अनुराग कश्यप की फिल्म ‘मुक्काबाज़’ यूपी के बॉक्सर के बारे में है. हालांकि ये स्टेट खेलों में चमकदार प्रदर्शन के लिए नहीं जाना जाता, लेकिन कश्यप ने अपने खास तरीके से इस फिल्म में एक प्रेम कहानी को पर्दे पर उतारा है. जिसमें जातिवादी राजनीति, ताकत का खेल और पूर्वाग्रहों को भी रखा गया है, जो इस राज्य के डीएनए का अभिन्न हिस्सा भी हैं. इस फिल्म में बॉक्सिंग पृष्ठभूमि में है और असली कहानी एक बॉक्सर के अपने प्रेम को पाने की हरचंद कोशिश की है. उसके अपने मकसद में सामाजिक पूर्वाग्रह रास्ते की रूकावटों के तौर पर हैं.
हॉलीवुड का खेल
हॉलीवुड और पश्चिमी सिनेमा में खेलों पर बनी फिल्मों का एक अलग जॉनर होता है. इन फिल्मों में खेलों को स्थानीयता के रंग के साथ वैश्विक दर्शकों से जोड़ने की कोशिश होती है और इनमें खेल इंसानी जिंदगी के आइने के तौर पर दिखाये जाते हैं. मार्टिन स्कोरोसिस मानते हैं कि जब उन्होंने फिल्म ‘रेजिंग बुल’ बनाई थी तो उस वक्त वे बॉक्सिंग का कखग भी नहीं जानते थे. रेजिंग बुल फिल्म अपने दौर के नामी बॉक्सर जेक लामोट्टा और उनके एटीटयूट पर बनाई गई. ये फिल्म उस दौर में आम अमेरिकी लोगों की मुश्किलों को बयां करती है. इसमें बॉक्सिंग की हिंसा ठीक उसी तरह रूपहले पर्दे पर उतरती है जिस तरह से रिंग में जोर आजमाइश होती है. लेकिन उसमें ये आखिर तक दिलचस्पी कायम रहती है कि आखिरकार उस हिंसक और जुनूनी नायक का हुआ क्या.
1981 में बनी एक दूसरी क्लासिक फिल्म ‘चेरियट्स ऑफ फॉयर’ दो विश्वयुद्धों के बीच के दौर में यूरोप में शक्ति संतुलन को दिखाती है. इनके नायकों को पहचान की राजनीति, विश्वासों की जटिलता और धैर्य को 1924 के ओलम्पिक में ट्रैक एडं फील्ड स्पर्धा में दिखाया गया. एक और फिल्म ‘एनी गिवेन संडे’ अमेरिकी फुटबाल को लेकर बनी है. इसमें टीम का कोच, टीम का मालिक और खुद स्वयं में टीम निराशा के दौर से गुजर रही है और उसमें कुछ ऐसा कर गुजरने की लालसा है ताकि वे खुद को साबित कर सकें.
हाल में रिलीज हुईं खेल आधारित हिंदी फिल्मों ने नया मुकाम बनाया है. ऐसी बहुत कम फिल्में हैं जिनमें खेल हावी है. ऐसी फिल्म जिसमें देसी खेल हों वो लेखकों और फिल्मकारों को बहुत भाती हैं. ये फिल्मों दर्शकों को अपने साथ जोड़ पाती हैं. देशभक्ति की नजरिए से, एकता में बांधने, महिला सशक्तिकरण की लड़ाई लड़ने या साधारण इंसान को बेहतर बनाने या नेशनल हीरो में तब्दील होने की कहानियां अब फिल्म इंडस्ट्री में पसंद की जा रही हैं.
मीडिया की बेरुखी वाले खेल
मेनस्ट्रीम मीडिया भारत में स्थानीय बॉक्सिंग को गहराई से कवर नहीं करता. नामी खिलाडि़यों के मैच जब भी हों, सुर्खियों में जगह पा जाते हैं. लेकिन ‘मुक्काबाज़’ एक ऐसे गुमनाम शख्स की कहानी है जो अपने जोरदार मुक्कों के बल पर किस्मत का रुख़ पलटते हुये खुद को साबित करता है. मुक्केबाज़ी का खेल जज्बातों को पैदा करता है और कहानी सुनाने के लिए बेहतर औजार भी बन जाता है. इसी तरह हॉकी भी मीडिया कवरेज तभी पाती है जब कॉमनवेल्थ खेल हों या फिर ओलम्पिक. ये राष्ट्रीय खेल लोगों के दिलो-दिमाग से भी हट चुका है. अब बस कुछ ही शहरों के चंद स्कूली छात्र ही हॉकी की स्टिक से जूझते नुमायां होते हैं.
