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Paltan Review: जेपी दत्ता की 'पलटन' ढाई घंटे तक आपके धैर्य की परीक्षा लेती है

पलटन की कहानी 1967 में हुए नाथू ला हमले पर आधारित है. ऐसी फिल्मों में टेंशन को बनाने की सख़्त आवश्यकता होती है लेकिन जे पी दत्ता सीन्स के बीच उसे डालने में नाकामयाब रहे है

Abhishek Srivastava

सन 1962 में जब भारतीय सेना को युद्ध में चीनी सेना के हाथों पराजय का स्वाद चखना पड़ा था तब उसके ठीक पांच सालों के बाद चीनी सेना ने एक और आक्रमण भारतीय सेना पर किया था. भारतीय सेना के राजपूत बटालियन पर चीनी सैनिकों ने अचानक हमला कर दिया था और उसके पीछे की वजह यही थी की अपनी सीमा के अंदर भारतीय सेना की कटीली बाड़ बनाने की कोशिश उनको पसंद नहीं आयी थी. अचानक हुए हमले से भारतीय सेना शुरू में उनका वार झेलने में नाकाम रही थी लेकिन जैसे जैसे आक्रमण आगे बढ़ा वैसे ही भारतीय सेना के जवानों का जोश भी बढ़ता गया. आलम ये था की हमारी सेना ने चीनियों के हौसले पस्त कर दिए था और अंत में सिक्किम भारत का अभिन्न अंग बना रहा. जे पी दत्ता की पलटन 1967 के उसी नाथू ला हमले की दास्तां को बया करती है. लेकिन अगर फिल्म की बात करे तो पलटन मे कई खामिया है. शायद जे पी दत्ता इस बात को भूल गये है कि जमाना मिलेनियल वालो का है लिहाजा फिल्मों को बनाने का ढंग भी कुछ वैसा ही होना चाहिये. बिना मतलब के मेलोड्रामा, प्रेम प्रसंग, गाने इस फिल्म मे डाले गये है. जे पी दत्ता की इस "छोटी" सी फिल्म जिसकी लंबाई महज लगभग दो घंटे चालीस मिनट की है आपको बोर करती है. इस फिल्म का क्लाइमेक्स मुझे इतना बेतुका लगा जिसको देखकर मुझे खुद पर शर्म आई. फिल्म के आखिर मे जब हर्षवर्धन राने, गुरमीत चौधरी और सोनु सूद के किरदार की मौत हो जाती है तब लव सिन्हा जो की फिल्म मे लेफ्टिनेंट बने है सेना के एक दूसरे जवान के साथ उनकी अस्थिया उनके घर वालो के देने खुद जाते है. घर मे घुसने के पहले उनके यही शब्द होते है कि "हम फलां फलां को लेकर आयें है" - जाहिर सी बात है घरवाले यही सोचेंगे की वाकई मे उनका लाडला घर वापस लौट आया है. अब ये अस्थिया होगी इसके बारे मे कोई कल्पना भी नही कर सकता है. इस सीक्वेंस की बेरहमी से हत्या तब हो जाती है जब लव सिन्हा के चेहरे पर एक रोबोट जैसे भाव नजर आता है.

पलटन की कहानी 1967 के नाथु ला हमले के उपर है


पलटन की कहानी 1967 में हुए नाथू ला हमले पर आधारित है जो हिंदुस्तान और चीन के बीच लाइन ऑफ़ कंट्रोल के पास स्थित है और सिक्किम से गुजरती है. ये भारतीय सेना के राजपूत बटालियन के बारे मे है जिनकी बदौलत चीनी सेना के छक्के छूट गए थे और दुश्मन सेना की सिक्किम को हथियाने की चाल धरी की धरी रह गई थी. फिल्म की कहानी १९६२ से शुरू होती है जब उस साल हुए युद्ध में भारत को चीन से पराजय का सामना करना पड़ा था. मेजर जनरल सगत सिंह (जैकी श्रॉफ) नाथु ला को दुश्मन के हमले से बचाने की कमान लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह के हाथों सौंपते है. पहले और दूसरे विश्व युद्ध के हीरो रह चुके फील्ड मार्शल बर्नार्ड मांटगोमेरी की संगत मे उन्होने अपनी ट्रेनिंग इंग्लैंड मे ली थी. वहां पहुच कर वो मेजर बिशन सिंह (सोनू सूद), मेजर हरभजन सिंह (हर्षवर्धन राने), पृथ्वी डागर (गुरमीत चौधरी) के साथ नाथू ला की सुरक्षा मे लग जाते है. समय के साथ जब चीनी सेना भारतीय सेना को उकसाने लगती है तब बातें बिगड जाती है, जब हिंदुस्तान की सेना खुद की सीमा के अंदर बाड़ लगाने की कोशिश करती है तब चीनी सेना सारी हदे पार कर जाती है जिसका फल उन्हे आगे चलकर भुगतना पडता है.

