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माणिक ईरानी: भारतीय सिनेमा का 'बिल्ला' जिसे सबने भुला दिया

100 से अधिक फिल्में करने वाले माणिक को फिल्मोद्योग ने भी भुला दिया

Satya Vyas

फिल्म इतिहास के विद्यार्थी प्रवृतियों और झुकावों के अध्ययन के लिए फिल्मों को दशकों में बांट लेते हैं. इसी बंटवारे के अनुसार यदि 50 का दशक नारी-प्रधान फिल्मों का था और 60 का दशक सामाजिक चेतना व शहरीकरण के बदलावों की बात करता था तो निश्चय ही 70 का दशक पश्चिम की फिल्मों से प्रभावित एक्शन फिल्मों का रहा.

इन फिल्मों में कुछ बातें बहुत ही सहज और नियमित रही हैं. जैसे बियर-बार या फिर बाजार के किसी भी क्लोजअप शॉट में यदि नायक को कोई जोरदार घूसा लगता और यदि वह हाथ कसरती होता तो यह अंदाज लगा पाना कोई मिलियन डॉलर सवाल नहीं था कि यह हाथ किसका है. उस दौर में हाथ देखते ही लोग कह उठते- ‘बिल्ला आ गया.’


बिल्ला यानी माणिक ईरानी. 70 और 80 के दशक की कमोबेश सभी प्रमुख फिल्मों में मौजूद खलनायक थे माणिक ईरानी. माणिक जिम में ढला कसरती बदन लेकर फिल्मों मे आए थे. उनसे पहले खलनायकों की तो रहने दें, नायकों को भी कसरती बदन नसीब नहीं था.

सफर आसान नहीं था. 70 के दशक की फिल्मों के एक्शन दृश्यों में उन्होंने अमिताभ और धर्मेंद्र सरीखे नायकों के डुप्लीकेट का किरदार भी निभाया. 1974 में आई पाप और पुण्य जैसी  फिल्मों से पर्दे पर आने के बाद भी माणिक को पहचान मिली सुभाष घई की फिल्म कालीचरण से जहां उन्होने गूंगे हत्यारे का किरदार निभाया था.

यह किरदार इतना सफल रहा कि उन्हें नटवर लाल में भी गूंगे का ही किरदार मिला. बाद की दो तीन फिल्मों में भी जब माणिक महज लड़ते भिड़ते ही नजर आए तो कस्बाई दर्शकों में यह संदेश गया कि यह असल जिंदगी में भी गूंगा है. तब भी माणिक को नाम से बिरले लोग ही जानते थे.

माणिक को नाम भी सुभाष घई की ही फिल्म से मिला. 1983 में आई फिल्म हीरो में उन्होने ‘बिल्ला’ नामक किरदार निभाया. इस किरदार में उन्होंने स्थापित खलनायकों की गंभीरता को तोड़ते हुए हास्यास्पद खलनायक की जिससे कि नामकरण ही बिल्ला हो गया. अजीबो-गरीब वेशभूषा, हेयर स्टाइल, दांत, बालों के रंग के साथ विचित्र तरीके से हंसते हुए संवाद उनकी यूएसपी थी.

बाद की फिल्मों में माणिक गलियों के गुंडों के किरदार तक ही महदूद हो गए. बाटली दादा (दीदार), कोल्हापूरी दादा (बाप नंबरी बेटा दस नंबरी), बल्लू दादा (कसम पैदा करने वाले की) सरीखे किरदारों से यह पता चलता है कि माणिक से निर्देशक क्या चाहते थे?

छह फुट लंबे माणिक अपने शरीर को लेकर संजीदा रहे. उस दौर में जब बॉडी बिल्डिंग फिल्मोद्योग से दूर था, वह नेशनल हेल्थ लीग जिम के नियमित सदस्य थे.

वह जानते थे कि उनके जीवन यापन का एकमात्र सहारा उनका औरों से अलग शरीर ही है. अपनी कद-काठी और कुछ मेक-अप के बदौलत अपने एक शॉट के रोल से ही शरीर मे सिहरन पैदा कर देने के लिए काफी थे.

यही कारण है कि 80 के मध्य में जब हिन्दी हॉरर फिल्मों का दौर आया तब पैशाचिक किरदारों के लिए भी माणिक पहली पसंद बने.

माणिक अब इस दुनिया मे नहीं हैं. उनकी आखिरी फिल्मों मे दीदार और फतेह जैसी फिल्में रहीं. उन्नीस सौ नब्बे के मध्य के किन्हीं सालों में माणिक इस दुनिया से निजात हुए.

उनके किरदारों की तरह ही उनकी मौत के कारण भी कई बताए जाते हैं. कभी लंबी बीमारी से देहांत की बात सामने आती है तो कभी अवसाद के कारण अत्यधिक शराब पीने से. कभी आत्महत्या तक की अफवाह भी खबरों मे होती है तो कभी स्टंट करने के दौरान हुई दुर्घटना की बात भी आती है.

कारण जो भी हो, माणिक को भुला दिया गया. फिल्मोद्योग की इस दर्जा बेरुखी इस बात को ही पुख्ता करती है कि नटवर लाल, कालीचरण, फरिश्ते,हीरो,मर्द और तूफान सहित 100 से अधिक फिल्में करने वाले माणिक ईरानी के खो जाने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता.