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फिल्म इंडस्ट्री बिल्कुल एक विभाजित जगह है-जॉन अब्राहम

क्या आपको लगता है कि 11 कलाकार एक साथ एक फिल्म के लिए खड़े हो सकते हैं. मेरा तो यही मानना है कि हमारी औकात ओशन्स 2 भर बनाने की ही है

Abhishek Srivastava

जॉन जिस तरह की फिल्में आजकल आप बना रहे हैं या फिर उनमें अभिनय कर रहे हैं, उसे देखकर यही लगता है कि थ्रिलर फिल्मों से आजकल आपका लगाव बढ़ गया है. कितनी सच्चाई है इसमें?

मैं आपको ईमानदारी से बताऊंगा. जॉन अब्राहम एंटरटेनमेंट जो कि मेरा प्रोडक्शन हाउस है उसे हमेशा अच्छी कहानियों की तलाश रहती है. ये किसी थ्रिलर या स्पाई थ्रिलर या देश भक्ति के मुद्दे वाली फिल्मों की बात नहीं है. अगर मैं आपको अभी ये बताऊं कि मैं स्पर्म डोनेशन पर एक फिल्म बनाने वाला हूं तो मुमकिन है कि आप मुझे पागल समझें लेकिन जब सबने ये सोचा कि मैं विक्की डोनर के बाद इसका दूसरा भाग बनाऊंगा तो मैंने ठीक उसके उलट काम किया और मैंने मद्रास कैफे बनाई. राजीव गांधी की हत्या का काफी असर मेरे ऊपर पड़ा था. इसके बाद जब लोगों को लगा की मैं फोर्स 2 के बाद कोई और जबरदस्त एक्शन फिल्म बनाऊंगा तब मैंने सही स्क्रिप्ट का इंतजार किया और नतीजा परमाणु के रूप में आपके सामने है.


परमाणु का आइडिया कहां से आया था?

फिल्म के निर्देशक अभिषेक शर्मा मेरे पास परमाणु का एक 10 पेज का आइडिया लेकर आए थे. जब मैंने उसे पढ़ा तो एक तरह से अवाक रह गया था और फिर यही सोचा कि 20 सालों में इस पूरे इवेंट के ऊपर फिल्म बनाने का आइडिया किसी के पास क्यों नहीं आया? अभिषेक ने शुरू में ही मुझे बता दिया था कि इसको बनाना थोड़ा कठिन है क्योंकि फिल्म में फ्यूजन, फिक्शन, हाइड्रोजन बम, सब किलो टन, अंडर ग्राउंड ब्लास्ट इत्यादि की बात की गई थी. तब मैंने अभिषेक को यही कहा कि अगर इसको कोई बना सकता है तो सही निर्देशक वही हैं. मेरी कोशिश यही होती है कि मैं अपनी फिल्मों के लिए एक नॉन फार्मूला विषय का चयन करूं. अगर मैं आपसे यह पूछूं कि परमाणु में विलेन कौन है तो शायद ये सवाल आपको परेशान कर सकता है. लेकिन मैं आपको बताता हूं कि इस फिल्म का विलेन सेटेलाइट है. अब जब आप इसके बारे में सोचते हैं तो फिल्म बनाने का काम अपने आप में थोड़ा दुष्कर हो जाता है. एक ऐसी जनता जिसे नॉर्मल थाली की आदत है आप उनको जापानी सुशी कैसे परोसेंगे? आपकी कोशिश यही होगी कि सुशी को आप थोड़ा स्वादिष्ट बनाएं और यही वजह थी कि हमने इसमें थोड़ा समय लिया और इसको अपने ही प्रोडक्शन हाउस के तहत डेवेलप किया. मेरा हमेशा से यही मानना रहा है कि फिल्म के तीन हीरो होते हैं-निर्देशक, कहानी और लेखक. रही बात फिल्म की कास्टिंग को लेकर तो मैं एक बात को लेकर बड़ा ही साफ रहा हूं कि अगर मैं फिल्म का सही कास्ट नहीं हूं तो मैं वो फिल्म नहीं करूंगा. मेरा प्रोडक्शन हाउस किसी तरह का वैनिटी प्रोडक्शन हाउस नहीं है जहां पर हर फिल्म में मैं खुद को ही कास्ट करूंगा.

