इस साल अब तक जितने भी अवार्ड समारोह हुए, उनमें एक बात ग़ौर करने वाली थी. अगर शुरु के चार बड़े अवार्ड्स की बात करें तो उन पर हाथसाफ करने वालों में अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर और शबाना आज़मी शामिल थे.
अगर अमिताभ बच्चन ने फिल्म पिंक से एक बार फिर अपने अभिनय का लोहा मनवाया तो वहीं दूसरी ओर फिल्म कपूर एंड संस में ऋषि कपूर ने 90 साल के बूढ़े और शबाना आज़मी ने नीरजा में दिखा दिया कि उनके अंदर दमखम आज भी है और नई पीढ़ी को उनसे टक्कर लेने के लिए अपनी धार और तेज़ करनी पड़ेगी.
इन तीनों में दाद देनी पड़ेगी शबाना की जो 60 के ऊपर होने के बावजूद बॉलीवुड के रुढ़िवादी परंपराओं को हर मोड़ पर धता बताती हैं. लगता है कि वो ये कहते हुए हंसती हैं कि तुम तो 30 साल के ऊपर की हीरोइन को भुला देते हो.
शबाना की दिल को छू जाने वाले बेहतरीन अभिनय के पीछे छुपी हुई है उनकी परवरिश जो किसी बंगले में नहीं बीती थी.
वो शायरों के बीच मुफलिसी में पली बढ़ी थीं. एक ऐसा माहौल जहां फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, बेगम अख्तर का स्पेशल अपीयरेंस घर में हमेशा लगा रहता था. गरीबी का ऐसा आलम की मां शौकत आज़मी नन्ही शबाना के देखभाल के लिए घर में आया तक नहीं रख सकती थीं. जब शबाना चार महीने की थी तब से ही उनकी मां उनको पृथ्वी थियेटर अपने रिहर्सल्स के लिये ले जाया करती थीं क्योंकि पैसे की तंगहाली की वजह से उनके परिवार के पास आया रखने की कूबत नहीं थी.
घर से मां के साथ थियेटर जाने का सिलसिला कई साल तक चला. जब वो थोड़ी बड़ी हो गई थी तब पृथ्वी राज कपूर ने नन्ही शबाना के लिये ग्रुप सींस वाले कपड़े बना दिए थे ताकी अगर किसी प्ले में किसी छोटे बच्चे की जरुरत हो तो वो उसमें शामिल हो सकें. कहने का आशय ये है कि थियेटर की वजह से अभिनय का प्रेम उनके रग रग में धीरे धीरे बसते चला गया.
क्वींस मेरी स्कूल के बाद जब सेंट जेवियर्स में उन्होंने दाख़िला लिया तो उन्हे वहां पर ये देखकर बेहद आश्चर्य हुआ कि जो थियेटर ग्रुप उनके कॉलेज में था वो अंग्रेज़ी का था. इसके बाद उन्होंने फारूख शेख के साथ मिलकर, जो उनसे दो साल सीनियर थे, एक हिंदी नाट्य मंच की स्थापना की.
दोनों के अभिनय का आलम ये था कि जब तक वो वहां पर नाटकों का मंचन करते रहे उस साल का बेस्ट प्ले, बेस्ट महिला अभिनेता और बेस्ट पुरुष अभिनेता का अवार्ड हर साल बटोरे. 150 रुपये की पुरस्कार राशि का एक बड़ा हिस्सा कॉलेज से घर एक स्पेशल टैक्सी के भाड़े में चली जाती थी जो कुछ समय के लिए दोनों को राजसी ठाठ बांट का एहसास दिलाती थी.
उसी दौरान शबाना को पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट की कुछ एक डिप्लोमा फिल्मों को देखने का मौका मिला. उसी में से एक फिल्म थी जया भादुड़ी अभिनीत सुमन जिसने उनको एक्टिंग को अपना करियर बनाने के लिए प्रेरित किया. ये कमाल की ही बात थी कि फिल्म इंस्टीट्यूट में महज तीन महीने के अंदर ही शबाना को बेस्ट स्टूडेंट का स्कॉलरशिप मिल गया जो उनके लिए एक बड़े राहत की बात थी. ये भी शायद अपने में रिकार्ड कहा जायेगा की अपने स्टूडेंट दिनों के दौरान ही उन्होंने बतौर अभिनेत्री दो फिल्में साइन की जिसमें शामिल थीं ख्वाजा अहमद अब्बास की फ़ासला और कांतिलाल राठौर की परिणय.
