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Review शादी में जरूर आना : इस शादी में आपको सभी रस मिलेंगे...

विनोद बच्चन तनु वेड्स मनु का जादू दोहराने में नाकाम रहे हैं

Abhishek Srivastava

शादी में जरूर आना के प्लाट में बॉलीवुड के सभी फेवरेट तड़के मारे गए हैं. इस फिल्म में ड्रामा है, बदले के स्वर हैं, रोमांस है और गाने भी लेकिन इन सबकी की आड़ में जो सबसे बड़ी बात इस फिल्म ने कहने की कोशिश की है वो है दहेज और लिंग असमानता के बारे में, जो कहीं न कहीं दिमाग में घर कर लेती है. इस फिल्म के साथ भी वही परेशानी है जो बॅालीवुड की 90 प्रतिशत फिल्मों के साथ होती है. एक अच्छी शुरुआत, मध्यांतर के बात चौपट हो जाती है.

स्टोरी


फिल्म की शुरुआत सत्येंद्र मिश्रा (राजकुमार राव) और आरती शुक्ला (कृति खरबंदा) की प्रेम कहानी से शुरू होती है. सत्येंद्र एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क का काम करता है जिसकी जिंदगी मे ज्यादा बड़े सपने नहीं हैं जबकि आरती एक प्रशासनिक अधिकारी बनने का सपने देखती है और अपने कॉलेज में पढ़ाई में अव्वल है. इन दोनों के ही परिवारो को उन दोनों के लिये वर-वधु की तलाश है और किस्मत दोनों परिवारों को मिलाती है.

सत्येंद्र के खुले विचार आरती को पसंद आ जाते हैं और शादी की बात आगे बढ़ जाती है लेकिन दहेज़ की मांग पर चीजें थोड़ी अटक जाती हैं. वक़्त का पहिया बदलता है और आरती शादी की रात भाग जाती है और बाद में कड़ी मेहनत के बाद प्रशासनिक अधिकारी बनने का अपना सपना पूरा कर लेती है. इसके बाद फिल्म की कहानी एक बदले की कहानी में परिवर्तित ही जाती है. औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है यह बात भी फिल्म में देखने को मिलती है जब सत्येंद्र की मां दहेज की मांग पर अपना अडिग रवैया दिखती है.

डायरेक्शन

इस फिल्म की निर्देशिका है रत्ना सिन्हा और कानपुर की सेटिंग देख कर पता चलता है की उनको उस जोन की पकड़ उनके पास है और उसकी अच्छी समझ उनको है. जिस तरह से उन्होंने दहेज की बात फिल्म में पिरोई है उसको देख कर लगता है की उनको इसके दानवी रूप की अच्छी ख़ासी समझ है. आज भी उत्तर भारत के कई घर इसके मारे हुए है. फिल्म की कहानी सपाट है लेकिन फिर भी यह आपका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब रहती है.

एक्टिंग

अभिनय के मामले में सभी ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है. राजकुमार राव का काम सधा हुआ है. दोनों परिवारों के मुखिया के रोल में के के रैना और गोविन्द नामदेव है और उन्होंने बेजोड़ अभिनय का नमूना पेश किया है. कृति खरबंदा का अभिनय बुरा नहीं है लेकिन एक अधिकारी बनने के बाद उनके किरदार में जो संजीदगी दिखनी चाहिए थी वो कहीं न कहीं गायब नजर आती है और यह आखों के लिए किरकिरी का काम करता है. आप अपने कॉलेज डेज के मेक अप को अपने दफ्तर कैसे ले जा सकते है. ये बेहद ही अटपटा लगता है. एक छोटे शहर में रोमांस किस तरह से पनपता है इसको रत्ना सिन्हा ने बेहद ही सहज तरीके से कैप्चर किया है जिसमें मासूमियत पूरी तरह से झलकती है.

सेकेंड हाफ में ढीला स्क्रीनप्ले

फिल्म के दूसरे हाफ में स्क्रीनप्ले के साथ खिलवाड़ शुरू हो जाता है. कुछ ऐसी चीजों के दीदार होते हैं जिनको पचाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है अगर आपको आज के परिप्रेक्ष्य में जोड़ें तो. आज के जमाने में सिर्फ फोन ही एक दूसरे को जोड़ने का काम नहीं करते है इसके अलावा भी और कई जरिए हैं लोगों के पास अपनी बात पहुंचाने का. फिल्म का सेकंड हाफ किसी टेलीविज़न के सोप ओपेरा सरीखा लगने लगता है जब परिवार के सभी लोग कहानी में अपनी उपस्थिति दर्ज करने लगते है लेकिन इन सबके के बावजूद फिल्म के कलाकारों के अभिनय की वजह से फिल्म ढीली नहीं लगती है.

तनु वेड्स मनु से उन्नीस

इस फिल्म में खामियां और खूबियां दोनों ही हैं. इस फिल्म के निर्माता है विनोद बच्चन जिन्होंने तनु वेड्स मनु बनाई थी. शर्तिया तौर पर उनको सोच यही रही होगी की इस फिल्म का फील वही दिया जाए. इस कोशिश में उनको कामयाबी पूरी तरह से नहीं मिल पाई है. लेकिन यह भी सच है की आप इस फिल्म की खूबियों को दरकिनार नहीं कर सकते हैं. आप इस फिल्म को देख सकते हैं. फिल्म के कलाकारों ने फिल्म की निर्देशिका की दिक्कतों को अपने शानदार अभिनय से ढक लिया है.