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REVIEW काला : रजनीकांत की फिल्म ‘काला’ है बॉक्स ऑफिस का ‘उजाला’

सुपरस्टार रजनीकांत फिल्म काला से एक बार फिर बॉक्स ऑफिस पर उसी अंदाज के साथ वापस लौट आए हैं जिसके लिए उन्होंने पूरी दुनिया में अपनी धमाकेदार इमेज बना रखी है

Abhishek Srivastava

काला कई मायनों में रजनीकांत से ज्यादा इसके निर्देशक पा रंजीत की फिल्म है. इस फिल्म से पा रंजीत ने एक तरह से देश का हलात पर अपनी राजनीतिक टिप्पणी की है. अगर आप यह पूछेंगे कि क्या यह सुपरस्टार रजनी की पिछली फिल्मों की तरह ही उतनी ग्रैंड है तो जवाब ना में होगा.

लेकिन ये भी सच है कि फिल्म में और कई खूबियां हैं जो इसको अलग तरह से एक ग्रैंड फिल्म का दर्जा देती हैं. ये फिल्म रजनीकांत के इर्दगिर्द न घूमकर उन लोगों के बारे में ज्यादा है जो तमिलनाडु छोड़कर मुंबई के धारावी की चॉल्स में कई साल पहले बस गए थे, काम और अच्छी जिंदगी की तलाश में.


धारावी को अपनी कहानी का बुनियाद बनाकर और दलित उत्पीड़न का विषय चुनकर पा रंजीत ने काला का तानाबाना बुना है. जो आज के राजनीतिक माहौल में बेहद ही प्रासंगिक है. अब इस कहानी को कहने के लिए रजनीकांत का सहारा लिया गया है तो ये कहने की जरुरत नहीं है कि रजनीकांत के होने से इस फिल्म का कद बढ़ जाता है. अगर काला को सिर्फ कहानी की कसौटी पर कसा जाए तो भी ये निखर कर बाहर आती है. आप इस हफ्ते इस फिल्म को जरुर आजमाएं.

धारावी के दलित बाहुबली की कहानी

काला की कहानी प्रवासी तमिलनाडु के लोगों के बारे में है जो मुंबई के धारावी में बसे हुए हैं. फिल्म की शुरुआत में बताया जाता है मुंबई जैसे शहर में जमीन के महत्व के बारे में जहां पर सत्ता के भूखे लोग दलितों को हर ओर से कुचलने का प्रयास करते हैं. कहानी इसके बाद आज की मुंबई की बात करती है जहां पर काला या फिर करिकालन (रजनीकांत) के साम्राज्य को दिखाया गया है जिसके इजाजत के बिना धारावी में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता. धारावी के धोबीघाट को ढहाने के आदेश दे दिए गए हैं और इसको लेकर जो विरोध के स्वर उठते हैं उसमें शांत स्वर की कोई जगह नहीं होती है लिहाजा काला को मध्यस्थता के लिए बुलाया जाता है.

इसमें से एक प्रदर्शनकारी काला का बेटा लेनिन (मणिकंदन) है जो नियम कानून का आदर सम्मान करता है. लेकिन उसके बिल्कुल उलट काला का दूसरा बेटा सेल्वा (थिलीबन) है जो अपना काम निकलने के लिए नियम कानून को ताक पर भी रख सकता है. अपने इन दोनों बेटों का मिला जुला रूप काला है. जब मुंबई में चुनाव होते हैं तब एक दक्षिणपंथी पार्टी हर सीट पर अपना कब्जा जमा लेती है सिवाय धारावी के.

डेमोलिशन ड्राइव के बाद जब री-डेवलपमेंट की बात आती है तब काला, हरी दादा (नाना पाटेकर) की मंशा को भाप लेता है जिसके इरादे नेक नहीं हैं और फिर इसके बाद हरी दादा कसम खा लेता है कि वो मुंबई की काली गन्दगी को साफ करके ही दम लेगा.

