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FILM REVIEW : उम्मीदों के आसमान से धड़ाम हुई 'बियॉन्ड द क्लाउड्स'

भाषा की वजह से माजिद मजीदी इस बार बियॉन्ड द क्लाउड्स के साथ न्याय नहीं कर सके

Abhishek Srivastava

ईरान के मशहूर फिल्म निर्देशक माजिद मजीदी का रुतबा ईरान में कुछ वैसा ही है जो हिंदुस्तान की फिल्मो में सत्यजीत रे का है. ये सुनकर आश्चर्य होता है कि विश्व के कई फिल्म समारोह में अपनी फिल्मों से लोगों का मन मोह लेने वाले माजिद मजीदी को अभी तक ऑस्कर नसीब क्यों नहीं हुआ है.

जिंदगी की अनगिनत परतों को मजीदी की फिल्में जिस खूबसूरती के साथ परदे पर एक-एक करके अलग करती है वो वाकई में देखने लायक होता है. बियॉन्ड द क्लाउड्स मजिदी की पहली कोशिश है बॉलीवुड में जिसमे उन्होंने एक भाई बहन की कहानी को अपनी फिल्म का केंद्र बिंदु बनाया है जिसकी पृष्ठभूमि है मुंबई की सड़कें और उसके पीछे की गरीबी. भाई बहन अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए पुरजोर कोशिश करते हैं और उनकी यही कोशिश उनको जिंदगी की कई सच्चाइयों से रूबरू कराती है.


मुंबई की गरीबी की कहानी

बियॉन्ड द क्लाउड्स की कहानी आमिर (ईशान खट्टर) के बारे में है जो ड्रग्स के छुटभैया कारोबार में लिप्त है जिसे वो मुंबई की सडकों से चलाता है. उसकी बहन तारा (मालविका मोहनन) जीवन यापन के लिए कई काम करती है और आगे चलकर उसे एक हत्या के आरोप में जेल जाना पडता है.

सच यही है कि बहन अपने भाई को बचाने के चक्कर में जेल चली जाती है. तारा के जेल से बचने का एक ही उपाय है और वो यह है की जिसकी हत्या की कोशिश की गई थी वो पुलिस को यह बयान दे दे की हत्या की कोशिश तारा ने नहीं की थी. आमिर अपनी बहन के इस हाल पर खुद के ऊपर तरस खाता है और दुविधा में है की वो आगे क्या करें.

मजीदी के निर्देशन की धार फीकी है 

मजीदी की यह फिल्म उस हद तक आपका ध्यान नही खींच पाएगी जो उनकी पिछली फिल्मों ने किया था और इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि इस फिल्म का कथानक काफी असमतल है. कहने का आशय यह है कि मुश्किल की घड़ी से तारा और आमिर किस तरह से निकलते हैं वो देखने में अटपटा लगता है. जिस तरह का माहौल फिल्म में दिखाया गया है वो कहीं से भी किरदारों के डायलॉग्स के साथ मेल नहीं खाता है. जो भाषा मुंबई की सडकों की होती है और जो इस फिल्म के किरदार बोलते हैं वो पूरी तरह से बेमेल नजर आते हैं और जिसका असर फिल्म पर पड़ता है.

आश्चर्य होता है यब सुनकर कि फिल्म के डायलॉग विशाल भरद्वाज ने लिखे हैं. यही लगता है कि माहौल के ऊपर कब्जा करने में मजीदी की पकड़ ढीली पड़ गई है. कुछ यही हाल है ए आर रहमान के संगीत का जो पूरी तरह से बेअसर है. फिल्म के कैमरा वर्क की जिम्मेदारी अनिल मेहता को सौंपी गई है जिनका शानदार काम फिल्म में नजर आता है. बल्कि सच तो यह है की सिर्फ उन्हीं का काम फिल्म में थोड़ा बहुत सधा हुआ नजर आता है. मजीदी के निर्देशन की धार इस फिल्म में गायब है. जिस तरह से गरीबी में पले बढ़े बच्चे कानून की पेचीदगी भरी प्रणाली का शिकार बन जाते हैं इसको पर्दे पर उभारने में मजीदी कामयाब नहीं हो पाए है.

ईशान खट्टर का शानदार अभिनय

ईशान खट्टर को देखकर लगता है कि उनके माता पिता के अभिनय का जीन उनके अंदर हैं. उनका काम काफी शानदार है फिल्म मे और उनकी कोशिश काफी ईमानदार नजर आती है.  उनकी यह पहली फिल्म है और कहने की जरुरत नहीं की बॉलीवुड को एक अच्छा अभिनेता मिल गया है. मालविका मोहनन की भी ये पहली फिल्म है लेकिन उनके अंदर अनुभव की कमी नजर आती है लेकिन उनकी कोशिश सराहनीय है. गौतम घोष को देखकर लगता है की वो ओवरएक्टिंग के शिकार हो गए हैं और उनके अस्पताल के सीन्स बेहद ही नाटकीय लगते हैं.

भाषा ने बिगाड़ा फिल्म का खेल

मजीदी की यह कोशिश उनकी पिछली फिल्मों के आसपास भी नहीं टिकती है. इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि इस बार उनकी भाषा बदली हुई है. एक भाषा जिससे अगर आप परिचित नहीं हैं तो वो कई परेशानियों का सबब बनती हैं और बियॉन्ड द क्लाउड्स इसका एक शानदार नमूना है. मजीदी की रिश्तों के ऊपर शानदार पकड़ उनकी हर फिल्म मे नजर आई है लेकिन इस फिल्म में वो बेहद ही मामूली ढंग से दिखाई देता है.

बियॉन्ड द क्लाउड्स की जिस दुनिया के दीदार हमें पर्दे पर होते हैं वो बनावटी नजर आती है. फिल्म में जिस तरह से हिंसा, सेक्स और ड्रग्स के व्यापार को दिखाया गया है उसका ट्रीटमेंट कुछ नया नहीं है और कई फिल्मो में हम उसे पहले भी देख चुके हैं. यह उस मजीद मजीदी की फिल्म नहीं है जो इसके पहले बरन, चिल्ड्रन ऑफ हेवन और द कलर ऑफ पैराडाइस जैसी शानदार फिल्में बना चुके हैं.