view all

दंगल की खासियत आमिर नहीं, मुख्य किरदार निभा रही उसकी औरतें हैं..

नाटकीयता से अधिक सहजता को दी गई तरजीह से दर्शकों को खूब भा रही है दंगल

Swetha Ramakrishnan

यह 90 के दशक के में मेरा घर दो खेमों में बंट चुका था- एक खेमा शाहरुख खान कैंप और दूसरा आमिर खान का.

मेरे अंकल और मेरी बहन की नजर में शाहरुख ‘एक औसत सा दिखने वाला लड़का था, जो इत्तेफाक से इतना बड़ा स्टार बन गया था’ (हालांकि उनके इन शब्दों पर मुझे खासा एतराज था). वहीं मेरी मां और मुझे आमिर बदमिजाज और दिखावटी लगते. मैं अक्सर उनके बारे में कहती, ‘ये इंसान खुद को जाने क्या समझता है?’ इस पर मेरी बहन का जवाब होता, ‘कम से कम वो एक्टिंग तो कर सकता है’.


आज जब मैं उन झूठी लड़ाइयों के बारे में सोचती हूं तो ताज्जुब होता है. क्योंकि मुझे लगता है कि आमिर की सबसे अच्छी फिल्में 90 के दशक में ही आई थीं. (मेरे हिसाब से सरफरोश, रंगीला और जो जीता वही सिकंदर आमिर के आज तक के बेस्ट परफॉर्मेंस हैं). उस समय के दौरान सेलिब्रिटीज के इतने सारे इंटरव्यू भी नहीं होते थे जिससे उनके बारे में बनी हमारी क्षणिक भावनाएं मजबूत हो सके.

बाद में मेरी मां की पसंद आमिर से सलमान में बदल गयी. उन्हें सलमान एंटरटेनिंग लगने लगे. 3 इडियट्स, तारे जमीन पर और पीके जैसी फिल्मों के बाद आमिर ने अपनी इमेज एक स्वघोषित ‘मसीहा’ जैसी बना ली थी.

तब मुझे उनकी इस खुद पसंदगी से और चिढ़ हो गयी. इसमें कोई शक नहीं है कि तारे जमीन पर एक अच्छी फिल्म थी जिसका मकसद भी अच्छा था, पर आमिर की-  ‘देखो....मैं सब कुछ जानता हूं’ वाली छवि ने मुझे फिर से निराश किया. सच कहूं तो आमिर इस फिल्म की अच्छी स्क्रिप्ट के बावजूद मुझे पसंद नहीं आए.

और फिर आमिर खान ने सबसे बड़ी भूल की...(न... न! मैं उनके असहिष्णुता वाले बयान की बात नहीं कर रही हूं)

दमदार स्क्रिप्ट होना बहुत जरुरी

आमिर खान अपनी पत्नी किरण राव के साथ

'कॉफी विद करन' के चौथे सीजन के एक एपिसोड में आमिर अपनी पत्नी किरण राव के साथ अपनी आने वाली फिल्म धूम 3 के प्रमोशन के लिए आए थे.

इस इंटरव्यू के दौरान उन्होंने वही कहा जो अमूमन वो अपनी हर फिल्म के बारे में कहते आए हैं. मसलन, धूम 3 एक शानदार फिल्म है और उन्होंने इसे इसकी स्क्रिप्ट की वजह से चुना. उन्होंने कहा, ‘मैं समझता हूं कि एक कामयाब फिल्म बनाने के लिए एक दमदार स्क्रिप्ट का होना बहुत जरूरी है.’

मैं भौंचक रह गयी. क्या सचमुच ऐसा था?