कबाली की कमियां ढक दी काला ने

रजनीकांत और पा रंजीत की पिछली फिल्म थी कबाली और उस फिल्म में जो कमियां पा रंजीत के निर्देशन में रह गईं थीं उसकी पूरी कसर उन्होंने काला में पूरी कर दी है. पा रंजीत ने इसका खास ध्यान रखा है कि रजनीकांत के सुपरस्टारडम को पूरी तरह से भुनाया जाए और यह पक्की बात है कि उनके इस रूप को दर्शक सर आंखों पर एक बार फिर से बैठाएंगे.

रजनीकांत की इस फिल्म के एंट्री में कैसे होती है ये मैं नहीं बताऊंगा लेकिन यह शर्तिया है कि यह उनके स्टारडम के साथ पूरी तरह से न्याय करती है. जो कुछ भी फिल्म में दिखाया गया है उसको डायलॉग के जरिए बताने की कोशिश भी की गई है. फिल्म के जो भी छुपे हुए संदर्भ है (जिनकी मात्रा काफी ज्यादा है) उनको निकालने और समझाने को कोशिश की गई ताकी जनता से कुछ भी छूटे नहीं और यह अच्छे निर्देशन का ही संकेत है.

रजनी और नाना की टक्कर फुल पैसा वसूल

किसी भी फिल्म का मजा तब दोगुना हो जाता है जब मुख्य सितारे के अलावा उसके सामने का विलेन भी जोरदार हो. काला उन बेहद ही कम फिल्मों की जमात में शामिल हो जाएगी जहां पर सितारे और विलेन दोनों का कद एक जैसा दिखाया गया है. हरी दादा की इस भूमिका को बखूबी अंजाम दिया है नाना पाटेकर ने. एक लम्बे अरसे के बाद उनको एक दमदार रोल में देखना एक सुखद अनुभव है. नाना की अदाकारी पूरी तरह से रजनीकांत की अदाकारी से मैच करते हुए दिखाई देती है. पा रंजीत को इस बात के लिए भी दाद देनी पड़ेगी कि उनकी इस फिल्म की कास्टिंग बेहद ही सटीक है. सपोर्टिंग रोल्स में चाहे हुमा कुरैशी हो जो की फिल्म में रजनीकांत की पूर्व प्रेमिका की भूमिका में है या फिर अंजली पाटिल जो रजनीकांत की बहू के रोल में - सभी ने अपने शानदार अभिनय से फिल्म में जान डाल दी है. इसके अलावा फिल्म के सिनेमोटोग्राफर मुरली, एडिटर श्रीकर प्रसाद या फिर आर्ट डायरेक्टर रामलिंगम की मेहनत भी फिल्म में साफ नजर आती है.

टेक्निकल टीम ने जीता दिल

काला को रावनन बताकर फिल्म में रजनीकांत के किरदार को एक तरह से मेंटाफर बताया गया है कि उसके सोचने के कई तरीके हैं. कुछ इस तरह से काले रंग को भी विभिन्न तरह से फिल्म में दर्शाया गया है जो काफी लुभाने वाला है. इस फिल्म की सबसे बड़ी यही परेशानी है कि इसके जो संदर्भ है वो साउथ से लिए गए है लिहाजा वहां के लोगों को समझने में ज्यादा आसानी होगी.

उत्तर भारत के लोगों को इसके मेंटाफर को पहचाने में दिक्कत हो सकती है. काला के डायलॉग भी बेहद जोरदार हैं. इस फिल्म को मैंने हिंदी डब भाषा में देखा और कहने की जरुरत नहीं कि तमिल भाषा में इसका जोर कुछ ज्यादा ही असरदार रहा होगा.

रजनीकांत के किरदार का सहारा लेकर पा रंजीत ने सरकार पर चोट भी किया है. जब रजनीकांत ये कहते हैं कि सरकारी लोगों का काम महज स्कैम करना और लोगों को लूटना है तो हमें सरकार की जरुरत क्यों है? इस पर ताली ही बजाने का मन करता है. रजनीकांत का काला में रॉबिनहुड सरीखा व्यक्तित्व अपना असर पूरी तरह से छोड़ता है. एक बात और पक्की है कि इस फिल्म का क्लाइमेंक्स रजनीकांत की पिछली कुछ फिल्मों से कोसों बेहतर है. मनोरंजन के साथ राजनीतिक मसाला देखना है तो आप काला के दीदार जरूर कीजिए.