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Review मुक्काबाज : विनीत और अनुराग कश्यप के इस मुक्के में दम है

अनुराग कश्यप लंबे वक्त के बाद अपने उसी सिनेमा के रंग में लौटे दिख रहे हैं जिसके लिए वो बॉलीवुड में मशहूर हैं

Abhishek Srivastava

किसी मसाला फिल्म में यथार्थ का अगर तड़का मारा गया हो वो फिल्म कैसी होगी? ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं है अनुराग कश्यप की मुक्काबाज देखने के बाद आपको पता चल जाएगा की इस तरह की फिल्म किस तरह की होती है. कहने की जरुरत नहीं है कि अनुराग अपने उसी जोन में हैं जिसके लिए वो जाने जाते हैं यानी आम जिंदगी की सच्चाई पूरे कड़वे स्वाद के साथ लोगों का सामने परोसा है जिसके साथ कुछ लोग इत्तेफाक रखते हैं कुछ नहीं. मुक्काबाज फिल्म मुझे पसंद जरूर आई लेकिन यहां पर मैं इस बात को जरूर कहूंगा कि यथार्थ दिखने के अलावा अगर फिल्म में अनुराग ने मसाला भी भरा है तो उसका खात्मा भी उसी अंदाज़ में होना चाहिए था जो फिल्म मे गायब है.

कहानी


फिल्म की कहानी बरेली शहर के मुक्केबाज श्रवण कुमार सिंह (विनीत कुमार सिंह) की है जो नेशनल लेवल पर खेलने के लिए बेताब है. लेकिन डिस्ट्रिक्ट लेवल पर फेडरेशन के सदस्य भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) से उसका पाला पड़ता है. जब किसी बात पर श्रवण अपना मुक्का भगवान दास पर चला देता है तब चीजें बदल जाती हैं और उसके बाद भगवान दास श्रवण का बॉक्सिंग करियर खत्म करने के लिए उसके पीछे हाथ धो कर पड़ जाता है. इसी बीच श्रवण को भगवान दास की भतीजी सुनैना से प्यार हो जाता है. शादी तो हो जाती है लेकिन भगवान दास की यही कोशिश रहती है कि शादी कैसे भी टूट जाए. इस बीच कोई चारा नहीं होने की वजह से श्रवण को डिस्ट्रिक्ट लेवल पर शिरकत करने के लिए बनारस का रुख करना पड़ता है जहां उसकी मुलाकात कोच संजय कुमार (रवि किशन) से होती है जो उसके करियर को एक नई दिशा देते हैं. बॉक्सिंग के परिप्रेक्ष्य में श्रवण और सुनैना की प्रेम कहानी भी चलती रहती है जिसमें कई रोड़े आते हैं.

एक्टिंग

अभिनय की दृष्टि से मुक्काबाज वो फिल्म है जिसमे सभी का साधा हुआ अभिनय है चाहे वो जिमी शेरगिल हों या रवि किशन या राजेश तैलंग या फिर साधना सिंह. यहां पर खासकर के बात करनी पड़ेगी जिमी शेरगिल और रवि किशन की. देख कर दुःख होता है कि इतने साल फिल्म इंडस्ट्री में बिताने के बाद उनको अपना असली हुनर अब दिखाने का मौका मिला है. जिमी का नेगेटिव शेड बेहद ही डराने वाला है और इस रोल में उन्होंने जान डाल दी है. कुछ यही हाल रवि किशन का भी है एक थके हारे नाकाम मुक्केबाज के रोल में जो अब जीवन के साथ समझौता कर चुका है और बॉक्सिंग का अपना प्रेम नए लड़कों को बॉक्सिंग की कोचिंग देकर पूरा करता है. रवि किशन इस फिल्म में पूरे फॉर्म में नजर आते हैं. सुनैना की मां की भूमिका में साधना सिंह जो काफी अरसे के बाद रुपहले परदे पर नजर आई हैं और उनके भी तौर तरीके उत्तर प्रदेश के तौर तरीकों से पूरी तरह से मेल खाते हैं.

