एक नई फिल्म के साथ तनुजा चंद्रा की वापसी हुई है. इस बार उनकी फिल्म में इरफान हैं. फिल्म-निर्माता ने हमसे अपनी फिल्म के बारे में बात की, यह भी बताया कि एक महिला फिल्म डायरेक्टर के रुप में उनका सफर कैसा रहा है अबतक. कुछ बातें संजय दत्त और अक्षय कुमार को लेकर फिल्म बनाने के बारे में भी हुईं. यहां पेश है उस बातचीत के अंश:
फिल्म डायरेक्टर के रुप में आपकी वापसी एक लंबे अंतराल के बाद हुई है, क्या इसकी कोई खास वजह रही ? क्या फिल्म बनाने से आपका मोहभंग हो गया था, या फिल्म बनाने के लिए कोई अच्छी स्क्रिप्ट अथवा प्रोड्यूसर नहीं मिल रहा था ?
जिंदगी में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं लेकिन इसके बावजूद मेरा मोहभंग कभी ना हुआ.! मैं चूंकि खुद के लिखे स्क्रिप्ट पर काम करती हूं तो स्क्रिप्ट-लेस (पटकथा-विहीन) होने जैसे परेशानी कभी नहीं रही मेरे साथ. दरअसल, इन बीते दिनों मैं पटकथाओं पर काम कर रही थी और उनमें से कुछ प्रोड्क्शन की राह पर भी थे लेकिन कई वजहों से फिल्म के रुप में पर्दे पर ना आ सके. गजल मेरी को-राइटर(सह-लेखिका) हैं और बीते तीन साल से मैं ‘करीब-करीब सिंगल’ की स्क्रिप्ट पर उनके साथ काम कर रही थी और सौभाग्य से यह स्क्रिप्ट फिल्म के रुप मे तब्दील हो रही है!
‘करीब करीब सिंगल’ के साथ आपकी मां कामना चंद्रा की भी राइटर के रुप में वापसी हो रही है ? पहले कहानी लिखी गई या फिर इरफान के साथ काम करने का प्लान पहले बना ?
पहले हमेशा कहानी बनती है. मेरी मां ने तकरीबन बीस बरस पहले एक रेडियो-प्ले लिखा था. यह प्यारी सी कहानी मेरे जेहन में कहीं बसी रह गई थी और जब मैं कहानी के आयडिया के लिए मन ही मन उधेड़-बुन कर रही थी तो तो मैंने फैसला किया कि यह(रेडियो-प्ले) मजेदार होगा, एकदम देसी एडवेंचर किस्म की फिल्म जो आज के चलन के हिसाब से भी माफिक बैठेगी और वास्तविक भी लगेगी, जो लीक से अलग हटकर भी जान पड़ेगी और मनोरंजक भी होगी.
तो गजल और मैंने इस छोटे से रेडियो-प्ले को स्क्रीन-प्ले में बदलना शुरु किया. चूंकि मेरा नाता आज के हिन्दुस्तान से है तो हमने आज के सामाजिक परिवेश के हिसाब से इस कहानी को गढ़ा और जब स्क्रीनप्ले लिख लिया गया तो मैंने इरफान से संपर्क किया. इरफान से संपर्क करने की एक वजह यह भी रही कि वो योगी की भूमिका के लिए एकदम परफेक्ट जान पड़े मुझे.
आपने कुछ टॉप एक्टर्स जैसे संजय दत्त, काजोल, अक्षय कुमार और प्रीति जिन्टा के साथ काम किया है. आज आप इरफान के साथ काम कर रही हैं. क्या फिल्म चल पाए इसके लिए हमेशा उसमें किसी ना किसी स्टार को रखना जरुरी होता है?
इसका एक सीधा-सीधा गणित है. अगर आपने अपनी फिल्म में कोई स्टार नहीं रखा तो फिल्म के बजट छोटा होगा, इसपर आपका नियंत्रण रहेगा. या फिर, फिल्म का सब्जेक्ट और ट्रीटमेंट एकदम ब्लॉकबस्टर टाइप होना चाहिए. अगर कोई सच्चाई के करीब जान पड़ती, ढर्रे से अलग दिखने वाली फिल्म बना रहा है तो बजट अमूमन कम हो जाता है और आपको शुरु से ही इस बात को ध्यान में रखना होता है. स्टार्स की मौजूदगी से प्रॉडक्शन में तनिक बारीकी आ जाती है,आला-दर्जे के टेक्नीशियन जुटाने होते हैं और फिर फिल्म की रिलीज के वक्त मीडिया की भीड़ के बीच आप लोगों की नजरों में होते है.
