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जानते हो मेरा बाप कौन है! बॉलीवुड के विलेन बाप-बेटों की जोड़ी

कलाकारों का टाइपकास्ट होना फिल्म उद्योग की नियति है

Satya Vyas

बांग्ला में एक कहावत कही जाती है. डूबी हुई नाव चटगांव ही उतरती है और भागा हुआ आदमी मुंबई ही पहुंचता है. एक वक्त तक यह बात सच भी थी. फिल्मोद्योग मुंबई (तब बॉम्बे) में स्थापित होने के बाद से अविभाजित भारत के कोने-कोने से लोग यहां पहुंचे और जीविकाएं ढूंढी.

मुंबई कलाकारों के लिए ठौर बना. कलाकार यहां आए और यहीं के होकर रह गए. उद्योग पुराना हुआ. कलाकार भी पुराने हुए और क्योंकि वह इसी उद्योग से परिचित थे इसलिए उनकी अगली पीढ़ी भी यही देखती-परखती बड़ी हुई और आजीविका के लिए इसी पेशे को अपनाती गई.


कलाकारों का टाइपकास्ट होना इस उद्योग की नियति है. इसलिए एक मूक नियम यह भी रहा कि नायक का बेटा नायक और खलनायक का बेटा खलनायक ही बने तो बेहतर. यही कारण रहा कि मोटे तौर पर खलनायकों के बेटे या तो फिल्मों में नहीं आए या फिर दूसरी पीढ़ी भी खलनायक के रूप में ही स्वीकृत की गई.

मुराद और राजा मुराद

मुराद चालीस के दशक के चरित्र अभिनेता थे. महबूब खान की फिल्मों के नियमित सदस्य मुराद ने अपने उर्दू संवादों पर अख्तियार और अदाकारी के चलते चार दशकों तक फिल्मों में काम किया.

भूरी आंखों और कठोर चेहरे वाले मुराद ने परिपक्व उम्र में विलेन वाली भूमिकाएं खूब निभाईं. कठोर पिता और क्रूर जमींदार की भूमिकाओं में उन्होंने न्याय किया. दो बीघा जमीन का ठाकुर भुलाए नहीं भूलता.

रज़ा मुराद

रज़ा मुराद ने बतौर बाल कलाकार फिल्म 'जौहर महमूद इन गोआ' में काम किया था. फिल्मों में उनका औपचारिक प्रवेश 1972 में आई फिल्म 'एक नजर' से हुआ. उन्होंने 'नमक हलाल' जैसी फिल्म में कुछ सकारात्मक भूमिका करने की कोशिश की लेकिन उनकी भी पहचान बतौर खलनायक ही बनी. 450 से ज्यादा फिल्मों में छोटी-बड़ी भूमिकाएं निभाने के साथ वह आज भी फिल्मों में सक्रिय हैं.

सप्रू और तेज सप्रू

सप्रू, डी.के सप्रू या दया किशन सप्रू एक ही अदाकार के नाम है. कश्मीरी मूल के सप्रू साहब ने भी कई नकारात्मक किरदार निभाए. एक ही काल अवधि में सक्रिय होने कारण और लगभग वैसी ही कद-काठी और वैसी ही भूमिकाओं के कारण सप्रू और मुराद में दर्शकों को भ्रम हो जाता था.

तेज सप्रू

तेज सप्रू ने 70 के दशक में आई फ़िल्म 'सुरक्षा' से अपने करियर की शुरुआत की थी. अस्सी और नब्बे के दशक में बेहद सक्रिय रहे तेज सप्रू अब धारावाहिकों में भी नजर आते हैं. तीन या चार खलनायकों वाली एक्शन फिल्मों में तेज सप्रू अमूमन मौजूद रहते थे.

जयंत और अमज़द खान

जयंत उर्फ ज़कारिया खान पश्तो पठान थे. मूलरूप से पेशावर के रहने वाले जयंत ने लगभग हर तरह की चरित्र भूमिकाएं निभाईं लेकिन इनकी भी पहचान दबंग और खल चरित्रों से ही रही.

अमज़द खान

जयंत के बेटे अमज़द खान के बारे में कुछ भी लिखने से अच्छा है कि यह देख लिया जाए.

जीवन और किरण कुमार

अपनी विशेष संवाद अदायगी के कारण जीवन ने बतौर खलनायक अपनी एक अलग ही शैली बनाई. सेठ, साहूकार, स्मगलर और खुराफातिये की भूमिका में उन्होंने अपना मुकाम बनाया. अपने जीवन के अंतिम वर्षो तक वह सक्रिय रहे.

किरण कुमार

खलनायक बाप-बेटे की सूची में यह जोड़ी ही सबसे सफल मानी जा सकती है. शुरुआती कुछ फिल्मों में नायक की भूमिकाएं करने के बाद किरण कुमार लगभग एक दशक तक गायब ही हो गए. अस्सी के मध्य में आई फिल्म 'तेजाब' से उन्होंने 'लोटिया पठान' की जबरदस्त भूमिका के साथ वापसी की. उसके बाद से उन्होंने अब तक कई फिल्मों में दुश्चरित्र निभाए.

जुबिस्को और फ़राज़ खान

70 के दशक के अमिताभी दौर में जुबिस्को उर्फ यूसुफ़ खान ने छोटे-मोटे खलनायकी चरित्र निभाए. अपने पहलवान सरीखे शरीर की वजह से उन्हें वैसे ही रोल मिले और वह कभी मुख्य भूमिकाओं में नहीं आ सके. अमर अकबर एंथनी उनकी यादगार फिल्म है.

फ़राज़ खान

फ़राज़ खान ने बतौर नायक 'फ़रेब' से अपने करियर की शुरुआत की, लेकिव आगे कुछ बेहतर नहीं कर पाए. वह बाद की कुछ फिल्मों में विलेन के रोल करने लगे. मेंहदी और सुरक्षा जैसी फिल्मों में उनके काम को सराहना मिली.

यह क्योंकि भूमिकाएं काल विशेष पर निर्भर करती हैं इसलिए यह कतई जरुरी नहीं कि पीढ़ियों को भूमिकाओं का भी अनुसरण ही कराया जाये. अदाकारी एक स्वतः स्फूर्त प्रक्रिया है जो पीढ़ियों द्वारा निभाई गई भूमिका से अलग रखी जानी चाहिए.