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देशभक्ति की चाशनी में डूबी बे-स्वाद प्रेम कहानी है 'रंगून'

रंगून डाइनिंग टेबल पर सजी हुई उस शानदार डिश जैसी है, जिसे चखने पर पता चलता है कि कहीं कुछ कमी है

Ravindra Choudhary

'खून में बारूद भरने, सांसों में आग लगाने आ रही हैं मिस जूलिया!' लेकिन अफसोस! जूलिया का यह लव ट्राएंगल है तो बहुत भव्य और आकर्षक लेकिन इसमें वो बारूद या आग नजर नहीं आती.

‘रंगून’ कहानी है दूसरे विश्व युद्ध और भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि (1943) में पनपते एक प्रेम-त्रिकोण की. हिंदुस्तानी सिपाही अंग्रेजों के लिये जापानियों से लड़ रहे हैं और सुभाष चंद्र बोस की आईएनए जापानियों की मदद से भारत को आजाद कराने की कोशिशों में लगी है.


उधर, बॉम्बे में शादीशुदा फिल्म प्रोड्यूसर रूसी बिल्लीमोरिया (सैफ़ अली ख़ान) अपनी एक्शन स्टार जूलिया (कंगना रनौत) के इश्क में गिरफ्तार है. जूलिया बहादुरी भरे हैरतअंगेज करतब करती है लेकिन रूसी के लिये वो ‘बेबी डॉल’ है.

जनरल डेविड हार्डिंग्स (रिचर्ड मैकबी) के कहने पर सयाना रूसी, जूलिया को हिंदुस्तानी सिपाहियों के मनोरंजन के लिये भारत-बर्मा बॉर्डर के लिये रवाना कर देता है. जनरल हार्डिंग्स जूलिया की हिफाजत की जिम्मेदारी जमादार नवाब मलिक (शाहिद कपूर) को सौंपता है.

बॉर्डर पर जापानी हवाई हमला कर देते हैं. नवाब और जूलिया किसी तरह बचकर बर्मा के जंगलों में पहुंच जाते हैं और एक-दूसरे के इश्क में गिरफ्तार हो जाते हैं. इसके बाद नवाब की अंग्रेजों से बगावत, रूसी की जलन की आग, जूलिया की दुविधा और पावर पैक्ड क्लाइमेक्स.

अगर आप 'रंगून' में शुरु का आधा घंटा झेल गये तो फिर पूरी फिल्म झेल जाएंगे. लेकिन यही आधा घंटा विशाल भारद्वाज को बहुत भारी पड़ सकता है. यानि फिल्म अपने प्वॉइन्ट पर आने तक आपके सब्र का इम्तिहान लेती है.

फिल्म निःसंदेह भव्य है... शानदार है, लेकिन जानदार नहीं बन पायी. यह डाइनिंग टेबल पर सजी हुई ऐसी शानदार डिश है, जिसे चखने पर पता चलता है कि कहीं कुछ कमी है- नमक... या शायद कुछ और. किसी क्रिकेट मैच की तरह 'रंगून' के सारे कलाकार व्यक्तिगत रूप से तो अच्छी पारियां खेलते हैं लेकिन उनके बीच में कोई अच्छी पार्टनरशिप नहीं बन पाती, इसलिये टीम जीत के पास पहुंचकर भी हार जाती है.

सबसे बड़ा झोल- नवाब और जूलिया के बीच के अंतरंग दृश्यों में कहीं कोई पैशन, कोई आग नजर नहीं आती इसलिये बर्मा वाला पूरा प्रकरण बहुत बनावटी सा लगता है.

दूसरा बड़ा झोल है- जनरल डेविड हार्डिंग्स का कैरेक्टर. उर्दू शायरी का शौकीन यह जनरल सनकी और मसखरा ज्यादा लगता है और ‘ओह डार्लिंग ये है इंडिया’ के ‘डॉन किहोटे’ की याद दिलाता रहता है.

एक्टिंग की बता करें तो एक सयाने और जलन से भरे पारसी प्रोड्यूसर के रोल में सैफ़ ने शानदार काम किया है. शाहिद भी जमादार नवाब के रोल में विश्वसनीय लगे हैं. कंगना से बेहतर शायद ही कोई और एक्ट्रेस इतनी अच्छी जूलिया बन पाती लेकिन वो जूलिया के साथ-साथ ‘रानी’ और ‘तनु’ भी लगती रहती हैं.

इन सबसे बढ़कर- फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है पंकज कुमार की सिनेमेटोग्राफी. अरुणाचल प्रदेश की खूबसूरती को उन्होंने क्या खूब परदे पर उतारा है. गानों का फिल्मांकन भी लाजवाब है- खास तौर से- टिप्पा.

अंत में- फिल्म में एक जगह जूलिया नवाब से पूछती है- 'अपनी जान से भी कीमती कुछ और है क्या?' इसपर नवाब जवाब देता है- 'हां! जिसके लिये मरा जा सके'. फिल्म के तीनों मुख्य किरदार क्लाइमेक्स में अपने-अपने हिसाब से इस बात को साबित भी कर देते हैं.

(रंगून को 5 में से 3 स्टार)