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FILM REVIEW : इरफान खान की फिल्म ‘कारवां’ का हर मिनट पैसा वसूल है

कारवां इरफान खान की हंसाने वाली फिल्म है, जिसका प्रमोशन उन्होंने लंदन से किया है जहां वो कैंसर का इलाज करा रहे हैं

Abhishek Srivastava

आकर्ष खुराना की कारवां हवा के ताजा झोंके के सामान है जिसकी ठंढक से आपको राहत मिलेगी. राहत मिलती है बॉलीवुड की उन बेसिर पैर की फिल्मों से जो आजकल थोक के भाव से हर शुक्रवार को आ रही है. इस फिल्म में आपको जिंदगी के सभी रंग देखने को मिलेंगे.

कारवां में ठहराव है, हंसाने की काबिलियत है, आपको अपनी खुद की जिंदगी के बारे में एक पल के लिए सोचने पर मजबूर करेगी, इसकी जहीन बातों में गहराई है और सबसे बड़ी बात एक कहानी है जो सिनेमा हॉल से निकलने के बाद आपके जहन में कुछ दिनों तक ताजा रहेगी. एक सफर को बुनियाद बनाकर कारवां की कहानी का ताना बाना बना गया है जो फिल्म के किरदारो के साथ साथ आपको भी जिंदगी के करीब ले आएगा.


इरफान खान अगर आपको जी भर के हसाएंगे तो वहीं दूसरी ओर मलयालम फिल्मों के सुपरस्टार, दुलकर सलमान, जो इस फिल्म से बॉलीवुड में अपना पदार्पण कर रहे हैं, आपको बताएंगे कि उनके जैसा ही कोई आपके पड़ोस में रहता है और मिथिला पालकर इन दोनों के बीच की कड़ी है.

जिंदगी के तीन रंग फिल्म के इन्ही तीन कलाकारों के माध्यम से आपको इस फिल्म में देखने का मौका मिलेगा और ये तीनों रंग चटख है. कारवां जैसी फिल्मों के दर्शन कभी कभार होते है, एक मौका मिला है हाथ से जाने मत दीजियेगा.

बैंगलोर से कोच्ची की यात्री की कहानी

कारवां की कहानी अविनाश राजपुरोहित (दुलकर सलमान) के बारे में है जिसको जिंदगी से थोड़ी शिकायत है और शिकायत इस बात की है कि वो जो करना चाहता है उसे करने का मौका नहीं मिला.

इसके लिए वो अपने पिता को जिम्मेदार मानता है जिनकी वजह से उसे फोटोग्राफी छोड़कर आईटी सेक्टर में नौकरी लेनी पड़ी. गंगोत्री के दर्शन के दौरान जब उसके पिता की मृत्यु हो जाती है तब ट्रैवल एजेंसी एक कुरियर कंपनी की मदद से अविनाश के पिता की लाश को हवाई जहाज से बैंगलोर भेज देती है.

लाश को लेते समय अविनाश को इस बात की जानकारी मिलती है कि किसी और की लाश ताबूत में आ गई है और दूसरी लाश भी उसी हादसे की है जिसमें अविनाश के पिता की मृत्यु हुई थी. काफी जद्दोजहद के बाद इस बात की जानकारी अविनाश को मिल जाती है कि दोनों ही लाशों को गलती से अलग अलग पते पर भेज दिया गया है.

अविनाश अपने जिगरी दोस्त शौकत (इरफान खान) जो की एक कार गैरज चलाता है, उसके साथ मिलकर उसी की वैन में दोनों कोच्चि के लिये रवाना हो जाते है ताकी सही लाश को को वो उनके परिवार तक पहुंचा दे और बदले मे अविनाश को अपनी पिता के आखिरी क्रिया कर्म के लिए उनकी लाश मिल जाए.

इस पूरे सफर में इन दोनों की मुलाकात तान्या से होती है  - दूसरी लाश तान्या की नानी है. बैंगलोर से कोच्चि के सफर में इन तीनों का सामना जिंदगी के कई पहलुओं से होता है और अंत में यह तीनों जिंदगी की रेस में सफल साबित होते है.

इरफान और दुलकर इस फिल्म की जान हैं

इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यही है कि तीनों ही कलाकार अपने अपने रोल में पूरी तरह से जंचे हैं. इरफान ने अभिनय की दुनिया में अब वो मुकाम हासिल कर लिया है की उनके किरदार को लेंस से देखने के बावजूद भी कोई खामी नजर नहीं आती है. फिल्म की हंसी भी इरफान की ओर से ही आती है. ये पक्की बात है कि शौकत की भूमिका उनके अलावा और कोई नहीं कर सकता था.