विनीत की मेहनत रंग लाई

इस फिल्म में मुख्य भूमिका में विनीत सिंह श्रवण के रोल में हैं और उनको देख कर लगता है कि उन्हें इस बात की जानकारी है कि अनुराग कश्यप की फिल्म में अगर लीड रोल का मौका मिला है तो वो उसके लिए सब कुछ करेंगे और विनीत ने सब कुछ किया भी है. चाहे वो उत्तर प्रदेश की बोली हो या फिर उस प्रदेश के लोगों जैसा व्यवहार या फिर मुक्केबाजी की ट्रेनिंग - ये सब कुछ देख कर लगता है कि विनीत ने मेहनत करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी है. उनका काम शानदार है. ज़ोया हुसैन इस फिल्म में सुनैना के रोल में हैं जो बोल नहीं सकती है. ज़ोया की ये पहली फिल्म है और पहली ही फिल्म में उनका आत्मविश्वास बहुत कुछ कहता है. कहने की जरुरत नहीं है कि इंडस्ट्री को ज़ोया के रूप में एक शानदार अभिनेत्री मिल गई है.

अनुराग का कसा हुआ निर्देशन

अनुराग के निर्देशन में जो भी फिल्में अब तक आई हैं भले ही वो किसी ढर्रे पर चलती हों लेकिन नयापन उनकी हर फिल्म में दिखाई देता है और मुक्केबाज भी कोई अपवाद नहीं है. इस फिल्म की अवधि ढाई घंटे के आसपास है लेकिन उनके सटीक निर्देशन की वजह से आप सीट से बंधे रहते हैं. मुक्केबाज़ी के ऊपर कुछ फिल्में पहली भी बन चुकी है लेकिन इस फिल्म और बाकी के अंदाज़ में ज़मीन आसमान के फर्क है.

अनुराग दर्शकों को उत्तर प्रदेश ले जाते हैं और एक तरह से जहां कथा चलती है वहीं की आबो हवा से उनकी दोस्ती करा देते हैं. मुक्काबाज उनके करियर की पहली ऐसी फिल्म है जिसके केंद्र बिंदु में प्रेम है. इसके पहले वो देव डी में प्रेम की बात कर चुके हैं लेकिन यहां पर वह दो कदम आगे नजर आते हैं. कहने की जरुरत नहीं है कि यह प्रेम कहानी काफी अलग है. इस फिल्म की सबसे बड़ी सफलता इसकी डिटेलिंग में छुपी हुई है.

जब फॉर्मल कपड़े पहन कर स्पोर्ट्स शूज के साथ संजय कुमार कोचिंग करने जाते हैं या फिर रेलवे के दफ्तर में हमें वैसे ही कर्मचारी देखने को मिलते हैं जिनका पाला हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी में पड़ता है तब यही कहने के मन करता है की अनुराग ने आधी लड़ाई जीत ली है. इस फिल्म में ऐसे कई सीन्स हैं जो काफी शानदार हैं. श्रवण जब अपनी ट्रेनिंग, रेलवे की नौकरी, अपनी बीवी से अपनी बात पहुंचने के लिए मूक बघिरों की भाषा सीखने के लिए क्लासेज करता है तो वो काफी शानदार है. जब श्रवण की लड़ाई अपने पिता से होती है और झल्लाहट में वो काफी कुछ कह देता है तब उस सीन का असर किसी और लेवल पर होता है.

वरडिक्ट

मुक्काबाज के बारे में ये कहूंगा कि यह अनुराग की पिछली फिल्मों की तरह नहीं है. इसमें आपको एक बदले हुए अनुराग कश्यप के दर्शन होंगे क्योंकि एक लेवल पर यह फिल्म काफी हद तक कमर्शियल भी है. मज़ा तब आता जब इसका अंत भी एक कमर्शियल लेवल पर होता लेकिन यहां पर मैं यही कहूंगा कि हर निर्देशक का अपना एक विजन होता है. आप इस फिल्म को जरूर देखिए आपको लुत्फ पूरा मिलेगा.