मैं काफी उम्मीदों से 'तारे जमीन पर', '3-इडियट्स' और 'पीके' देखने गई थी. सिनेमा हॉल जाकर मुझे बस यही समझ में आया कि आमिर की ‘आत्ममुग्धता’ हर चीज पर हावी है. जैसे कि, वो अपनी फिल्मों को ‘फिल्म विद अ सोशल मेसेज’ या सामाजिक संदेश के लिए बनाई गयी फिल्म कहकर प्रचारित करते है, ये बस उन फिल्मों को कामयाब बनाने का एक फॉर्मूला भर है.

उनकी यह स्क्रिप्ट वाली बात सुनकर मैं सचमुच सोचने पर मजबूर हो गई कि क्या वाकई में धूम-3 एक अच्छी फिल्म होगी, जहां आमिर ने अपना यह ‘मसीहा’ वाला चोला उतार कर फेंक दिया होगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ, मैं बिल्कुल गलत थी. (धूम-3 हॉलीवुड की मशहूर फिल्म ‘द प्रेस्टीज’ की कॉपी थी)

आप अब जरूर सोच रहे होंगे कि आखिर क्यों मैं इस तरह से आमिर खान के बारे में अपनी नापसंदगी जाहिर कर रही हूं? तो कारण है. मैं यह सब इसलिए बता रही हूं क्योंकि मुझे आमिर खान की हालिया रिलीज फिल्म दंगल बहुत पसंद आई है. मुझे खुद भी ताज्जुब हो रहा है. लेकिन इस फिल्म ने मेरे दिल में आमिर के लिए इज्जत पैदा कर दी है.

प्रमोशन का हिस्सा

आमिर खान दंगल फिल्म के अपने को-स्टार्स के साथ

यह बात तो सब मानते हैं कि आमिर अपनी फिल्मों का प्रमोशन काफी पहले से शुरू कर देने के लिए जाने जाते हैं. तो जब उनका ‘फैट टू फिट’ वीडियो सामने आया. तब मुझे यह उसी प्रमोशन का हिस्सा लगा.

वीडियो में दिखाया गया था कि कैसे दंगल फिल्म के लिए आमिर ने एक सामान्य मध्यवर्ग के बड़े तोंद वाले पिता से एक हट्टे-कट्टे पहलवान का लुक पाने के लिए मेहनत की है.

जब मैंने फिल्म देखी तो मुझे यह महसूस हुआ कि फिल्म में आमिर के पहलवान लुक वाले सीन महज 90 सेकंड के हैं. बाकी पूरी फिल्म में उनका लुक औसत अधेड़ आदमी का है.

यानी इस वीडियो में दिखाई गयी इतनी मेहनत बस 90 सेकंड के लिए. उन्होंने सिर्फ 90 सेकंड के लिए इतना पसीना बहाया.

ये सही है कि ये आमिर के पहवान लुक के 90 सेकंड से ज्यादा सीन शूट किए गए होंगे और फिल्म में सिर्फ यही 90 सेकंड शामिल किए गए. फिर भी इस बात पर यकीन कर पाना मुश्किल है कि आमिर ने सिर्फ एक सीन के लिए 40 किलो वजन घटाया.

हम उनकी इस पब्लिसिटी वाली बात को लेकर तो उनकी आलोचना कर सकते हैं. लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि यह कोई आसान बात नहीं है. अगर मैं कभी ऐसी किसी सिचुएशन में होऊं, तो खाना और डाइट तो दूर शायद मैं ऐसे किसी एक सीन के लिए पिज्जा की एक स्लाइस भी न छोड़ूं.

मेरे हिसाब से आमिर के लुक में आया बदलाव पर फिल्म के बारे में सबसे कम आकर्षक चीज है.

इस साल हमने शाहरुख को फैन जैसी फिल्म में आखिरकार ऐसा रोल करते देखा जिसमें टिपिकल हीरो-हीरोइन रोमांस नहीं था. सलमान ने भी सुल्तान में अच्छी परफॉर्मेंस दी (भले वो उनके ‘पुरुषत्व’ और ताकत का ही प्रदर्शन था) और अंत में दंगल फिल्म में आमिर ने भी साबित कर दिया कि कैसे वो फिल्म पर अपनी पकड़ बनाए रख सकते हैं.