लोग अक्सर अच्छी कहानियों की बात करते हैं लेकिन मेरा ये सवाल है कि अच्छी कहानियों की परिभाषा क्या है? फिल्म का असली दम खम तो स्क्रीनप्ले में ही होता है.

देखिए मैं इस बात को कभी नहीं कहूंगा कि फलां कहानी अच्छी है और फलां कहानी बुरी. मेरा सिर्फ यही कहना है कि मैं नॉन फार्मूला फिल्मों में विश्वास रखता हूं. आपने बिल्कुल सही कहा है. कुछ लोगों को एक कहानी पसंद आ सकती है और वही कहानी कुछ लोगों को बुरी लग सकती है. हमारी परेशानी डायलॉग लिखने में नहीं है. हमारे पास विश्व स्तर के निर्देशक और अभिनेता हैं लेकिन स्क्रीनप्ले के डिपार्टमेंट में हम पीछे रह जाते हैं.

परमाणु में आपने किस बात का सबसे ज्यादा ध्यान रखा है?

देखिए मैंने मद्रास कैफे से काफी कुछ सीखा है. मद्रास कैफे एक शानदार फिल्म थी लेकिन उस फिल्म में कुछ ज्यादा ही इनफॉर्मेशन था और इसी वजह से वो फिल्म महज कुछ लोगों तक ही पहुंच पाई थी. परमाणु के माध्यम से इस बार मेरी कोशिश यही थी कि मैं बिल्कुल निचले तबके तक पहुंच जाऊं और इसीलिए मैंने फिल्म को पूरी तरह से सरल कर दिया है. सच्चाई यही है कि असली भारत मेट्रो शहरों में नहीं रहता है. इसके अलावा भी एक भारत है और इसलिए मैंने अपनी फिल्म का नाम भी परमाणु रखा है. मैं इस फिल्म को ग्राउंड जीरो या फिर और कोई नाम दे सकता था लेकिन मुझे कैसे भी निचले तबके तक पहुंचना था. मुझे इस बात का जरा भी इल्म नहीं है कि इस फिल्म का बिजनेस क्या होगा. कोर्ट केस की वजह से पहले ही काफी समय जाया हो चुका है लेकिन इस बात का मुझे पूरा भरोसा है कि कुछ सालों के बाद जब हम इसी तरह से बैठेंगे तो आप जरूर कहेंगे कि परमाणु एक अच्छी फिल्म थी.

फिल्म बनाने के पहले आपने अपनी तरफ से किसी तरह का कोई रिसर्च किया था?

मैं आपको एक बड़ा ही मजेदार किस्सा बताता हूं. मैं अकेले ही फिल्म के रिसर्च के सिलसिले में पोखरन गया था. पोखरन से कुछ दूरी पर ही एक गांव है जिसका नाम है खतौली और वहां पर मैं एक बुजुर्ग से मिला और ऐसे ही बातें करने लगा. मुझे सिर्फ इतना जानना था कि 1998 में जो परमाणु टेस्ट हुए थे उसके बाद उसके विस्फोट और रेडिएशन से क्या उनको कुछ फर्क पड़ा था. उसके बाद उस बुजुर्ग इंसान ने बताया कि कुछ खास तो नहीं हुआ था लेकिन उनके घर की चारों दीवार ढह जरूर गई थी. मैंने उसके बाद उनके घर के लिए क्षमा याचना मांगी लेकिन उसके बाद उन्होंने बोला कि लेकिन हिंदुस्तान तो बन गया ना. उनकी इस बात को सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए और उसी दिन मैंने निश्चय किया कि इस फिल्म को किसी भी तरह से बनानी है.

