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Review: काश! काशी की ये दास्तान सिनेमा के रूप में बनी नहीं होती

बेहद साधारण अभिनय काशी को कमजोर फिल्म बनाता है

Abhishek Srivastava

हिंदी फिल्मों का स्तर पहले से काफी सुधर चुका है. अगर किसी फिल्म की कहानी देश के छोटे शहरों में रची बसी होती है तो दर्शक वर्ग इसी बात की उम्मीद रखता है कि फिल्म के मुख्य कलाकार भी उसी शहर के रंग में रंग जाएंगे. आजकल की फिल्मों में अगर ऐसा नहीं होता है तो दर्शक उस फिल्म को सिरे से खारिज कर देते हैं. ‘काशी-इन सर्च ऑफ गंगा’ बॉक्स ऑफिस पर अगर नहीं चलती है तो उसकी एक वजह ये भी होगी लेकिन फिल्म के न चलने की सबसे बड़ी वजह होगी इसकी लचर कहानी और इसके कलाकारों का बेहद ही औसत अभिनय. काशी कहीं से आपको लुभाने में कामयाब नहीं हो पाएगी. इस फिल्म की कहानी में जो सीन्स हैं वो कहीं से भी जुड़े हुए नहीं है. अगर आप फिल्म के आखिर में एक बहुत बड़ा ट्विस्ट ले आते हैं जिसका जिक्र या फिर हिट फिल्म के पहले भाग में लेखक कहीं भी नहीं देता है तो इस तरह के लेखन को मैं चालू लेखन ही कहूंगा. काशी इसी परेशानी का शिकार है. और हां शरमन जोशी के हाव-भाव में कहीं से भी बनारसी रस नहीं टपकता है. ‘काशी-इन सर्च ऑफ गंगा’ एक बेहद ही कमजोर फिल्म है जिसे अगर आप देखते हैं तो इस बात अहसास आपको जरूर हो जाएगा कि मैंने अपने जीवन के दो घंटे बर्बाद कर दिए.


फिल्म की कहानी काशी की अपनी बहन की खोज को लेकर है

‘काशी-इन सर्च ऑफ गंगा’ की कहानी है काशी (शरमन जोशी) के बारे में जो बनारस में रहता है और वहां के घाट पर शवों को जला कर अपना जीवन यापन करता है. होली के दरमियान उसकी मुलाकात होती है देविना (ऐश्वर्या देवन) से जो लखनऊ की एक रिपोर्टर है और शहर के बारे में लिखने के उद्देश्य से बनारस आई है. काशी के घर में उसके माता-पिता के अलावा छोटी बहन गंगा है जिस पर वो अपनी जान न्यौछावर करता है. एक दिन कॉलेज से गंगा जब घर वापस नहीं आती है तब काशी परेशान हो जाता है और उसकी खोज में लग जाता है. काशी की इस खोज में उसका साथ देती है देविना जिसके साथ शुरू की दोस्ती अब प्रेम में तब्दील हो चुकी होती है. अपनी इस खोज के दौरान काशी को पता चलता है कि उसकी बहन को शहर के नेता के बेटे अभिमन्यु से प्रेम हो गया था और बाद में वो उसके बच्चे की मां बनने वाली थी. जब काशी को ये पता चलता है कि अभिमन्यु कुछ दिनों के लिए मसूरी गया हुआ है तब वहां जाकर वो उसे गुस्से में आग बबूला होकर होटल से नीचे फेंक देता है. जब गंगा की लाश बनारस में ही मिलती है तब मामले की गुत्थियां और भी उलझ जाती हैं. बाद में मामला जब अदालत में जाता है तब वहीं पर अनसुलझी गुत्थियां सुलझती हैं. फिल्म की कहानी के बारे में इतना जरूर कहूंगा की ऊपर जो कुछ भी मैंने फिल्म के बारे में आपको बताया है फिल्म में आपको इससे कुछ ज्यादा मिलेगा या फिर ये भी कह सकता हूं कि सब कुछ आपको इसके उलट मिलेगा.

बेहद साधारण अभिनय काशी को कमजोर फिल्म बनाता है

अभिनय के मामले में काशी की भूमिका में शरमन जोशी का अभिनय बेहद साधारण ही कहा जाएगा और ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि फिल्म पूरी तरह से बनारस शहर में रची बसी है लेकिन शरमन वहां के रंग-ढंग में खुद को ढाल नहीं पाए हैं. उनकी कोशिश आधी-अधूरी ही रहती है. दूसरी तरफ फिल्म में जो काशी की मित्र मंडली है उनको देखने में ज्यादा मजा आता है क्योंकि उनकी वेशभूषा और बोलचाल काफी हद तक बनारस की ही लगती है. कहने की जरुरत नहीं कि सहायक भूमिका में इन कलाकारों का समय फिल्म में काफी कम है. काशी की प्रेमिका और पत्रकार की भूमिका में हैं ऐश्वर्या देवन जो इससे पहले साउथ की कुछ फिल्मों में काम कर चुकी हैं. इस फिल्म में उनके पास अपनी अभिनय प्रतिभा को दिखाने का एक बड़ा मौका मिला था लेकिन वो चूक गईं. उनके चेहरे पर एक्सप्रेशंस बेहद ही कम मात्रा में नजर आता है और उनकी भूमिका में ऊर्जा की कमी दिखाई देती है. उनके लिए ये एक मिस्ड अपॉर्च्यूनिटी कही जाएगी. इसके अलावा मनोज पाहवा, मनोज जोशी और अखिलेन्द्र मिश्रा भी फिल्म में और फिल्म के अदालती कारवाई वाले सींस मे नजर आते हैं और इन सभी का काम साधारण है.

निर्देशन और लेखन में तमाम खामिया हैं

इस फिल्म का निर्देशन किया है धीरज कुमार ने और उनके निर्देशन में कई खामिया हैं. एक अच्छी शुरुआत करने बाद में उन्होंने कहानी का मटियामेट कर दिया है. निर्देशन का अनुभव न होना उनके काम में झलकता है. मुझे ऐसी फिल्मों से सख्त शिकायत है जिनके कुछ एक सीन्स में अंजाम पर पहुंचने के लिए कहानी को घुमाव दिया जाता है. एक दर्शक की हैसियत से आपको पता है कि आगे क्या होने वाला है लेकिन फिर भी आप दर्शकों के विवेक से खिलवाड़ करते हैं. अरे भाई जब आपको काशी और देविना के बीच में प्यार मोहब्बत दिखाना ही था तो क्यों आप फिल्म का बहुमूल्य समय वाइन पीने और हाथ जलने पर बर्बाद करते हैं. फिल्म का जब ये मूल मुद्दा है ही नहीं तो इस पर समय क्यों बर्बाद करना. मुझे एक और बात से शिकायत है. फिल्म में जो अदालती करवाई चलती है उसके बाद एक जबरदस्त ट्विस्ट दिखाया गया है. अगर उस बड़े ट्विस्ट का हिंट हमे इंटरवल के पहले मिल जाता तो मजा कुछ और हो सकता था. लेकिन पीठ थपथपाने के बजाय आप यही सोचते हैं कि कहानी में अब क्या हो गया. इस फिल्म की कहानी बुरी नहीं है लेकिन जिस तरह से इसका ट्रीटमेंट किया गया है वो बेहद ही बचकाना है. कम शब्दों में यही कहना ठीक होगा कि ये फिल्म न ठीक से ड्रामा बन पाई है और न ही थ्रिलर. फिल्म से आप अपनी दूरी बनाए रखें-समझदारी इसी में होगी.