view all

दोबारा-सी योर इविल फिल्म रिव्यू: डराने में नाकाम रही ये हॉरर फिल्म

'दोबारा' फिल्म को हॉरर कैटेगरी में रखना इस फिल्म की मार्केटिंग टीम की सबसे बड़ी भूल थी

Abhishek Srivastava

प्रवाल रमन की फिल्म 'दोबारा: सी योर इविल' हॉलीवुड की चर्चित फिल्म 'ऑक्युलस' की रिमेक है. दोबारा के प्रमोशन के दौरान ऑक्युलस के बारे में बार-बार यही कहा गया था कि यह फिल्म हॉलीवुड की पिछली कुछ सालों में सबसे डरावनी फिल्म है.

दोबारा देखने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ की दोबारा को हॉरर कैटेगरी में रखना इस फिल्म की मार्केटिंग टीम की सबसे बड़ी भूल थी. इसकी वजह बिल्कुल साफ है, आपके रोंगटे किसी भी सीन में खड़े नहीं होंगे, एक भी ऐसा मौका आपको नहीं मिलेगा जब आप अपनी आंखों को फिल्म के दौरान बंद करेंगे और हां रात में सोते वक्त आपको डर नहीं लगेगा. दोबारा के बारे में यही कहना उचित होगा की उंची दुकान, फीका पकवान.


प्रवाल रमन को सिने प्रेमी उनके क्वालिटी हॉरर फिल्में -'डरना मना है' और '404: एरर नाट फाउंड' के लिए आज भी याद करते हैं लेकिन इस फिल्म में वो मात खा गए हैं. दरअसल ये फिल्म डराने से ज्यादा दिमाग के साथ खेल खेलती है. अलबत्ता ये भी कहना ठीक होगा की इस दिमागी खेल में भी कुछ ज्यादा मजा नहीं आता है.

दोबारा की कहानी विक्टोरियन युग के एक आईने की है जिसकी वजह से कई जानें अब तक जा चुकी है. आज के परिवेश में इस आईने का साया पड़ता है आदिल हुसैन (फिल्म में एलेक्स मर्चंट) के परिवार पर जिसके बाद अनहोनियों का सिलसिला शुरू हो जाता है. फिल्म की कहानी का फॉर्मेट नॉन-लिनियर है जिसका मतलब ये है कि कहानी आगे पीछे का सफर तय करती रहती है.

कहानी में डर के बदले थ्रिल है

फिल्म में हुमा कुरैशी और साक़िब सलीम ने अपनी निजी रिश्ते को फिल्म में जिया है. यानि की फिल्म में ये दोनों भाई बहन के रूप में नजर आए हैं. बचपन में अपने पिता आदिल हुसैन की हत्या के आरोप मे साक़िब को चाईल्ड करेक्शनल सेंटर जाना पड़ता है. ठीक होने के बाद जब वो वापस आते हैं तब उसकी बहन हुमा कुरैशी ( फिल्म मे नताशा मर्चेंट ) बताती है कि सारी परेशानियों की जड़ उस आईने को उसने ढूंढ निकाला है. हुमा उसे यह भी बताती है कि आईने को नेस्तनाबूद करने की योजना उसने बना ली है. उसके बाद की कहानी भय के बदले थ्रिल की है.

प्रवाल रमन ने फिल्म की सेटिंग लंदन में रखी है और इसके पहले फिल्म के प्रमोशनल फेज के दौरान उन्होंने मुझे बताया था कि ऐसा करने के पीछे वजह यही थी कि वो एक हिंदुस्तानी परिवार को लंदन में दिखा कर उसे और भी आईसोलेट करना चाहते थे. प्रवाल की सोच भले ही ठीक रही हो लेकिन ये कहीं पर काम नहीं करता है.

डर तो नहीं लेकिन फिल्म के सीन्स बेहतरीन हैं

यहां पर अगर मैं रामगोपाल वर्मा की दो पुरानी फिल्में रात और भूत की बात करूं तो उन्होंने महज तीन चीजों का सहारा लेकर लोगों को डरा दिया था. चेहरों के हाव-भाव, कैमरा वर्क और बैकग्राउंड  म्यूजिक.

फिल्म देखने के बाद लगता है कि प्रवाल, रामू से ये तीन चीजें सीखना भूल गए थे. लेकिन फिल्म के कुछ सींस बेहतरीन बन पड़े है, मसलन की जब साक़िब को लगता है कि वो हुमा से बात कर रहे हैं लेकिन हुमा वहां नहीं होती है या फिर जब हुमा एक सेब के बदले मे बल्ब खा जाती है. लेकिन इन गिने चुने मौकों के अलावा फिल्म में और कुछ खास नहीं है.

हॉरर फिल्मों का माहौल थोड़ा इंटेंस होता है और फिल्म में एक टेंशन को बनाना बेहद जरूरी होती है लेकिन दोबारा में ये दोनों चीजें गायब है. कहानी को नॉन-लिनियर फॉर्मेट में रखने का भी इसके ऊपर असर पड़ा है. टेंशन को बनाने का समय निर्देशक को नहीं मिल पाया है.

आदिल हुसैन अपने अभिनय से निराश करते हैं 

अगर अभिनय की बात की जाए तो फिल्म में सबसे ज्यादा किसी ने निराश किया है तो वो है आदिल हुसैन. मुझे उनसे ढेरों उम्मीदें थी लेकिन फिल्म में उनके परफॉर्मेंस में वो बात नहीं नजर आई जिसके लिए वो जाने जाते है. स्क्रिप्ट का ढीलापन और लचर डायलॉग इसकी एक वजह हो सकती है और फिल्म में उनको अपने डायलॉग में अंग्रेजी ऐक्सेंट रखने की क्या जरूरत थी.

हुमा कुरैशी के लिए ये एक दमदार रोल हो सकता था लेकिन इस शानदार मौके को उन्होंने गंवा दिया है. जरा याद कीजिए फिल्म 'भूत' में उर्मिला के चेहरे के हाव भाव जब उनका भूत से पाला पड़ता है. साक़िब का अभिनय भी औसत दर्जे की ही कहा जाएगा.

हिंदुस्तान में हॉरर फिल्म मेकर्स को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि जैसे लोगों को हंसाने में मशक्कत लगती है कुछ वैसा ही हाल डराने में भी होता है. बल्कि मैं तो ये कहूंगा कि डराना, हंसाने से ज्यादा मुश्किल है. शायद यही वजह है कि हिंदुस्तान में सिनेमा के सौ साल पूरे होने के बाद भी इस देश में हॉरर और कॉमेडी फिल्मों की संख्या गिनी चुनी ही है. हॉरर फिल्म बनाना पहाड़ चढ़ने सरीखा है. जहां पर गलती की कोई गुंजाइश नहीं होती है.

प्रवाल रमन ने इस फिल्म में अपनी पूरी मेहनत झोंक दी है और ये नजर भी आता है लेकिन शायद हिंदुस्तानी परिवेश और मानसिकता को अगर वो ध्यान में रखते तो आलम कुछ और हो सकता था.