view all

Film Review : गली गुलियां का हर फ्रेम मनोज बाजपेयी की शानदार एक्टिंग के नाम

सार्थक सिनेमा के कद्रदानों के लिए इस हफ्ते गली गुलियां एक नज़राने जैसा ही है

Abhishek Srivastava

गली गुलियां को देखना कोई आसान बात नहीं है. ये फिल्म आपको कदम-कदम पर झकझोरेगी, आपके दिमाग पर वार करेगी और आपकी अंतरात्मा को जगाने की कोशिश करेगी. इस फिल्म को देखने के लिए आपको साहस जुटाना पड़ेगा. अगर इस फिल्म में आप किसी भी तरह का मनोरंजन ढूंढ़ने की कोशिश करेंगे तो आपके लिये यही चेतावनी है कि आपको हताशा ही हाथ लगेगी लेकिन अगर आप उन लोगों में जिनको सार्थक सिनेमा पसंद है तो गली गुलियां को आप एक बार आजमा सकते हैं.

दीपेश जैन निर्देशित गली गुलियां एक बेहद ही डार्क फिल्म है जो आपको कई मौकों पर सोचने पर मजबूर करेगी.


चांदनी चौक की संकरी गलियों की कहानी

फिल्म की कहानी खुद्दूस (मनोज बाजपेयी) के बारे में है जो दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में अकेले रहता है और जीवनपन के लिए इलेक्ट्रीशियन का काम करता है. उसके माता पिता नहीं हैं और अपने छोटे भाई के साथ उसके सम्बन्ध अच्छे नहीं हैं. उसे अपने पड़ोस के लोगों में खासा दिलचस्पी है और क्लोज सर्किट कैमरे के जरिए उन पर ताक झांक भी करता है.

गणेश (रणवीर शौरी) उसका दोस्त है जो समय समय पर पैसे के साथ काम भी देकर उसकी मदद करता रहता है. एक दिन जब खुद्दूस अपने घर के दीवार की दूसरी तरफ एक बच्चे इदु के चीखने चिल्लाने की आवाज सुनता है तो उसका मन बेहद परेशान हो जाता है और उसके बाद उसकी यही कोशिश होती है कि वो उस बच्चे की मदद करे.

बच्चे को किसी भी तरह मदद करने की कोशिश आगे चलकर जुनून में तब्दील हो जाती है. इस वजह से उसे अपने दुकान से हाथ धोने के अलावा हवालात की भी सैर करनी पड़ती है. मदद करने की कोशिश जब उसकी हर बार नाकाम होने लगती है तब उसकी हालत बदहाल हो जाती है.

इस बीच इदु (ओम सिंह) का कसाई बाप लियाकत (नीरज काबि) जब अपने नवजात शिशु को दफनाने के बाद घर आता है तब इदु के सब्र का बांध टूट जाता है और अपने बाप पर ये इल्ज़ाम मढ़ देता है कि नवजात शिशु का हत्यारा वही है. फिल्म के क्लाइमेक्स के बारे में कुछ भी कहना क्लाइमेक्स के रोमांच को खत्म करने के बराबर ही होगा.

मनोज बाजपेयी का सधा हुआ अभिनय

मौजूदा दौर में मनोज बाजपेयी को एक कमाल का अदाकार क्यों माना जाता है उन्होंने इसका प्रमाण गली गुलियां में दे दिया है. बॉलीवुड के किसी कलाकार का इतना सधा हुआ अभिनय काफी दिनों के बाद देखने का मौका मिला है. मनोज बाजपेयी का एक भी दांव इस फिल्म में गलत नहीं पडा है.

इस फिल्म को देखकर ये भी लगता है की इतना सजीव अभिनय करने के बाद मनोज को कुछ दिन जरूर लग गए होंगे उस किरदार से बाहर निकलने के लिए. मनोज के चेहरे के हाव भाव ऐसे है जिनको देखने के तुरंत बाद आप मनोज की दुनिया से अवगत हो जाते है. अगर उनकी यह फिल्म विश्व पटल पर अवार्ड्स बटोर रही है तो उसकी एक बड़ी वजह खुद मनोज भी है.

