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Film Review Gold : इस गोल्ड की हैसियत चांदी समान है, अक्षय कुमार की ये फिल्म निराश करती है

अक्षय कुमार की इस फिल्म की तुलना लोग चक दे इंडिया से करेंगे लेकिन उन्हें गोल्ड से निराशा ही हाथ लगने वाली है

Abhishek Srivastava

गोल्ड देखने के बाद पता चलता है कि रीमा कागती ने 1948 के ओलम्पिक खेलों में भारत की हॉकी में स्वर्ण पदक जीतने की कहानी को अपनी फिल्म का विषयवस्तु क्यों चुना. फिल्म के क्लाइमेक्स से लेकर टीम में खिलाड़ियों के चयन की कहानी पढ़ने में बेहद लुभावनी लगती है. इस कहानी में हिंदुस्तान-पाकिस्तान का विषय छुपा हुआ है.

इसकी कहानी देश भक्ति मे ओत-प्रोत है और रोमांस के साथ साथ समाज के क्लास सिलेक्शन की भी बात कही गई है जो हिंदुस्तान की झंडे के नीचे जाकर सभी कुछ भूल कर एक हो जाते हैं. जाहिर सी बात है एक अच्छी हिंदी फिल्म बनाने के लिए सभी मसाले इसकी कहानी में मौजूद हैं. ये तो रही बात सामाग्री की लेकिन अगर हम बात करे इसके एक्जिक्यूशन की तो ये सभी बातें उभर कर सामने नहीं आ पाई है इस फिल्म में.


गोल्ड को मैं रीमा कागती के फिल्म करियर की सबसे कमजोर फिल्म मानूंगा. गोल्ड का ह्रदय फिल्म में कहीं ना कहीं गायब है. अगर अक्षय कुमार के बंगालीपन में बनावट नजर आती है तो वहीं दूसरी ओर इस फिल्म से हाई ड्रामा नदारद है जिसकी डिमांड ऐसी फिल्में चीख चीख कर करती है.

हॉकी में पहले गोल्ड की कहानी

गोल्ड की कहानी तपन दास (अक्षय कुमार) की है जो 1936 के ओलंपिक खेलों के वक्त जब हॉकी में जब ब्रिटिश-इंडियन टीम को गोल्ड मेडल मिला था तब वो उस मौके के गवाह थे. जब भारत के स्वाधीनता की बात उठने लगती है तब उनके दिमाग में यह बात घर कर लेती है की 1948 के ओलंपिक में हिंदुस्तान अपने अकेले दम पर हॉकी में गोल मेडल लेकर आएगा. इसको लेकर तपन अपनी तैयारी शुरू कर देते हैं. उनके रहने सहने के अंदाज की वजह से शुरुआत में उनको कई तकलीफों से दो चार होना पड़ता है लेकिन जब हॉकी फेडरेशन के चेयरमैन से वो खुद मिलते हैं तब वो उन्हें इस बात के लिए राजी कर लेते हैं कि टीम के चयन की जिम्मेदारी उनको दी जाए.

इसके बाद तपन खिलाड़ियों का चयन शुरू कर देते हैं जिसमे पंजाब के हवलदार हिम्मत सिंह (सनी कौशल) से लेकर उत्तर प्रदेश के एक रजवाड़े के नायाब रघुबीर सिंह (अमित साध) जैसे खिलाड़ी शामिल हैं. तपन दास की टीम में दरार तब पड़ जाती है जब विभाजन की वजह से कुछ खिलाड़ी पाकिस्तान चले जाते हैं जिनमे शामिल है इम्तियाज़ शाह (विनीत सिंह) जो टीम के कप्तान भी हैं.

उसके बाद तपन एक बार फिर से टीम को बनाने के लिए पुराने हॉकी खिलाड़ी सम्राट (कुणाल कपूर) की मदद लेते है और फिर से एक नई टीम का गठन करते है. जब 1948 के ओलंपिक खेलो की बारी आती है तब कुछ उतार चढ़ाव भी आते हैं.

बंगाली की भूमिका निभाने में फिट नहीं दिखे अक्षय

तपन दास की भूमिका में अक्षय कुमार कुछ खास जान नहीं डाल पाए हैं. उनके बांग्ला बोलने का लहजा स्क्रीन पर बेहद अटपटा नजर आता है. मुश्किल तब होती है जब फ्रेम में उनके साथ मौनी रॉय होती हैं जो फिल्म में उनकी पत्नी की भूमिका में हैं. मौनी के हिंदी बोलने का अंदाज़ काफी कुछ वैसा ही है जब एक आम बंगाली हिंदी भाषा बोलता है लेकिन उन्हीं सीन्स में अक्षय कुमार उनसे काफी पीछे रह जाते हैं. अक्षय कुमार के जो भी सीन्स फिल्म में आपको नज़र आएंगे उनमें ड्रामा बिलकुल भी आपको देखने को नहीं मिलेगा.

