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Film Review: मंटो की कहानी जल्दबाजी में कही गई है लेकिन नवाज का शानदार अभिनय इसको बचा लेता है

फिल्म में ड्रामा की कमी है और फिल्म के महत्वपूर्ण सीन्स आकर चले जाते है, नवाज़ुद्दीन का फिल्म में बेहद ही शानदार अभिनय

Abhishek Srivastava

मंटो की कहानी उस दौरान की है जब सआदत हसन मंटो बम्बई के बाशिंदे हुआ करते थे और बम्बई की फिल्म इंडस्ट्री में कहानियां लिख कर अपना गुजारा करते थे. ये वो भी वक्त था जब वो अपनी जिंदगी के सबसे खुशनुमा पल गुजार रहे थे. लेकिन विभाजन की वजह से जब उनको पाकिस्तान का रुख करना पड़ा तब वो अपने प्रिय बम्बई से बिछड़ने की यातना को सह नहीं सके. अपनी धारदार लेखन जिसने समाज को एक आईना दिखाया उनके गले की हड्डी बन गई थी. उसकी वजह से उनको अदालत में हाजरी देनी पड़ी और अपनी बेगुनाही का सबूत भी खुद रखना पड़ा. बम्बई से दूरी और समाज का पाखंड उनसे लिया नहीं गया और महज 42 साल की उम्र में शराब उनको निगल गई. नंदिता दास की मंटो, मंटो के आखिरी पांच साल को कई जगहों पर जीवंत तो करती है लेकिन कुछ जगहों पर मात खा जाती है.

मंटो की कहानी मंटो के जीवन के आखिरी पांच साल के बारे में है


मंटो, मंटो (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) के जीवन के आखिरी के पांच साल की कहानी है जब वो बम्बई के फिल्म जगत के एक अहम हिस्सा हुआ करते थे. उनका उठना बैठना, फिल्म जगत के दिग्गज मसलन के आसिफ, अशोक कुमार, श्याम, नौशाद और नरगिस की मां जद्दन बाई के साथ हुआ करता था. लेकिन इन सभी के बीच उनकी अभिनेता श्याम चड्ढा (ताहिर राज भसीन) के साथ गाढ़ी दोस्ती थी. देश स्वाधीन होने के कुछ समय के बाद जब विभाजन की चपेट में आ गया तब उसकी आंच मंटो ने भी महसूस की. अपने दोस्त श्याम की एक साम्प्रदायिक टिप्पणी के बाद उन्होंने पाकिस्तान रुख करने का मन बना लिया. लेकिन लाहौर पहुंच कर भी वो अपने आपको बम्बई से अलग नहीं कर पाए. अपनों से दूरी, विभाजन का दर्द और समाज के पाखंड ने उनको अंदर से खोखला कर दिया था. रही सही कसर अदालती कार्रवाइयों ने पूरी कर दी जब उनके ऊपर समाज को भड़काने और अपनी कहानियो में पोर्न लिखने का इलजाम लगा. महज 42 साल की उम्र में उनकी जिंदगी शराब की भेंट चढ गई.

नवाज़ुद्दीन का फिल्म में बेहद ही शानदार अभिनय

नंदिता दास की मंटो को अगर देखने में मजा आता है तो उसकी सबसे बडी वजह है नवाजुद्दीन सिद्दीकी जिन्होंने इस किरदार को जीवंत करने के लिए अपना सब कुछ लगा दिया है. मंटो निजी जिंदगी में बेहद मजाकिया थे और मूड स्विंग से दो चार होना उनके लिए आम बात थी. इन सभी चीजों को नवाज ने अपने किरदार में बेहद ही शानदार तरीके से ढाला है. रसिका दुग्गल फिल्म में मंटो की पत्नी साफिया की भूमिका में है. अभिनय की दृष्टि से उनका काम सटीक है लेकिन स्क्रीनप्ले में उनके किरदार पर ज्यादा मेहनत नहीं की गई है. श्याम की भूमिका में ताहिर राज भसीन का काम साधा हुआ है. इन सभी के अलावा ऋषि कपूर, जावेद अख्तर, नीरज काबी, परेश रावल, रणवीर शोरी और दिव्या दत्त भी छोटी भूमिकाओं में नजर आते है.

फिल्म में ड्रामा की कमी है और फिल्म के महत्वपूर्ण सीन्स आकर चले जाते है

एक सधी हुई फिल्म होने के बावजूद मंटो का अनुभव काफी हद तक अधपका लगता है. इस फिल्म कई सींस मे कंफ्रटेशन की कमी नजर आती है. जब अपने दोस्त श्याम के कमेंट के बाद मंटो पाकिस्तान जाने का निश्चय करते है तब उसमे ड्रामा की कमी नजर आती है. ये फिल्म का एक बड़ा हाई लाइट है जो आकर निकल जाता है और उसका पता भी नहीं चल पाता है. मंटो के लिखने का प्रोसेस क्या था और ये कहा से आया था इसको दिखने में नंदिता कामयाब नहीं हो पाई है. नंदिता ने मंटो का जो चित्र अपनी फिल्म के माध्यम से बनाया है वो पूरी तरह से बन नहीं पाया है. उसमे उनको और रंग डालने चाहिए थे. लेकिन नंदिता दास के निर्देशन की धार इस फिल्म में कई जगहों पर नजर आती है. मंटो की कलम से जो कहानियां निकली थी वो कही ना कही उनके अनुभव को ही दर्शाती थी लिहाजा उनकी मशहूर कहानियां मसलन खोल दो, ठंडा गोश्त और तोबा तक सिंह को जिस तरह से फिल्म के नरेशन में पिरोया गया है वो बेहद ही सराहनीय है. मंटो एक ऐसी फिल्म है जिसको देखने के बाद आप शायद खुद ये यही कहेंगे की अगर मंटो के बारे मे कुछ और देखने के मिलता तो मजा आता क्योंकि एक पीरियड बायोपिक फिल्म महज आर्ट डायरेक्शन नही होता है.