प्रमुख भूमिकाओं में अभिनय करते देखना सुखद होगा.

नूर के पिता के किरदार में एम के रैना अपने चिर-परिचित प्यारे अंदाज में हैं. हालांकि उनके चरित्र को और विस्तार देकर फिल्म को लाभ दिलाया जा सकता था. मनीष चौधरी ने नूर के बाॅस के रूप में अपने किरदार में जान फूंकी है. हालांकि उनके साथ उसके संबंध को जिस रूप् में पेश किया गया उसमें सुधार की बहुत गुंजाइश है.

हालांकि अभिनेताओं का चयन खूब मौजूं है. इसकी मिसाल हैं स्मिता तांबे. जिनसे ऐसी गरीब औरत का किरदार निभवाया गया है जो भ्रष्ट शासन और वाहियात पत्रकारिता के बीच फंसी हुई है.

कमियां 

फिल्म के बेहतर पहलू हालांकि उसकी कमियों को नहीं ढक पाते. इसके खबर माध्यम के दफ्तर का आयोजन बचकाना है. जबकि नूर को किसी खबर को दुबारा रिपोर्ट करते हुए दिखाया गया है जिसे पहले यूं ही अंदाज में निपटा दिया गया था.

उसमें यह भी नहीं बताया जाता कि उसे दुबारा दिखाने के क्रम में उसमें क्या नए तथ्य जोड़े गए! ऐसा दिखावा फिल्म की सदिच्छा का कचूमर निकाल देता है.

फिल्म के अंत की ओर जाते समय जब यह लगता है कि नूर फिर भटकने वाली है. उसका सीनियर उससे कहता है, ‘अपने आप को इतनी कठिनाई से समझ पाने के बावजूद क्या तुम फिर से अपनी उस शख्सियत को भूलने लगी हो.'

ये बेहतरीन लाइन है, जिसे फिल्म में एकदम सही अंदाज में शामिल किया गया है. दुर्भाग्य से इस बात को अपनी फिल्म के प्रति सिप्पी के रुख पर भी बराबर लागू किया जा सकता है.

उन्होंने एक तरफ तो हमारे मन में यह बात पैठाने की कोशिश की है कि नूर बड़ी ठोस किरदार है जो अपने आप में संपूर्ण है मगर तभी वो कहानी पर रोमांस थोप देते हैं.

उनकी यह कोशिश ऐसी लगती है मानों वे हिंदी दर्शकों की फिल्म में रोमांटिक सीनों की अनिवार्यता की पारंपरिक मानसिकता को देखते हुए उसे संतुष्ट करने का जुगाड़ कर रहे हों.

ठीक वैसे ही जैसे और अधिक पारंपरिक दर्शक मर्द की उपस्थिति के बिना औरत के किरदार को फिल्म में अधूरा समझते हैं.

इतना ही नहीं वो और भी आगे जाकर फिल्म को आइटम सांग से खत्म करते हैं जिसमें नूर छोटे-छोटे कपड़ों में किसी मर्द के इशारों पर नाचती है जैसे फार्मूला हिंदी फिल्मों में दिखाया जाता है.

अरे भई सिप्पी साब, पूरी जिम्मेदारी से आगे क्यों नहीं बढ़ते? अपनी फिल्म में उठाए गए मुद्दे से खुद ही क्यों मुंह चुराने लगे.

इसके बावजूद मैं इस डायरेक्टर की अगली फिल्म जरूर देखना चाहूंगी. वे सत्रह साल बाद शीर्ष पर लौटे हैं. हालांकि यह बेझिझक कबूल करती हूं कि मैंने उनकी पहली फिल्म ‘स्निप’ नहीं देखी! जो साल 2000 में रिलीज हुई थी. अब इस उम्मीद के साथ कि उनकी तीसरी फिल्म के लिए हमें और 17 साल लंबा इंतजार नहीं करना पड़ेगा.

सोनाक्षी सिंहा के लिए भी यही कहूंगी. उनकी याद रहने लायक फिल्म लुटेरा और इस फिल्म के बीच लंबा अंतराल निकल गया जिसमें कुछ भूलों के बावजूद वे अपनी योग्यता की बेहतरीन छाप छोड़ने में कामयाब रही हैं.

इसी उम्मीद के साथ कि उनके कंधों पर खड़ी की गई उनकी अगली फिल्म के लिए हमें फिर से लंबा इंतजार नहीं करना पड़ेगा.