एक ऐसा इंसान जो एक टीम का निर्माण करके उसको गोल्ड मेडल जिताने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, के अंदर जुनून होना जरूरी है. फिल्म में ऐसे मौके, जब अक्षय कुमार को अपनी इस मुहिम को लेकर जुनून हो, कम ही नज़र आया है.

जाहिर सी बात है इसके लिए मुजरिम फिल्म के लेखक को ही ठहराया जाएगा. फिल्म को देखकर कभी कभी ऐसा भी लगता है की अक्षय कुमार एक कांस्टेंट है फिल्म में जिनके इर्द गिर्द चीजें चल रही है और उन चीज़ो से अक्षय का कोई लेना देना नहीं है. अमित साध रघुबीर सिंह की भूमिका में और हिम्मत सिंह की भूमिका निभाने वाले सनी कौशल अपने अपने रोल में जंचे है.

अक्षय की पत्नी की भूमिका में मौनी रॉय है लेकिन फिल्म में उनके पास कुछ ज्यादा करने की कोई गुंजाईश नहीं थी लेकिन जो कुछ भी थोड़ा बहुत स्क्रीन टाइम उनको मिला है उसमे उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दे दिया है. कुणाल कपूर और विनीत सिंह अपने किरदारों में अच्छे लगे है.

अक्षय कुमार इस फिल्म में मिसकास्ट किए गए हैं 

इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि इसकी तुलना लोग चक दे इंडिया से करेंगे और उस वक्त गोल्ड का पलड़ा काफी हल्का होगा. इस फिल्म की दूसरी सबसे बड़ी कमजोरी है इसकी स्क्रिप्ट. फिल्म में हाई ड्रामा या हाई टेंशन ना के बराबर है. फिल्म एक लीक को पकड़ कर चलती है और उससे हटती नहीं है जिसकी वजह से आगे के सीन्स के बारे में आपको एक अच्छा खासा अंदाज़ा मिल जाता है. फिल्म के गानों में कोई जान नहीं है.

जब अक्षय कुमार नशे की हालत में एक पार्टी में गाते है तो देखते वक्त यही महसूस होता है कि गाना जल्दी खत्म हो और परेशानी से निजात मिले. देख कर लगता है कि अक्षय कुमार का मन इस फिल्म में नहीं था. अगर मैं ये कहूं कि इस फिल्म के लिए अक्षय कुमार मिसकास्ट है तो वो कही से गलत नहीं होगा.

रीमा के निर्देशन की धार फीकी

कहीं से नहीं लगता कि ये वही रीमा कागती है जिन्होंने इसके पहले हनीमून ट्रेवल्स प्राइवेट लिमिटेड और तलाश का निर्देशन किया था. उनके निर्देशन की वो धार गायब है और वो कही कही पर ही फिल्म मे दिखाई देती है. फिल्म के थीम से ही पता चलता है की इसमें नेशनलिज्म वाली बात है लेकिन हर बार उसको दोहराने की कोई जरुरत नहीं है. आश्चर्य तब होता है ये जानकार की यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है लेकिन हिंदुस्तान के जिन खिलाड़ियों ने 1948 में शिरकत की थी उनके नाम ही बदल दिए गए है. इसकी क्या जरुरत थी ये हैरान करने वाली ही बात है.

फिल्म में कमाल के मोमेंट्स गिने चुने ही हैं 

लेकिन अगर फिल्म की पटकथा और निर्देशन में खामिया है तो दूसरी ओर इसका आर्ट वर्क उतना ही कमाल का है. लगता है की आप सन् 1947 की दुनिया में पहुंच गए है. फिल्म के कुछ एक सीन्स को देखने में खासा मजा आता है. जब पाकिस्तान और भारत की टीम लंदन में मिलती है और जब अक्षय कुमार पाकिस्तान टीम के सदस्य इम्तियाज शाह से उनके ड्रेसिंग रूम में मिलने जाते हैं या फिर जब पाकिस्तान टीम सेमीफाइनल में हार जाने के बाद फाइनल में हिंदुस्तान की टीम को चीयर करती है तो उसे देखने में बेहद मजा आता है.

काश फिल्म में ऐसे मोमेंट्स और होते. गोल्ड की मस्ती फिल्म के आखिरी पलो में ही नज़र आती है इसके अलावा फिल्म में ऐसा कुछ है नहीं जो आपके जेहन में घर करेगा. रीमा कागती और अक्षय कुमार से ढेरों उम्मीदें थी लेकिन इसका अंत बेहद ही निराशाजनक है.