जॉन आपको इस फिल्म इंडस्ट्री में 15 साल हो गए हैं. पीछे मुड़कर जब आप बीते लम्हों को देखते हैं तो क्या सोचते हैं आप?

देखिए मैं तो यही कहूंगा कि इन 15 सालों में मैंने अपने दृढ़ विश्वास की वजह से फिल्म जगत मे खुद को जीवित रखा है. जब आप एक दीवार के सामने खड़े हो जाते हो और आपकी कोई मदद करने वाला न हो तो उस वक्त आपको किसी में विश्वास करना पड़ता है कि ये व्यक्ति मेरी मदद करेगा और उस दौरान वो व्यक्ति मैं खुद ही था. दुनिया ने उस वक्त मुझसे कहा था कि मेरी कुछ भी औकात नहीं है लेकिन फिर मैंने खुद से कहा कि नहीं यार मेरे अंदर कुछ तो होगा जिसकी वजह से मैं इतनी दूर तक पहुंच गया हूं. उसके बाद हमेशा से मैं अपनी सीमा को बढ़ाते ही गया और फिर निर्माता बन गया. मैंने खुद से कहा कि जिस तरह की फिल्मों में मैं काम करना चाहता हूं या फिर जिस तरह की फिल्मों को मैं बनाना चाहता हूं वैसा काम हो नहीं रहा है तो चलो मैं खुद ही कमान संभाल लेता हूं.

जॉन बेहतर अभिनेता हैं या निर्माता?

देखिए इसका जवाब मैं इस तरह से दूंगा कि जब भी मैं खुद के प्रोडक्शन की फिल्मों में काम करता हूं तब मैं काफी सहज महसूस करता हूं. मेरा इशारा कुछ और नहीं है लेकिन यहां पर मैं इस बात को कहूंगा कि मेरे प्रोडक्शन हाउस में फिलहाल जिन स्क्रिप्ट्स पर काम चल रहा है उन सभी पर दो से पांच साल का समय दिया गया है उनके रिसर्च को लेकर. बाहर का जब भी कोई मुझे स्क्रिप्ट सुनाता है जिसके ऊपर 6 महीने का समय लगा होता है तब ऐसी स्क्रिप्ट्स को सुनकर मुझे गुस्सा आता है. मुझे लगता है कि आप मेरे पास किसी तरह का प्रपोजल लेकर आए हैं या फिर कोई कहानी सुनाने के लिए आए हैं. मैंने ये प्रोडक्शन हाउस इसीलिए बनाया है कि मैं अच्छी कहानियां लोगो के सामने ला सकूं.

जॉन आपने कुछ समय पहले कहा था कि परमाणु का विलेन सेटेलाइट है. ये बात सुनकर मुझे हॉलीवुड की ही एक फिल्म आई इन द स्काई की याद आ रही है जिसमें कुछ ऐसा ही दिखाया गया था?

मुझे इस बात की बेहद ख़ुशी है कि आपने ये सवाल पूछा. परमाणु शुरू करने के पहले मैंने अपनी टीम को दो फिल्मों को देखने का आग्रह किया था-आर्गो और आई इन द स्काई. फिल्म देखने के बाद मैंने अपनी टीम से यही पूछा कि उनको इन दोनों फिल्मों को देखकर क्या लगा? सबने यही कहा कि उनको इन दोनों फिल्मों में एक थ्रिल एलिमेंट नजर आया और देश भक्ति वगैरह की बात कहीं से नजर नहीं आई. मैंने उसके बाद यही कहा कि हमे परमाणु का ढांचा इसी तरह से देना है. फिल्म देखते वक्त ये लगे कि अब आगे क्या होने वाला है. ऐसी कहानी जो आपको अपनी सीट से बांध कर रखे. अगर आपका इरादा एक देश भक्ति फिल्म बनाने का है तो मैं ये लिखकर दे सकता हूं कि वो फिल्म नहीं चलेगी. कोर्ट केस के बाद इस फिल्म को पहले से ही काफी नुकसान हो चुका है लेकिन इस बात की खुशी है कि जब हमारे फिल्म का ट्रेलर लॉन्च हुआ था तब कई लोगों ने इसकी तारीफ की थी.

