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कॉफी विद डी फिल्म रिव्यू: सिनेमा शब्द का अपमान है ये फिल्म

कॉफी विद डी की शक्ल में प्रोड्यूसर ने दर्शकों के सामने कचरे से भरा बोरा परोसा है.

Anna MM Vetticad

अगर आप कोई घटिया फिल्म बनाते हैं और उसे 'कॉफी विद डी' नाम देते हैं तो आपकी फिल्म का रिव्यू भी कुछ वैसा ही होगा. जिसमें आप अक्षरों से खेलने की कोशिश कर रहे हैं.

विशाल मिश्रा की इस फिल्म में अर्नब गोस्वामी जैसे एक किरदार को देश के मोस्ट वॉन्टेड डॉन का इंटरव्यू करने के लिए बेकरार दिखाया गया है. वो हर हाल में डॉन का इंटरव्यू करना चाहता है. ये फिल्म इतनी घटिया है कि इसकी रेटिंग B, C और D के बजाय अगर हम Z करें तो वो भी ज्यादा ही होगी.


रेडियो और टीवी के स्टार सुनील ग्रोवर, जिन्होंने 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' में गुत्थी और 'द कपिल शर्मा शो' में कई किरदार निभाकर शोहरत हासिल की है, ने इस फिल्म में अर्नब घोष का रोल किया है. उनकी आक्रामक पत्रकारिता के चलते उनके बॉस ने उन्हें चैनल के प्राइम टाइम से हटाकर शाम का वो टाइम स्लॉट दिया है जब चैनल पर कुकरी शो जाता है.

ऐसे में अर्नब घोष के पास एक ही रास्ता बचता है कि वो अपने शो में कुछ ऐसा सनसनीखेज काम कर दें जिससे उनकी शोहरत बढ़े और चैनल को भी फायदा हो.

कहानी में आगे क्या होता है, ये बात छोड़ ही दीजिए. 'कॉफी विद डी' फिल्म में एक्टिंग बेहद घटिया है. सेट भद्दे से हैं. फिल्म का प्रोडक्शन भी बहुत खराब है. इसकी एडिटिंग भी बेतुकी है. ऐसा लगता है कि फिल्म की कहानी लिखने वाले को मीडिया के काम की जरा भी समझ नहीं है. ये फिल्म सिनेमा शब्द का अपमान है. इसलिए इसके रिव्यू में ज्यादा वक्त बर्बाद करना मेरे खुद के पेशे से बेईमानी होगी.

तो 'कॉफी विद डी' की रेटिंग के लिए हम D अक्षर से शुरू होने वाले तमाम विशेषणों का इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं.

D से Disastrous यानी विनाशकारी

D से Dismal यानी घटिया

D से Doomed यानी बर्बादी तय

D से Dreadful यानी घृणास्पद

और आखिर में..

D से Dammit यानी बेहद अफसोस की बात है कि मैंने इस फिल्म पर दो घंटे तीन मिनट बर्बाद किए.

'कॉफी विद डी' फिल्म बनाने वाले सोचते हैं कि ये मजाकिया है, ये मीडिया के काम करने के तरीके पर रोशनी डालती है. मगर ये फिल्म इतनी घटिया है कि ये मुंह में घटिया सा स्वाद छोड़ जाती है. इससे बेहतर कहानी तो शायद केजी में पढ़ने वाले बच्चे लिख लेते. और इस फिल्म के बारे में कहने के लिए मैं सिर्फ D अक्षर का इस्तेमाल क्यों करूं? इसके घटियापन को बताने के लिए तो कई और अक्षर इस्तेमाल हो सकते हैं. मसलन...

A से Abhorrent यानी घिनौनी

A से Appaling यानी सदमा देने वाली

A से Atrocious यानी देखने वाले पर जुल्म करने वाली

G से Ghastly यानी बेहद निंदनीय

H से Harrowing यानी बेहद बुरा तजुर्बा देने वाली

H से Heartbreak यानी दिल तोड़ने वाली क्योंकि मेरे पसंदीदा चरित्र कलाकार ने इसमें एक्टिंग की है. इस फिल्म में जाकिर हुसैन ने डॉन का किरदार निभाया है. जिसे फिल्म में सिर्फ D नाम दिया गया है. फिर उसके गुर्गे का रोल निभाने वाले पंकज त्रिपाठी और अर्नब के बॉस के रोल में राजेश शर्मा दिखे हैं.

आखिर क्यों दोस्तो? आखिर क्यों?

ये फिल्म बकवास है. इसे देखना बेहद खराब तजुर्बा है. इसे देखने का मतलब खुद को टॉर्चर करना है. इस फिल्म में 'बॉम्बे' शब्द को म्यूट करना भी तकलीफदेह है. इस फिल्म में रेप और बम धमाकों को जिस तरह से बयां किया गया है वो नाकाबिले बर्दाश्त है. ये फिल्म परिहास की हद से आगे जाकर बेहूदा फिल्म कही जा सकती है. ये शर्मनाक है कि फिल्म डॉन दाऊद के नाम का इस्तेमाल करने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाई. तभी तो इसे 'कॉफी विद डी' नाम दिया गया. इसकी बुराई में जितना कहा जाये उतना कम है.

मैं कहूंगी कि फिल्म देखते वक्त मुझे जरा भी हंसी नहीं आई. देश में हजारों ऐसे काबिल लोग हैं जिन्हें अच्छे मौके नहीं मिल पाते क्योंकि उनके पास सही लोगों से संपर्क का जरिया नहीं होता. उनकी किस्मत अच्छी नहीं होती. उनके पास पैसे नहीं होते कि वो फिल्म बना सकें. ऐसे में एक प्रोड्यूसर कचरे से भरा पूरा बोरा दर्शकों को पेश कर रहा है, ये बात गुस्सा दिलाने वाली है.

'कॉफी विद डी' ने मुझे बहुत गुस्सा दिलाया क्योंकि इस फिल्म को घटिया होने के बावजूद सिनेमाघरों में काफी अहमियत दी गई. जबकि कई छोटी मगर शानदार फिल्मों को सिनेमाहॉल तक नहीं मिलते.

इस नाइंसाफी के लिए इस फिल्म को जितना बुरा-भला कहा जाए कम है.

ये फिल्म नहीं, ये वक्त की बर्बादी है.