ये अलग बात थी की उनकी पहली रिलीज थी श्याम बेनेगल की अंकुर और उसी फिल्म से उनके नेशनल अवार्ड का भी खाता खुला. आगे चल कर कुल जमा पांच नेशनल अवार्ड पर शबाना ने अपना नाम लिखवाया. शबाना फिल्म जगत की उन चुनिंदा अभिनेत्रियों में से एक हैं जिन्होनें पैरेलल सिनेमा के साथ साथ कमर्शियल सिनेमा पर भी उसी शिद्दत के साथ अपनी छाप छोड़ी. यही वजह थी की अगर वो मनमोहन देसाई और महेश भट्ट के साथ काम करती थी तो उसी चपलता के साथ अपने गियर बदल कर श्याम बेनेगल और मृणाल सेन की फिल्मों में दिखाई देती थी.
एक पुराने इंटरव्यू में उन्होंने अपने अंकुर के दिनों के अनुभव को बताया था. अंकुर का रोल उनकी निजी जिंदगी से कही मेल नहीं खाता था. कहा शहरों में पली बढ़ी और फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली शबाना और कहां अंकुर के गांव की लक्ष्मी. लक्ष्मी के रोल को निभाना शबाना के लिए आसान नहीं था. उनको उन सींस में ख़ासी तकलीफ़ होती थी जब उनको अपनी झोपड़ी के अंदर उकड़ कर खाना बनाना होता था. श्याम बेनेगल को लगा की शबाना को ऐसे सींस करने में तकलीफ़ हो रही है तब उन्होंने इसका एक उपाय निकाला. दोपहर और रात के वक्त जब फिल्म की पूरी टीम मिलकर डाईनिंग टेबल पर खाना खाती थी तब उस वक्त श्याम, शबाना को नीचे बैठ कर खाना खाने के लिए कहते थे.
ये कुछ दिनों की ही बात थी जब शबाना अपने बैठने के उकडू अंदाज़ पर महारत हासिल कर ली. शबाना को अंकुर फिल्म कैसे मिली ये भी शायद अपने में एक कहानी होगी. जब शबाना फिल्म इंस्टीट्यूट में पढ़ रही थीं तभी उनको श्याम बेनेगल के ऑफिस से उनके असिसटेंट का फोन आया की श्याम उनसे मिलना चाहते हैं.
तब तक शबाना को श्याम बेनेगल के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और उस वक्त उनकी मदद की ऋषीकेश मुखर्जी ने. जब शबाना ने ये बात ऋषि दा को बताई जब उन्होंने बताया की वो कमाल के डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर हैं और उनकी फिल्म के ऑफर को वो ठुकरा नहीं सकती है.
जब श्याम से मिलने की बारी आई तब शबाना ने अपने पोर्टफोलियो में अपने सारे ग्लैमरस फोटो ही रखे. श्याम ने उनका पोर्टफोलियो देखने के बाद उनसे कुछ नहीं कहा और लगभग पांच मिनट के बाद कहा की आप अंकुर कर रही है और उसके बाद उस फिल्म का सीक्वल निशांत भी करेंगी. घर पहुंच कर शबाना ने पूरी बात अपनी मां शौकत आज़मी का बताई की आज वो किसी फ्राड फिल्ममेकर से मिली थी और वो उनको अपनी दो फिल्मों को आफर दे रहा है. पंद्रह दिनों के बाद फिल्म की स्क्रिप्ट उनके घर पर थी और 18 अगस्त 1978 को उनका पहली फिल्म फ्लोर पर चली गई और महज 30 दिनों के बाद उनकी पहली फिल्म पूरी भी हो गई थी.
1973 में अपनी फिल्मी पारी शुरु करने के 44 सालों के बाद भी शबाना आज़मी के अंदर आज भी ही जोश अपने रोल को लेकर दिखाई देता है. अब उनका दायरा बॉलीवुड से निकल कर हॉलीवुड तक पहुंच चुका है. अपनी हर फिल्म में अपने सहज अभिनय से दर्शकों के बीच अपना लोहा मनवा ने वाली शबाना के अगले ट्रिक का हमें इंतजार रहेगा. अभिनय की अध्याय बन चुकी इस शानदार अभिनेत्री को उनके जन्मदिन पर ढेरों शुभकामनाएं.