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दंगल, सुल्तान, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स: बॉलीवुड में हरियाणा की छोरियों का जलवा

छोरियां छोरों से कम नहीं, यह बात इन सभी फिल्मों में है जो देशभर में गूंज रही है.

Karishma Upadhyay

महिलाओं से जुड़े मसलों के बारे में हरियाणा की पहचान कुछ खास अच्छी नहीं है. देश का सबसे खराब महिला-पुरुष अनुपात इस राज्य में है, खाप पंचायतों और ऑनर किलिंग के नाम पर भी हरियाणा का नाम सबसे पहले जुबान पर आता है, महिला साक्षरता दर का भी हाल बुरा है.

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार साल 2015 में सबसे ज्यादा सामूहिक बलात्कार के मामले (प्रति एक लाख महिलाओं पर हुए) हरियाणा में ही दर्ज हुए थे. पितृसत्ता और सामंती व्यवस्थाओं से चल रहा एक राज्य, जहां समाज में महिलाओं की कोई भागीदारी नहीं है,हरियाणा की यही छवि आम जनमानस में बस चुकी है.


वैसे हरियाणा कोई अकेला राज्य नहीं हैं जहां महिलाओं कि स्थिति खराब है..पर कई कोशिशों के बावजूद ये राज्य इस छवि को तोड़ पाने में नाकाम ही रहा है.

बॉलीवुड कुछ और कह रहा है

लेकिन बॉलीवुड को इससे फर्क नहीं पड़ता. पिछले कुछ बरसों में बॉलीवुड ने हरियाणा की इस प्रचलित ‘महिला-विरोधी’ छवि को तोड़ने के लिए कई प्रयास किए हैं. 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' की दत्तो, 'सुल्तान' की आरफ़ा से लेकर हालिया रिलीज 'दंगल' की गीता-बबिता ने बड़े परदे पर अपना सिक्का जमाया है.

पिछले साल 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' के निर्देशक आनंद एल. राय ने फिल्म की हरियाणवी लड़की दत्तो के सशक्त किरदार के बारे में बात करते हुए मुझसे कहा था, ‘हमारा हरियाणवी लड़कियों के बारे में नजरिया बिलकुल अलग है. ये लड़कियां बहुत स्ट्रॉन्ग हैं. आने वाले 5-7 सालों में ये पूरी दुनिया में अपना नाम कमाएंगी. ये उतनी ही समझदार और महत्वाकांक्षी हैं, जितनी मुंबई में पली-बढ़ी मेरी भतीजी.’

फिल्म में कंगना रनौत द्वारा निभाया गया दत्तो का यह किरदार हॉकी स्टिक और कराटे में भी उतना ही कुशल है जितना चूल्हे पर चाय बनाने में. स्टेट लेवल की एथलीट दत्तो किसी भी छोटे शहर की आम लड़की है, जो समाज के थोपे हुए नियम तोड़ते हुए आगे बढ़ने के सपने देखती है.

आनंद कहते हैं, ‘मैं चाहता था कि दत्तो का किरदार ऐसी भारतीय महिला को सामने लाए जो तनु से अलग हो. वो जिम्मेदार है, स्ट्रॉन्ग और कॉन्फिडेंट भी है. जितनी आसानी से वो रसोई में काम करती है, उतनी ही आसानी से वो खेल के मैदान में भी अपना हुनर दिखाती है, और ये उसकी मर्जी है. ये उसका फैसला होगा कि वो अपनी जिंदगी में क्या करना चाहती है.’

हरियाणवी छोरियां स्पोर्ट्स में ही सही लेकिन बढ़ रही हैं

यहां दिलचस्प बात यह है कि पिछले कुछ समय में बड़े परदे पर देखे गए हरियाणा की लड़कियों के यह सभी किरदार खेल से जुड़े हुए हैं. जहां दत्तो लॉन्ग जंप की खिलाड़ी है तो आरफ़ा और फोगट बहनें कुश्ती की चैंपियन हैं.

हालांकि कुछ लोगों का यह मानना है कि फिल्म 'सुल्तान' में आरफ़ा के किरदार को रुढ़िवादी तरीके से दिखाया गया है (जब आरफ़ा अपने बच्चे के लिए अपना कुश्ती करियर छोड़ देती है) पर मैं इस बात से बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखती. मुझे नहीं लगता कि यह रुढ़िवादी था. फिल्म में कहीं भी, कोई आरफ़ा को नहीं बताता कि उसे अपने करियर के साथ क्या करना है या अपनी जिंदगी में क्या फैसला लेना है. ये सभी फैसले उसके अपने हैं.

अनुपमा चोपड़ा के साथ एक इंटरव्यू में अनुष्का शर्मा ने अपने किरदार के इस फैसले पर बचाव करते हुए कहा था, ‘यह उसका फैसला था कि वो एबॉर्शन नहीं करवाएगी. क्या उसे अपने बच्चे की परवाह किए बगैर सिर्फ अपने सपने के बारे में सोचना चाहिए था? क्या हम ऐसा समाज बनाने की तरफ जा रहे हैं जहां किसी औरत के लिए अपने बच्चे को एबॉर्ट करके अपने सपने पूरे करना सही माना जाएगा? यह किसी को सही लग सकता है और किसी को बिल्कुल गलत. तो सही-गलत का यही फैसला लेने की आजादी मिलना एक प्रोग्रेसिव बात है न कि कोई रुढ़िवादी नजरिया.’

दंगल है अगली कोशिश

नितेश तिवारी की 'दंगल' कुश्ती की मशहूर खिलाड़ी फोगट बहनों और उनके पिता महावीर फोगट के बारे में है, जहां एक पिता अपनी बेटियों को देश के लिए मेडल लाने के लिए तैयार करता है. इस साल जब पहले ही 'पिंक' और 'डियर जिंदगी' जैसी फेमिनिस्ट फिल्में आ चुकी हैं, वहां 'दंगल' अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में कामयाब रही है.

फिल्म में महावीर फोगट का किरदार एक ऐसे शख्स का है जिसे बेटा चाहिए जो कुश्ती में देश के लिए गोल्ड मैडल ला सके पर फिर उसे एहसास होता है कि गोल्ड तो गोल्ड होता है, छोरा हो या छोरी. गीता और बबिता को कुश्ती में भेजने का फैसला भले ही महावीर का रहा हो पर चैंपियन वे अपने बलबूते पर बनी हैं.

फिल्म में एक जगह गीता और महावीर कुश्ती के अखाड़े में आमने-सामने होते हैं, यह देखने के लिए कि कौन ज्यादा बड़ा पहलवान है और यकीन कीजिए ये फिल्म के सबसे रोमांचक दृश्यों में से एक है.

छोरियां छोरों से कम नहीं, यह बात इन सभी फिल्मों में है जो देशभर में गूंज रही है. हम उम्मीद करते हैं कि जल्द ही ऐसा समाज बने जहां सिर्फ फिल्मों में ही नहीं असल ज़िंदगी में भी ऐसे ढेरों किरदार देखने को मिलें.