बहरहाल, साल दर साल ऐसी चौंकाऊ फिल्में आ रही हैं जिनमें स्टार्स नहीं हैं और वो अच्छा कर रही हैं क्योंकि उनका बजट छोटा है और विषय चमकदार. मैंने ऐसी फिल्मों की प्रशंसा की है क्योंकि इन फिल्मों ने हदबंदी तोड़ी है. तो बात ये है कि फिल्म में जाने-माने स्टार्स हों तो प्रोजेक्ट को पंख लग जाते हैं लेकिन फिल्म के ऐसे भी प्रोजेक्ट नियमित अंतराल पर आते रहे हैं जिनमें कोई जाना-माना स्टार नहीं है और फिल्म लोगों की दिल में घर कर जाती है. बेशक ऐसी फिल्में कम बनी हैं लेकिन मुझे उम्मीद है, इनकी तादाद बढ़ेगी.
और फिर इस गणित का एक दूसरा पहलू भी है कि फिल्म का बजट जितना बड़ा होगा वह बॉक्स ऑफिस पर उतनी ही ज्यादा बड़ी कमाई करेगी. और मुझे लगता है कि यह गणित बाकी किसी बात से ज्यादा आपके अपने स्क्रिप्ट पर काम करने से जुड़ा है.
क्या आप अपने ब्रदर-इन-लॉ विधु विनोद चोपड़ा से पेशेवर सलाह लेती हैं ?
हां, वे एक लंबे अरसे से फिल्म बना रहे हैं और उनका कद बढ़ता गया है. उनका दिमाग खूब तेज चलता है और सिनेमा को लेकर उनके भीतर एक जुनून सा है या इतने साल बीत जाने के बाद भी यह जुनून जरा भी कम नहीं हुआ है. फिल्म को लेकर उनकी निष्ठा सबसे ज्यादा है. इसलिए हां, उनका अनुभव से मदद मिली है.
मौका मिले तो क्या आप संजय दत्त या फिर अक्षय कुमार जैसे सुपर स्टार्स के साथ काम करना चाहेंगी जिनके साथ आपने बीते समय में काम किया है ?
मुझे उनके साथ काम करना अच्छा लगेगा. इसके पीछे एक वजह यह भी है कि बीते वक्त की फिल्मों में उनके साथ काम करने का मेरा अनुभव बहुत अच्छा रहा. इसमें तो कोई शक ही नहीं कि एक स्टार के रुप में उनकी मौजूदगी फिल्म में अलग से याद रह जाने वाली बात है लेकिन मैं यह भी सोचती हूं कि उनके साथ मैंने जो फिल्में बनायी हैं उनमें मैंने उनके अभिनय का एक अलग पहलू डाला है, उनसे मैंने कुछ अलग दिखता काम लिया है. सो, इस कारण भी मैं उनके साथ फिर से काम करना चाहती हूं. दोनों के साथ काम करना सचमुच बहुत खुशगवार रहा.
जब आप फिल्म नहीं बना रही थीं तो उन दिनों क्या कर रही थीं ?
मेरा फिल्म बनाना हमेशा जारी रहता है क्योंकि डायरेक्टर का काम सिर्फ ‘एक्शन’ और ‘कट’ कहना भर नहीं होता. और भी ढेर सारे काम होते हैं, सबसे अहम काम तो स्क्रिप्ट को तैयार करना होता है और इसमें बहुत वक्त लगता है, बहुत सारे सुधार-बदलाव करने होते हैं और यह बहुत मुश्किल काम होता है, बिल्कुल आपका दम उखड़ जाता है! तो समझिए, मैं लिखने का काम कर रही थी.
करीब करीब सिंगल का प्रोमो
इस दौरान मैंने अपनी पहली किताब पर भी काम किया. यह यूपी केंद्रित लघुकथाओं की किताब है और इस साल कुछ दिनों पहले पेंग्विन से इसका प्रकाशन हुआ है. इस किताब के पहले ही मैं एक उपन्यास पर काम करना शुरु कर चुकी थी और इसकी कथा से जूझ रही हूं. उम्मीद है, उपन्यास अगले साल पूरा हो जायेगा. सिलवट नाम से एक छोटी फिल्म भी मैंने बनायी. इसमें कार्तिक आर्यन हैं. यह मेरे फिल्मी सफर के सबसे बेशकीमती अनुभवों में शामिल है और मुझे उम्मीद है कि फिल्म बहुत जल्दी ही पर्दे पर दिखायी देगी.
