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भंसाली पर हमला: सरकार की चुप्पी और करणी सेना की गुंडागर्दी

करणी सेना के कुछ सदस्यों ने तो भंसाली को जान से मारने की धमकी तक दे डाली है

Akshaya Mishra

मामला फिर बिगड़ गया और हमेशा की तरह सारा विवाद मुख्य विषय से हट कर गलत दिशा में चला गया. रानी पद्मावती वास्तविक थीं या काल्पनिक ये मूल विषय नहीं है...न ही ये है कि निर्देशक संजय भंसाली ने सोलहवीं सदी में मालिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित राजपूत रानी के काव्य पर रचनात्मक आजादी का फायदा उठाया.

बल्कि, तथ्य यह है कि भंसाली जो कि आजाद हिंदुस्तान के नागरिक हैं उनके साथ करणी सेना (इस राजपूत समाज से जुड़ा होने का दावा करने वाला एक सतही संगठन) के सदस्यों ने अपनी पसंद की फिल्म न बनाने को लेकर मारपीट की और यही वह विषय जिसके लिए सभी को चिंतित होना चाहिए.


करणी सेना की तरफ से पद्मावती फिल्म के सेट को नुकसान पहुंचाने और निर्देशक को शूटिंग छोड़ कर वापस मुंबई लौटने को मजबूर करने के बाद अब हिंदू सेना भी इस विवाद में कूद पड़ी है. वो भंसाली पर इतिहास को बिगाड़ने का आरोप लगा रही है.

इसके कुछ सदस्यों ने तो भंसाली को जान से मारने की धमकी तक दे डाली है. लेकिन, संगठन ने अपने आपको इस धमकी से अलग कर लिया है पर उनकी एक धमकी अभी भी कायम है...और वो ये है कि इस स्टोरीलाइन के साथ मुंबई में भी आप 'पद्मावती' की शूटिंग जारी नहीं रख सकते हैं.

अब शिवसेना भी इनके साथ आ गई है..और उसने भी ये धमकी दे डाली है कि किसी भी हिंदू राजा या रानी के चरित्र की हत्या नहीं होनी चाहिए. अगर दोनों सेनाएं साथ आ गईं तो किसी भी हाल में पद्मावती फिल्म की बाधा-रहित रिलीज मुंबई में तो आसानी से होना मुमकिन नहीं है.

करणी सेना ने फिल्म के सेट में पहुंचकर संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की थी

भंसाली की सफाई

हाल ही में सुनने में आया है कि भंसाली ने करणी सेना को स्पष्ट कर दिया है कि उनकी फिल्म में कोई भी आपत्तिजनक सीन नहीं है. इसके अलावा वे करणी सेना के नेताओं के लिए फिल्म रिलीज से पहले उसकी एक खास स्क्रीनिंग के लिए भी तैयार हो गए हैं.

आसान शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि निर्देशक ने दबाव में आकर हथियार डाल दिए हैं. अब वीटो का विशेषाधिकार इस संगठन के हाथों में है. इस मामले में सवाल ये उठता है कि इस बेरोकटोक तरीके से इन लोगों को दूसरों की आजादी को कुचलने का अधिकार किसने दिया है?

राज्य कहां है? सतही संगठन कहलाने वाले ये संगठन तो पूरी तरह से मुख्यधारा के संगठन बन गए हैं. जहां उन्हें आम हालात में दखलंदाजी का अधिकार मिल गया है. आखिर इन संगठनों को ये बेखौफ आजादी मिली कैसे है?

ये अब साफ तौर पर दिखने लगा है कि सरकारें निगरानी करने वाले इन समूहों को लगातार मौका दे रही हैं. महाराष्ट्र में सरकार ने हाल ही में रिलीज हुई फिल्म 'ऐ दिल है मुश्किल' विवाद पर एमएनएस और निर्देशक करण जौहर के बीच बिचौलिए की भूमिका निभानी चाही थी.

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अभी के ही मामले में राजस्थान सरकार ने भंसाली को लगभग बेबस हालत में छोड़ते हुए उनके हित में इस मामले में मजबूती से दखल नहीं दिया. दूसरे राज्यों में भी जब इस तरह के संगठन लोगों पर अपने-आपको थोपते हैं तो सरकारें ऐसी ही प्रतिक्रिया देती हैं.

पुलिस कार्रवाई करने से इनकार कर देती है. अदालतें तो एक विकल्प होती हैं किंतु सरकारें सुरक्षा भरी समझदारी दिखाती हैं और उनकी मदद किसी मतलब की नहीं होती.

राजनीतिक दलों की चुप्पी

लंबे समय से राजनीतिक दलों ने इस तरह के मामलों में एक साफ नजरिया जाहिर करना बंद कर दिया है. इस डर से कि यदि किसी ने सख्त नजरिया अपनाया तो उस पर प्रतिक्रिया हो सकती है.

पद्मावती फिल्म के कलाकार (तस्वीर फेसबुक वाल से)

वे आमतौर पर कोई न कोई लोकलुभावन नजरिया ही जाहिर करते हैं. उन्हें डर रहता है कि उन्हें इसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है. अब भंसाली या करण जौहर जैसे लोग किससे समर्थन की उम्मीद करें? सच पूछें तो कोई नहीं है.

सतही संगठन सरकार पर दबाव बनाते हैं

यदि आप फिल्म बिरादरी की बात करें तो यह बात बौद्धिक और रचनात्मक सभी समुदायों पर लागू होती है. अगर वे एक हो जाते हैं और किसी तरह सरकारों पर दबाव डाल सकते हैं तो उससे फर्क जरूर पड़ता.

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ये सतही संगठन इसी तरह से सरकार पर दबाव बनाते हैं. अगर आपने हमारे खिलाफ कार्रवाई की तो अगली बार हमारे वोट भूल जाना. इसका मतलब यह है कि राज्य अपना नैतिक अधिकार खो रहा है?

जब राज्य व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करने में नाकाम रहता है तो यह बात पक्के तौर पर सही है. अगर यही हाल रहा तो जल्दी ही हमारे आसपास गुंडों के गैंग नजर आएंगे जो नागरिकों का जीना मुहाल कर रहे होंगे. क्या इसका कोई समाधान है? अगर कहीं कोई समाधान है भी तो वो भी नजर नहीं आ रहा. देश को अब आत्म-मंथन की जरुरत है.