view all

FILM REVIEW : आपकी जान निकाल सकती है अभय देओल की ‘नानू की जानू’

इसे अगर साल की सबसे खराब फिल्म कहा जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए

Abhishek Srivastava

नानू की जानू में एक सीन है जब अभय देओल की मां गाड़ी में अपने बेटे के साथ बैठकर अभय के घर की ओर कूच करती हैं. गाड़ी में ही अभय देओल अपनी मां से पूछते हैं कि फिल्म कैसी लगी उनको.

हिमानी शिवपुरी जो फिल्म में अभय की मां के रोल में हैं दो टूक जवाब देती हैं ‘बकवास’. अगर कोई मुझसे पूछेगा कि यह फिल्म मुझे कैसी लगी तो मेरा भी यही जवाब होगा.


नानू की जानू पूरी फिल्म एक मजाक से ज्यादा और कुछ नहीं है. देखकर बेहद आश्चर्य होता है कि इस फिल्म में अभिनय करने की हामी अभय ने आखिर कैसे दे दी.

नानू की जानू एक हॉरर कॉमेडी है और जब फिल्म में आपको डर और हंसी दोनों ही नहीं आए तो लगभग 2 घंटे आपका क्या हश्र होगा इसका अंदाजा आप अच्छी तरह से लगा सकते हैं.

अच्छी कहानी का कर दिया कबाड़ा

फिल्म की कहानी नानू (अभय देओल) और उसके दोस्तों के बारे में है जो दिल्ली में रहते हैं और उनका काम है लोगों के घरों को किराए पर लेने के बाद उसको अवैध तरीके से अपने कब्जे में लेना.

एक दिन अपनी गाड़ी में सफर के दौरान नानू को सिद्धि (पत्रलेखा) सड़क पर दुर्घटना की अवस्था में मिलती है. बिना वक्त गंवाए नानू उसे फौरन उपचार के लिए अस्पताल लेकर जाता है लेकिन अस्पताल में ही उसकी मौत हो जाती है. मौत के बाद नानू के घर में कुछ अनहोनी चीजें होनी शुरू हो जाती हैं.

बाद में इस बात का पता चलता है कि सिद्धि के भूत ने उसके घर में अपना बसेरा बना लिया है. इस बीच कई चीजें कहानी के बीच में घटती है और अंत में नानू इस बात का निश्चय करता है की जिसकी भी गाड़ी से सिद्धि की मौत हुई है उसका पता वो निकाल कर रहेगा और उसको सज़ा दिलायेगा. फिल्म के क्लाइमेक्स में इस बात पता का नानू को हो जाता है की सिद्धि की मौत कैसे हुई थी और इस बात का खुलासा करना इस फिल्म समीक्षा मे ठीक नहीं होगा.

ना डराती है और ना ही हंसाती है

अगर नानू की जानू को इस साल की सबसे बकवास फिल्म मानी जाए तो यह कहीं से भी गलत नहीं होगा. इस फिल्म को देखकर कही से भी हंसी नहीं आती है वो तो गनीमत है कि फिल्म में मनु ऋषि हैं जिनकी वजह से कुछ सीन्स में हसने का मौका मिल जाता है. इस फिल्म के सितारों का अभिनय, निर्देशन,संगीत या एडिटिंग  - इनमें से कोई भी डिपार्टमेंट शायद आपका दिल लुभाने में कामयाब नहीं हो पाएगा.

अगर इसके क्लाइमेक्स की बात की जाए तो शायद इस तरह का क्लाइमेक्स आपको किसी हिंदी फिल्म में पहले देखने का मौका नहीं मिला होगा. मोबाइल से लेकर गाड़ी चलाते वक्त हेलमेट पहनने तक के सारे सन्देश जनता को दे दिए गए है. खैर मैंने क्लाइमेक्स का पूरा खुलासा नहीं किया है अगर आप फिल्म देखेंगे तो इस बात का पता आपको चल जायेगा क्योंकि क्लाइमेक्स में और भी कुछ है.

डायरेक्टर ने अभय को खोया

अभय की हिंदी फिल्मो में वापसी लगभग दो सालो के बाद हो रही है और देखकर बुरा लगता है कि वापस आने के लिए उन्होंने नानू की जानू जैसी फिल्म चुनी. लेकिन यह भी सच है कि अभय अपना असर फिल्म में छोड नहीं पाए है. थोड़े रूखे और बेजान अभय इस फिल्म में नजर आते हैं.

अलबत्ता मनु ऋषि को देखकर थोड़ी बहुत हंसी जरुर आती है लेकिन अफसोस है कि सिर्फ वो अकेले ही कलाकारों की फौज में ऐसे हैं जो लोगों के चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं. पत्रलेखा का फिल्म में बेहद ही छोटा रोल और उनका काम भी साधारण ही है. राजेश शर्मा जो की फिल्म में पत्रलेखा के पिता की भूमिका में है सिर्फ वही हैं जिनको देखकर लगता है की फिल्म में कोई अभिनय ठीक से कर रहा है लेकिन अच्छा अभिनय काफी हद तक सामने वाले अभिनेता के अभिनय पर भी निर्भर भी करता है और राजेश शर्मा यही पर मात खा गए हैं. उनका साथ देने वाला कोई नहीं है.

फराज के निर्देशन में खामियां हैं

फिल्म के निर्देशक फराज हैदर है जो इसके पहले दिबाकर बनर्जी की फिल्म ओय लकी लकी ओय में सहायक निर्देशक थे. उनकी यह दूसरी फिल्म है और लगता है कि निर्देशन की खूबियों से परिचित होने में उनको थोड़ा समय और लगेगा. फिल्म की शुरआत होती है जब अभय अपने दोस्तों के साथ एक फ्लैट पर कब्जा करने के लिए उस फ्लैट के मालिक को डराते धमकाते है. अब यह पूरा सीन कमाल का बन सकता था भरपूर मात्रा में हंसी मजाक के साथ.

लेकिन यह सीन इतना सतही है की आपको इसी सीन को देखकर पता चल जायेगा की फिल्म आगे चल कर किस मोड़ पर जाएगी. इस फिल्म की कहानी ऐसी है जो सही ट्रीटमेंट के साथ कमाल की फिल्म बन सकती थी. लेकिन पूरी फिल्म से ट्रीटमेंट ही नदारद है. फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर ऐसा है की मानो आपके कान के परदे फट जाएं. निर्देशक साहब, पंजाबी बीट्स और और हर सीन में म्यूजिक देने से जरुरी नहीं की फिल्म लोगो को पसंद आ जाएगी.

नानू की जानू से एक बात तय है कि आपको जबरदस्त निराशा होगी. डायलाग ऐसी फिल्मो में काफी हद तक लोगो को बांध कर रखने का काम करते है लेकिन अफसोस शायद यह फिल्म का सबसे बड़ा नेगेटिव प्वाइंट है.

फिल्म में सिर्फ कुछ ही पलों के लिए मजा आता है जब भूत की वजह से अभय और मनु ऋषि डरने लगते हैं. अभय का पड़ोसी जो उनसे अक्सर रुपयों की मांग करता है - यह ट्रैक फिल्म में क्यों डाला गया है मै इस बात को अभी तक समझ नहीं पाया हूं. इस फिल्म का सपोर्टिंग कास्ट बेहद ही कमाल का है लेकिन उनसे काम निकलवाने में फराज असफल रहे हैं. इस फिल्म के अधिकतर सीन्स अधपके नज़र आते हैं. इस फिल्म को देखना समय की बर्बादी ही होगी.