मुंह फट, तंज़, मजाकिया ये सभी शब्द मिलकर शौकत को बनाते है. दुलकर सलमान मलयाली फिल्मों के सुपरस्टार हैं और उनके पिता जाने माने अभिनेता ममूटी है. अगर नेपोटिस्म की वजह से बॉलीवुड में ऐसे कलाकार आने लगे तो इस बात में कोई शक नहीं है कि लोग नेपोटिस्म शब्द को भूल जाएंगे.

दुलकर अपने रोल में बेहद सहज नजर आते हैं. उनको देखकर लगता है की अभिनय की बारीकियों को लेकर उनके अंदर काफी ठहराव है. फिल्म के शुरू से लेकर अंत तक दुलकर ने अपने किरदार का ग्राफ कहानी की डिमांड के अनुसार बनाये रखा है. इस बात की बेहद ख़ुशी है की बॉलीवुड को एक शानदार अभिनेता मिल गया है. तान्या के रोल में मिथिला पालकर है और आज के जमाने की एक कॉलेज लड़की की भूमिका को उन्होंने अच्छी तरह से अंजाम दिया है.

कई सीन्स अपनी जिंदगी के दीदार कराएंगे

कारवां में ऐसे कई सीन्स के दीदार आपको होंगे जिनको आप आने वाले दिनों में याद रखेंगे. जब दुलकर कॉलेज के अपने एक पुराने महिला दोस्त से मिलता है और जब वो दोनो मिल कर बातें करते हैं तब लगता है कि यह काफी कुछ खुद की निजी जिंदगी के करीब है.

इरफान खान जब एक शहनाई बजाने वाले बुजुर्ग की पत्नी पर डोरे डालने लगते है ये समझ कर की वो उनकी बेटी है तब वो पूरा सीक्वेंस आपको जबरदस्त तरीके से हंसायेगा. जब दुलकर और मिथिला की लड़ाई एक केमिस्ट शॉप में हो जाती है तब उसको देखकर यही लगता है क्या हम अपनी खुद की जिंदगी में ऐसा नहीं करते हैं. मुझे एक बात को देखकर बेहद ख़ुशी हुई की आकर्ष खुराना की इस फिल्म में बैकग्राउंड म्यूजिक कम ही सुनने को मिलते है और यह भी एक वजह है की इसकी वजह से फिल्म सच्ची लगती है.

यह आने वाले फिल्मों के लिए एक बड़ी सीख होनी चाहिए. नेशनल अवार्ड बटोर चुके अविनाश अरुण इस फिल्म के सिनेमाटोग्राफर है और फिल्म के मूड को उन्होंने बखूबी अपने कैमरे में कैद किया है. बिजॉय नाम्बिआर की कहानी बेहद ही सरल कहानी है आम लोगो के बारे में जिसकी खूबसूरती इसके किरदारों में छुपी हुई है.

आकर्ष खुराना इसके पहले कुथ महीने पहले आई हाईजैक का निर्देशन कर चुके है और जो हाल हाईजैक का बॉक्स ऑफ़िस पर हुआ था उसके बाद वो इस तरह की फिल्म बनाएंगे ये किसी के लिए भी कल्पना से परे थे. लेकिन ये कुछ ऐसा ही हाल है जब आशुतोष गोवारिकर ने बाज़ी के बाद लगान बनाई थी. हांलाकि मैं कारवां की तुलना लगान से कतई नहीं कर रहा हूं. आकर्ष खुराना को देखकर यही नज़र आता है की इस बार उन्होने अपनी स्क्रिप्ट के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं किया था और यही वजह है की वो एक शानदार फिल्म बनाने में सफल रहे है.

कई मापदंड़ों को तोड़ती है ये फिल्म

लगभग दो घंटे की ये फिल्म जब खत्म होती है तब यही दरकार होती है कि काश ये फिल्म कुछ देर तक और देर चलती और इस बयान से पता चल जाता है की ये फिल्म किस कदर से आपके अंदर समा जाती है. ये फिल्म हिंदी फिल्मों के कई स्थापित मानदंडों को तोड़ती है और इस वजह से एक नयापन का एहसास भी होता है.

फिल्म में कही कोई भी ड्रैमेटिक सीन्स नहीं है और जो है भी वो लगते नहीं है क्योंकि उनको देख कर यही लगता है की ऐसी चीज़ें तो हमारी जिंदगी में अक्सर होती रहती है. कारवां की खूबसूरती सिर्फ इसकी कहानी में नहीं है, कारवां की खूबसूरती इसके कलाकारों के मिज़ाज में है, इसकी खूबसूरती इस फिल्म को बनाने वालो में भी है.

अगर आप चाहेंगे कि सिनेमा हाल में आपके दो घंटे व्यर्थ ना जाए तो आप कारवां का रुखकर सकते हैं. इसका रूमानी अंदाज से आप बच नहीं पाएंगे और ये आपको जिंदगी के करीब ले जाएगा.