अखाड़े में बेटी से मुकाबला

दंगल फिल्म में आमिर का किरदार परंपरावादी से प्रोग्रेसिव की तरफ बढ़ता दिखाया गया है

दंगल में उनका किरदार थोड़ा 'ग्रे' है: एक ऐसा किरदार जिसका चेहरा घर में एक के बाद एक बेटियां पैदा होने पर कठोर होता चला जाता है (महावीर सिंह फोगाट की चार बेटियां हैं). लेकिन जब उसे समझ में आता है कि कुश्ती का संबंध लड़का या लड़की होने से नहीं है, तब वह अपनी बेटियों को सबसे बड़ी मुश्किल शारीरिक और सामाजिक चुनौतियों से लड़ने की सीख देते हुए कुश्ती के लिए तैयार करता है.

एक ऐसा किरदार जो बच्चियों के सिर में जुएं होने पर उनके बाल कटवा देता है और अपनी बात साबित करने के लिए कुश्ती के अखाड़े में अपनी ही बेटी से मुकाबला करता है.

फिल्म देखने के बाद आप धीरे-धीरे यह समझते हैं कि इस किरदार के लिए किस तरह एक अभिनेता इस पूरे सफर में खुद को खोजता और पाता है. पिंक फिल्म के अमिताभ बच्चन से ठीक उलट जिन्होंने फिल्म करने के बाद अपनी पोती और नातिन को ओपन लेटर लिखा था.

शाहरुख खान की 'चक दे इंडिया' हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों में शुमार है. हालांकि इस फिल्म से मुझे जो एकमात्र शिकायत है कि फिल्म में शाहरुख के किरदार को इतना ‘महान’ और ‘पूजनीय’ दिखाया गया था कि मुझे लगने लगा था कि अभी कबीर खान (शाहरुख का किरदार) उठकर आएगा और हॉकी स्टिक पकड़कर फाइनल मैच खेलने लगेगा.

फिल्म में शाहरुख खान टीम के कोच बने हैं, जिनके पास हर मुश्किल का तोड़ मौजूद है, चाहें तो आप उन्हें 'भगवान’ भी कह सकते हैं. वैसे यह फिल्म मनोरंजक थी ( क्योंकि उसमें शाहरुख खान थे) पर ऐसी फिल्म अगर खुद को एक फेमिनिस्ट फिल्म के दर्जे में रखना चाहती हो तो वहां किसी एक मेल किरदार का बाकी सभी किरदारों पर इस तरह से हावी होना अखरता है.

अनुशासन का पाठ पढ़ाया

असल जिंदगी के महावीर फोगाट बेटियां गीता और बबीता के साथ

दंगल में भी गीता फोगाट के गोल्ड जीतने का श्रेय महावीर को दिया गया है. फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे महावीर ने बच्चों के हुनर को निखारा.

बच्चों की नजर में एक अच्छे पिता से ‘हानिकारक बापू’ बनने की कीमत पर भी कड़ाई से बेटियों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया. (महावीर खुद बहुत अनुशासित हैं और एक विलेन सरीखे कोच के होने के बावजूद महावीर के सिखाये गए दांवपेंच की मदद से ही 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स में गीता को कामयाबी मिलती है).

फिल्म देखते समय मुझे लग रहा था कि यहां भी वही दोहराया जाएगा जो चक दे में था. क्योंकि ये ‘मिस्टर परफेक्शनिस्ट’ का मामला था. मुझे लगा कि आमिर की छवि के सामने सब छोटे पड़ जाएंगे पर मैं गलत थी. ऐसा नहीं हुआ.

फिल्म के आखिरी दस मिनट पूरी तरह से गीता फोगाट का किरदार निभा रही फातिमा सना शेख पर केंद्रित है, सिर्फ अभिनय या स्क्रीन टाइम के लिहाज से बल्कि कहानी के प्लॉट के लिहाज से भी.