क्या फिल्म में आपने कुछ चीजें छुपाई भी हैं?

देखिए हमको सारे नाम जो उस ऑपरेशन से जुड़े थे उनको बदलने पड़े थे. हमें निर्देश दिया गया था कि असली नाम हम फिल्म में नहीं ले सकते हैं और इस बात का हम पूरा सम्मान करते हैं क्योंकि बात राष्ट्रीय सुरक्षा की थी. सुरक्षा से जुड़े सभी एजेंसियों को हमने अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट सुनाई थी और सभी से हमें हरी झंडी मिल गई थी. फिल्म के सेट पर शूटिंग के दौरान कर्नल शर्मा हमेशा मौजूद थे जो हमारी गलतियों को ठीक करते थे. उनको सेट पर कुछ पड़ी नहीं थी- चाहे वो जॉन अब्राहम हो या बोमन ईरानी वो सभी को फटकार देते थे अगर किसी भी तरह की गलती होती थी तो. उनकी वजह से मुझे एक सुरक्षित माहौल का एहसास भी हुआ. कर्नल शर्मा 1998 में पोखरन टेस्ट के दौरान मौजूद थे.

जॉन रही बात कोर्ट केस के बारे में तो हमे पता है कि आपके लिए अब ये मामला इतिहास बन गया है लेकिन फैसले के बाद आपने इस बात पर अपनी नाराजगी जाहिर की थी कि लोगों ने आपका साथ नहीं दिया?

देखिए मेरे कथन को थोड़ा तोड़ मरोड़ भी दिया गया था. मैंने यही कहा था कि जिन लोगों का परमाणु जैसे मामले से लेना देना है उनको आगे निकल कर आना चाहिए था और वो नहीं आए. उनके लिए ये एक प्रतीक्षा वाली घड़ी थी कि जॉन अब्राहम के साथ क्या होगा? उन्होंने यही सोचा कि जब फैसला आएगा हम कुछ करेंगे और जैसे ही फैसला मेरे पक्ष में आया 15 से अधिक लोग टूट पड़े. आपने अखबारों में लेख पढ़े होंगे कि कैसे बत्ती गुल मीटर चालू, केदारनाथ और फन्ने खान जैसी फिल्मों से जुड़े लोग निकल कर बाहर आ गए. इन सभी ने परमाणु के ऊपर फैसले का इंतजार किया. मेरे अंदर हिम्मत थी कि मैं बाहर जाऊं और इसका सामना सबसे पहले करूं.

चलिए आखिर में आपसे यही पूछूंगा की क्या ये कहना ठीक होगा कि फिल्म इंडस्ट्री एक विभाजित जगह है?

जी हां फिल्म इंडस्ट्री बिल्कुल एक विभाजित जगह है लेकिन ये मानव प्रकृति है. पूरी दुनिया एक विभाजित जगह है. हम एक जगह कहते हैं कि पाकिस्तानी कलाकारों पर बैन लगा देना चाहिए तो वहीं दूसरी तरफ एक दूसरा वर्ग कहता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए. मेरा सिर्फ यही कहना है कि आपका कोई भी स्टैंड हो उसके लिए आपको संगठित रहना पड़ेगा. आपको लगता है कि हॉलीवुड की फिल्म ओशन्स 11 की तरह हम कुछ वैसी ही फिल्म इस देश में बना सकते हैं? क्या आपको लगता है कि 11 कलाकार एक साथ एक फिल्म के लिए खड़े हो सकते हैं. मेरा तो यही मानना है कि हमारी औकात ओशन्स 2 भर बनाने की ही है.