हालांकि हिंदुस्तानी हॉकी के सुनहरे दिनों की याद दिलाने वाले दो फिल्में इस साल सिनेमाघरों का मुंह देखेंगी. इनमें एक फिल्म अर्जुन पुरस्कार हासिल करने वाले संदीप सिंह की लाइफ पर है. शाद अली इस फिल्म को ‘सूरमा’ के नाम से बना रहे हैं और इसमें दलजीत दोसांझ मेनलीड में हैं. फिल्म की कहानी संदीप के एक्सीडेंट से गुजरने के बाद फिर से खेल के मैदान में बाजी मारने पर है. दूसरी फिल्म है ‘गोल्ड’. इसमें मुख्य भूमिका अक्षय कुमार की और निर्देशन रीमा कागती का है. बड़े बजट वाली इस फिल्म की कहानी 1948 से 12 साल पहले की है जब भारतीय हॉकी खिलाडि़यों ने ओलम्पिक मेडल हासिल किया था.
फिल्म की कहानी का तानाबाना उन खिलाडि़यों की परेशानियों को लेकर बुना गया है जब देश आजाद हुआ ही था पर उसका विजेता के रूप में उभरना बाकी था. भारतीय हॉकी की कहानी हिंदी सिनेमा में संघर्ष, आकांक्षाओं और कुछ हासिल करने की कोशिशों के रूप में सुनहरने पर्दे पर उतरती है. ये दोनों फिल्में उस खेल पर रोशनी डालती हैं जिनमें कभी हिंदुस्तान की बादशाहत होती थी, जैसा फिल्म ‘चक दे इंडिया’ ने किया. जिसमें फतह ही हासिल करनी होती है हर मुश्किलों के पहाड़ को पार कर करते हुये.
मेरीकॉम फिल्म से ये साबित हो चुका है कि ये खेल सभी तरह के दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब है. ये फिल्म मणिपुर की महिला बॉक्सर की सफलता पर बनी थी. एक हकीकत ये भी है कि अगर हिंदुस्तान का नक्शा अगर सामने रख दिया जाए मणिपुर पर ऊंगली रखने में जूझना पड़ सकता है. मेरीकॉम के सशक्त होने की बात ने लोगों को अपनी ओर खींचा और समझ में आया कि ‘बाहरी’ समझा जाने वाला शख्स देश के गर्व के लिए लड़ रहा है. इसमें वो सार्वभौमिकता थी जो सबको जोड़ती थी और सिनेमाई भाषा तो थी ही. ऐसी ही दो और मिसाल हैं हालिया बनी फिल्में ‘सुल्तान’ और ‘दंगल’.
सुल्तान की कहानी हरियाणा के उस आदमी की कहानी है जो कुश्ती में माहिर है और अखाड़ों में अपना जलवा बिखेरता है. जबकि दूसरी फिल्म हकीकत को लेकर बनी है और इसमें कुश्ती के जरिए महिला सशक्तिकरण होता दिखाया है. अखबारों में कुश्ती को पहली सुर्खी कभी कभार ही बनाया जाता है. लेकिन सिनेमा में अब ये कहानियां करोड़ों कमा रही हैं और इनके चाहने वालों की कोई कमी नहीं है. सनद रहे कि ये हिंदुस्तानी इतिहास का एक देसी खेल है.. जैसे मुक्केबाज़ी जो मणिपुरी युवाओं को जोड़ता है- और अब ये ऐसा खेल बन कर उभरा है जो क्षेत्रीय पूर्वाग्रहों से आगे चला गया है.
बहुत जानी पहचानी बात ये है कि केंद्र की हो या राज्यों की सरकारें, खेलों में पैसा नहीं लगातीं. और हमारे मीडिया का भी वही हाल है कि उसमें क्रिकेट के अलावा या नामी-गिरामी लोगों के खेलने वाले खेलों के अलावा उसका ध्यान कहीं नहीं है. जो स्थानीय खिलाड़ी हैं या राष्ट्रीय स्तर पर खेलों में हिस्सा लेते हैं, उनका जो हासिल है उस पर लोगों में कोई बातचीत नहीं होती और न ही उनहें कोई शाबाशी मिलती है. इसमें अक्सर यही कहा जाता है कि इनमें पाठक है ही कहां. लेकिन यहां देखिये हिंदी सिनेमा में. उसने ऐसी ग्रासरूट कहानियां पकड़ी हैं जो सार्वभौमिक हैं और उनमें देशभक्ति का छौंका भी है.
एक फिल्म उद्योग में जहां वास्तविक लेखन खूब देखा जाता है, वहां पर देसी खेलों से जुड़ी कहानियां सिनमाई अंदाज में कही जा रही हैं. और इसके पसंद भी किया जा रहा है. अंजाने में सिनेमा खेलों की मदद ही कर रहा है और जो इनमें हासिल किया गया है उसकी खोजबीन करके लोगों को बताया जा रहा है. ये काम इस तरह हो रहा है जिससे लोगों को पता चले खेल के मैदान में हम क्या हासिल कर सकते हैं और क्या गुजरने में सक्षम हैं.