फिल्म मे अर्जुन रामपाल और हर्षवर्धन राने का शानदार अभिनय

इस फिल्म में जे पी दत्ता ने 1967 में भारतीय सेना की दिलेरी को दिखने के लिए बॉलीवुड के कई कलाकारों की मदद ली है. फिल्म में अर्जुन रामपाल, सोनू सूद, हर्षवर्धन राने, गुरमीत चौधरी, लव सिन्हा और जैकी श्रॉफ जैसे कलाकार है. लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह की भूमिका में अर्जुन और मेजर बिशन सिंह की भूमिका में सोनू सूद कलाकारों की भीड़ में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे है. लव सिन्हा और सिद्धांत कपूर फिल्म मे क्यो है इस बात का पता मुझे अभी तक नही चल पाया है. गुरुमीत चौधरी का लाउड होना फिल्म मे किसी तरह का असर नही छोड़ता है. कलाकारों की इस भीड मे अगर कोई अपनी छाप छोड़ने मे कामयाब रहा है तो वो हर्षवर्धन राने है जिनका अभिनय बेहद सहज है. जैकी श्राॅफ फिल्म मे कुछ समय के लिये ही है लेकिन अपनी मौजूदगी वो पुरी तरह से दर्ज कराते है.

जेपी दत्ता को अब अपने फिल्म मेकिंग के तरीके मे बदलाव लाना पडेगा

ये वही जे पी दत्ता है जिनकी 1997 में रिलीज हुई बार्डर आज तक युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों में भारतीय फिल्म इतिहास की शानदार फिल्मों में इसका नाम शुमार किया जाता है. लेकिन पलटन में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी वजह से आने वाले समय में लोग इसको याद रखेंगे. पलटन बेहद ही औसत दर्जे की फिल्म में जिसमे ढेरों खामिया है और कई चीज़ो को बड़े ही सतही लेवल पर फिल्माया गया है. हिंदी चीनी भाई भाई चिल्लाने के अलावा फिल्म मे चीनी अभिनेताओ की कास्टिंग पर भी किसी तरह की कोई मेहनत नहीं की गई है. सही मायनों में वो फिल्म के विलन है और एक अच्छी फिल्म में हीरो और विलन का ओहदा फिल्म के क्लाइमेक्स तक बराबर का रहता है. इस बात को समझने में जे पी साहब से चूक हो गई है. जे पी दत्ता की फिल्में अब कितनी प्रेडिक्टबल हो गई है पलटन इसका शानदार उदाहरण है. जब फ्रंट पर सेना कूच करती है तब एक गाना है, युद्ध शुरु होने के पहले की रात की सीक्वेंस के दौरान एक गाना है और जब युद्ध खत्म हो जाता है और इसकी विभीषिका जब नजर आती है तब एक गाना है. हर किरदार की प्रेम कहानी को बयां करके जे पी दत्ता क्या कहना चाहते थे ये समझ से परे है. और हर डायलॉग मे भारतीय सेना का महिमामंडन करने की क्या जरुरत थी. इससे घटना की अहमियत खत्म हो जाती है. फिल्म के आखिर मे क्या होने वाला है ये सभी को पता है. इन सभी को अलग करके जेपी दत्ता पौने दो घंटे की एक शानदार फिल्म बना सकते थे जिसका असर कुछ और होता.

ये फिल्म रोमांच पैदा नही करती है

ऐसी फिल्मों में टेंशन को बनाने की सख़्त आवश्यकता होती है लेकिन जे पी दत्ता सीन्स के बीच उसे डालने में नाकामयाब रहे है. जे पी साहब को अब इस बात का इल्म हो जाना चाहिए की जो चीज़े दो दशक पहले काम करती थी अब उन चीज़ो में भरी अंतर आ गया है. इस फिल्म का स्क्रीनप्ले उनकी ही कलम से निकला है लेकिन ये कही से भी रोमांचित नहीं करता है. कुछ स्पार्क्स जरूर निकलते है जो की फिल्म के आखिर में दिखाई देता है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. ये फिल्म जनता के अंदर के इमोशन को भी बाहर निकालने में कामयाब नहीं हो पाई है और इसका असर पूरे फिल्म पर पड़ता है. पलटन आपके धैर्य की परीक्षा लेती है और अंत सुखद नही होता है.