लियाकत की भूमिका में नीरज काबि है और उनको देखकर यही लगता है की अच्छे काम करने की धुन उनपर सवार है. सेक्रेड गेम्स, हिचकी और नेटफ्लिक्स की हालिया रिलीज़ वन्स अगेन के बाद उन्होंने गली गुलियां के बाद एक बार फिर से दिखा दिया है कि अभिनय प्रतिभा उनके अंदर कूट कूट कर भरी है.

उनकी पत्नी सायरा की भूमिका में शहाना गोस्वामी है और उनका भी अंदाज़ बेहद सहज है. गणेश की भूमिका में रणवीर शौरी कम वक्त के लिए फिल्म में है लेकिन उनकी भूमिका भी असरदार है.

चमक दमक से दूर दीपेश की पहली फिल्म

इस फिल्म के निर्देशक हैं दीपेश जैन जो इसके पहले कैलिफोर्निया के एक फिल्म स्कूल में फिल्म मेकिंग की बारीकियां सीख चुके हैं. दाद देनी पड़ेगी की उन्होंने अपनी पहली फिल्म का विषय वस्तु इतना डार्क चुना. फिल्म के दस मिनट में ही इस बात का पता चल जाता है की यह फिल्म बॉलीवुड के सेट नियमों पर कहीं से खरी नहीं उतरेगी और उन्होंने अपने खुद के ही नियम ईजाद किए हैं जिस पर 70 और 80 के पैरेलल सिनेमा मूवमेंट की छाप साफ नजर देती है.

कैमरा फिल्म के पलो को कैद करने के लिए रुक जाता है. जब चांदनी चौक की संकरी गलियों में मनोज बाजपेयी चलते है तो कैमरा भी एक लम्बे वक्त तक उनके साथ उनके पीछे चलता है. कइयों को ये अपने आप में काफी बोरिंग लग सकता है लेकिन अगर फिल्म के मूड के हिसाब से इसको देखें तो शायद यह फिल्म के भाव से पुरी तरह से मेल खाता है.

काई मीडेनडोर्प की सिनेमोटोग्राफी बेहद कमाल की है. अपने लाइटिंग के कमाल से उन्होंने फिल्म के हर फ्रेम मे जान फूंक दी है.

एक डार्क और परेशान करने वाली फिल्म

अपने हाथ में लगे चोट को ठीक करने के लिए खुद्दूस खुद ही उसमें टांका लगाता है, लियाकत जब इदु की पिटाई करता है तब उस पिटाई को आप देख नहीं सकते है, या फिर नवजात शिशु का गर्भनाल इदु कैची से काटता है तो ये ऐसे सीन्स है फिल्म में जो शायद आपसे देखे ना जाएं.

दीपेश जैन की ये फिल्म भी बॉलीवुड फिल्म देखने वालों के बीच उसी बहस की परंपरा को आगे बढ़ाती है कि सिनेमा का उद्देश्य आखिर है क्या. क्या ये महज मनोरंजन के लिए है या फिर ये कुछ सार्थक चीजों को परोसने के लिए है.

ये पक्की बात है कि जो कमर्शियल सिनेमा पर अपनी जान छिड़कते हैं उनको इस फिल्म से निराशा ही मिलेगी लेकिन बॉलीवुड के दूसरे वर्ग मे विश्वास करने वालों के लिए इस फिल्म में काफी कुछ मिलेगा. ये फिल्म आपको सोचने पर मजबूर करेगी.

गली गुलियां कई लिहाज से एक डिस्टर्बिंग फिल्म भी है. कई फिल्मों में जगह फिल्म के किरदार बन जाते है और इस फिल्म में चांदनी चौक की हैसियत एक किरदार जैसी ही है - एक ऐसा किरदार जो खलनायक है और जहां के माहौल से फिल्म के किरदारों में कचोट पैदा होती है. सार्थक सिनेमा के कद्रदानों के लिए इस हफ्ते गली गुलियां एक नज़राने जैसा ही है.