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KGF Movie Review : केजीएफ चैप्टर वन आज के जमाने में बाहुबली की सफलता को भुनाने को कोशिश करती है, नतीजा अधपका है

चाहे फिल्म का सिनेमोटोग्राफ़ी (भुवन गौड़ा) हो या फिर इसकी एडिटिंग (श्रीकांत गौड़ा) वह सभी कमाल के है. यश, श्रीनिधि शेट्टी, अच्युत कुमार, मालविका अविनाश सभी ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है

Abhishek Srivastava

बाहुबली की सफलता ने कई चीजों को बॉलीवुड में बदल दिया है. साउथ की कोई भी मेगा बजट फिल्म जब बाजार में आती है तब बॉलीवुड के नामचीन प्रोड्यूसर्स उसके साथ अपना हाथ जोड़ लेते है. बाहुबली और रोबोट 2 में अगर करन जौहर के धर्मा प्रोडक्शन ने इन फिल्मों के निर्माताओं के साथ हाथ मिलाया था तो इस बार केजीएफ के साथ हाथ मिलाया है फरहान अख्तर और रितेश सिधवानी की कंपनी एक्सेल एंटरटेनमेंट ने. केजीएफ के बारे में ये कहना ठीक होगा की फिल्म की कहानी तो अच्छी है लेकिन इसके निर्देशक इसके एक्सीक्यूशन में मात खा गए है. बाहुबली की सफलता को दोहराने के चक्कर में ये लोग भूल गये है की फिल्म को ठीक से जामा पहनना भी फिल्म की कहानी को ठीक से कहने के बराबर ही होता है. के जी एफ का स्वाद अंत में खट्टा मीठा है.

केजीएफ एक पीरियड ड्रामा है जो कोलर गोल्ड खादान के इर्द गिर्द बुना गया है


के जी एफ एक पीरियड ड्रामा है जिसकी शुरुआत 1970 में होती है. इसकी कहानी एक अनाथ बच्चे के बारे में जो बड़ा होकर एक डॉन बनता है और दुनिया में अपनी जगह बनाने की कोशिश करता है. एक क्रूर दुनिया में उसको अपनी पहचान दिलाने में उसकी मां की शिक्षा उसकी मदद करती है. फिल्म की शुरआत तब होती है जब 1981 में देश के प्रधानमंत्री इस बात का एलान करते है की देश के खूंखार अपराधियों को पकड़ने के लिए सेना की की मदद ली जाएगी. इसके तुरंत बाद फिल्म के नायक यश के दीदार होते है जिसके बाद ये बताया गया है की उसके ऊपर लिखी गयी एक किताब के ऊपर सरकार ने बैन लगा दिया है लेकिन कैसे भी एक किताब बच जाती है. उसके बाद किताब के लेखक उस अपराधी या फिर यू कह ले सोने की खादान के सरगना की कहानी बताना शुरु करते है जिसका इल्म किसी को नही है. रामकृष्णा कर्नाटक से बम्बई का रूख करता है और जीवन यापन के लिए शू पालिश करना शुरू कर देता है और देखते ही देखते मुंबई के अंडर वर्ल्ड में रॉकी के नाम से मशहूर हो जाता है. बॉम्बे को पूरी तरह से अपने कब्जे में करने के लिए उससे वापस कर्नाटक का रुख करना पड़ता है जहां पर उससे कोलार गोल्ड फ़ील्ड के कुछ लोगो का सफाया करना है. लेकिन जब वो अपने इस काम को अंजाम देता है तब उसके साथ 20000 लोगो की खड़ी फौज हो जाती है.

ये फिल्म यश को शो केस करने की एक कोशिश है

रॉकी की भूमिका में यश जचे तो जरूर है लेकिन उनका मौन व्रत थोड़ा अटपटा लगता है. पूरी फिल्म में महज कुछ मिनट के लिए ही उनके डायलॉग है. फिल्म अपनी कहानी कहने के लिए नॉन लीनियर पैटर्न का सहारा लेती है जो फिल्म के साथ मैच करता है. इस फिल्म के सभी किरदारों के साथ भी निर्देशक ने न्याय किया है और सभी के किरदारों को अच्छी तरह से पेश किया है. लेकिन ये भी सच है की निर्देशक ने फ्रंट बेंचर्स की मानसिकता का भी ध्यान रखा है और उनको ध्यान में रख कर कई सीन्स बुने है. इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यह है की ये अपने पेस की वजह से कही से भी बोर नहीं करती है.

समय अगर आपके पास है तभी आप इस फिल्म को आजमाइए

चाहे फिल्म का सिनेमोटोग्राफ़ी (भुवन गौड़ा) हो या फिर इसकी एडिटिंग (श्रीकांत गौड़ा) वह सभी कमाल के है. यश, श्रीनिधि शेट्टी, अच्युत कुमार, मालविका अविनाश सभी ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है. लेकिन बात वही पर अटक जाती है की सब कुछ कमाल का होने के बावजूद ये फिल्म एक ठोस मुर्त रूप नहीं ले पाती है. किसी बात की कमी का एहसास हमेशा रहता है. बहरहाल केजीएफ का ये चैप्टर वन है और दूसरा चैप्टर आना बाकी है. अगर आपके पास समय है तो आप इस फिल्म को आजमा सकते है. छूट जाए तो किसी तरह का मलाल नहीं रहेगा.