(खबरदार..आगे फिल्म के स्पॉयलर हैं)

फिल्म के अंत में गीता के एक कोच अपना महत्व साबित करने और महावीर को गलत साबित करने के लिए फाइनल मैच के समय महावीर को कमरे में बंद कर देते हैं. ताकि महावीर गीता को खेल के दौरान निर्देश न दे सकें कि खेल आगे कैसे खेला जाए.

इससे पहले महावीर खेल के दौरान ऑडियंस में बैठकर गीता को बार-बार बताया करते हैं कि कैसे उसे दांव लेना चाहिए. कैसे उसे अपने स्वभाव के अनुसार अटैक करना चाहिए, न कि डिफेंसिव होकर. लेकिन फाइनल मैच में महावीर कमरे में बंद हैं. गीता को जीत के लिए सिर्फ अपनी समझ से खेलना है. और वो जीतती है.. पूरी शान से जीतती हैं.

आमिर जैसे सुपरस्टार के लिए फिल्म के क्लाइमेक्स में न होना बहुत बड़ी बात है. हम सबकी अपनी पसंद है. अपने पसंदीदा स्टार के बारे में हम कई ख्याल भी रखते हैं पर यहां यह तो मानना होगा कि कोई और सुपरस्टार इस जगह होता तो ऐसा होने नहीं देता.

नाटकीयता से ज्यादा सहजता को तरजीह

दंगल महावीर से ज्यादा गीता और बबीता के बारे में है. फिल्म में गीता का सफर है कि कैसे अपने पिता से डरने वाली एक बच्ची नेशनल स्पोर्ट्स एकेडमी से कुश्ती की ट्रेनिंग लेती है और फिर उसी पिता से कुश्ती के अखाड़े में आमने-सामने होती है.

हम देखते हैं कि उसके पिता ने बेटियों को बेटों की तरह पाला है लेकिन फिर उसके अंदर फेमिनिन यानी स्त्रियोचित भावनाएं पनपती हैं (वो किसी की तरफ आकर्षित होती है) और फिल्म इस बात को पूरी सहजता से दिखाती है.

फिल्म यही बताने की कोशिश करती है कि आखिरकार गीता एक लड़की है और ऐसा होना बिल्कुल स्वाभाविक है. हालांकि कहानी के साथ गीता फिर अपने छोटे बालों वाले अनुशासित किरदार में वापस लौटती है. पर यह बात किसी नैतिकता के उपदेश में न बदलकर एक टकराव के बिंदु में बदल जाती है.

फिल्म में नाटकीयता से ज्यादा सहजता को तरजीह दी गयी है.

फिल्म असल जीवन में कुश्ती के कोच महावीर सिंह फोगाट के जीवन पर आधारित है

फिल्म कहीं ये नहीं कहती कि कुश्ती का एक अच्छा खिलाड़ी बनने के लिए गीता को अपनी फेमिनिटी को छोड़ना होगा. बल्कि फिल्म कहती है कि किसी लड़की को अगर कहा गया कि कुश्ती ही उसकी जिंदगी है लेकिन उम्र के साथ उसका कुश्ती से मन हटता है तो यह बिल्कुल सामान्य है.

फिल्म नहीं कहती कि महावीर फोगाट (या यूं कहें कि सुपरस्टार आमिर खान) हमेशा सही होते हैं और सिर्फ उनकी ही तकनीक सही काम करती है.

फिल्म में एक बरसों पुराना खेल है. इस किरदार में उस खेल के प्रति जुनून है, दीवानगी है. चक दे के कबीर खान में भी यही जुनून था और यही जुनून इस फिल्म में भी दिखता है.

यूं तो 2016 बहुत अच्छा साल नहीं रहा है, पर इस साल इस कमाल की फिल्म के बाद आमिर खान को मेरे रूप में एक और फैन तो मिल ही गया है.