आपने बिजनेस वुमन नाम से एक किताब लिखी है जो यूपी के गांवों की महिलाओं की कहानियों के आधार पर लिखी गई है. क्या इस किताब में फिल्म बन पाने की तासीर है ?
लघुकथाओं के सहारे पूरी पटकथा तैयार करना बहुत मुश्किल होता है. सो यह कहना ठीक होगा कि किताब की कहानियों पर एक छोटी-सी सीरिज करना ज्यादा अच्छा है. हां, किताब की कुछ कहानियों में ऐसी संभावना है कि उन्हें बड़ा किया जा सके. ऐसी कहानियों के मुख्य किरदार बड़े दमदार हैं, तो ऐसा भी नहीं है कि किताब की कहानियों पर फिल्म नहीं तैयार हो सकती!
‘सिलवट का क्या हुआ जो ‘जील फॉर यूनिटी’ प्रोजेक्ट का हिस्सा थी. क्या हम कभी इसे पर्दे पर देख पायेंगे?
फिल्म बन गई तो फिर समझिए कि वह डायरेक्टर के हाथ से निकल गई. लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि दर्शक ‘सिलवट’ को देख पायेंगे क्योंकि यह एक ऐसी फिल्म है जिसपर मुझे गर्व है.
क्या महिला होने के नाते आपके आगे कोई परेशानी आई ?
मैंने जब फिल्म बनाना शुरु किया था उसकी तुलना में अब कहीं ज्यादा महिलाएं फिल्म-डायरेक्शन का काम संभाल रही हैं और यह बड़े राहत की बात है लेकिन अब भी महिलाओं की तादाद कम है. मैं तो उस दिन के इंतजार में हूं जब फिल्म डायरेक्शन के क्षेत्र में जितने लोग हैं उनमें आधी तादाद महिलाओं की होगी! जेंडर का मुद्दा तो जीवन के हर पहलू में हैं. यह सवाल राष्ट्रों के स्तर पर है, काम की जगहों पर दिखता है, निजी रिश्तों में इसकी मौजूदगी है, तो यह हर कहीं है.
फिल्म निर्माण के किसी भी पक्ष की बात हो, महिलाएं चाहे लिखना चाहें, डायरेक्ट करना चाहें या फिर टेक्नीशियन बनना चाहें, उन्हें पूरी जिद के साथ अपने काम में लगे रहना चाहिए, उन्हें काम छोड़ना नहीं चाहिए. यह नहीं सोचना चाहिए कि जब माकूल मौका आयेगा तो काम करेंगे.
महिलाएं मेहनती, बारीकियों पर नजर रखने वाली, तेज और बहुत जानकार होती हैं. उनमें ईमानदारी और टिके रहने का गुण होता है. सीधे शब्दों में कहें तो वे फिल्म व्यवसाय की जरुरतों के लिहाज से एकदम माफिक हैं और उन्हें आगे बढ़ते रहना चाहिए. बेशक धारा सदियों से खिलाफ बह रही है और इस खिलाफ बहती धारा से जूझना है लेकिन जैसा कि मैंने कहा, महिलाएं मजबूत होती हैं, उनमें खिलाफ जाती चीजों से टकराने का माद्दा होता है.
दो तरह की महिला डायरेक्टर देखने को मिली हैं फिल्म के डायरेक्शन के क्षेत्र में. पहले के वक्त में एक तो सई परांजपे और अब फराह खान. आप अपने को इनमें से किस तरफ देखती हैं ?
ना, दो तरह की श्रेणी बनाने की जरुरत नहीं है. हर तरह की श्रेणी बननी चाहिए. यह भी महिलाओं के डायरेक्शन से जुड़ी एक दिलचस्प बात है—महिला डायरेक्टरों ने बहुत तरह की कहानियां कही हैं और उनके डायरेक्शन में कई किस्म की आवाजों की गूंज है. और, ऐसा ही होना भी चाहिए. महिलाएं कहानी कह रही है—महिलाओं के बारे में कहानियां आ रही हैं—यह कहानी का एकदम ही नया इलाका है. अब भी इस इलाके में बहुत कुछ किया जाना शेष है. शायद डायरेक्टरों में जब आधी तादाद महिलाओं की होगी तो कहानियों में दोहराव आयेगा. लेकिन, अभी तो ऐसा नहीं होने जा रहा !