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बाहुबली-2: जानिए वो सब जो आप इस फिल्म को देखकर महसूस करेंगे

यूं लगा कि दर्शक नशे में झूम रहे हैं. वो तालियां बजाते हैं, शोर मचाते हैं, सीटियां बजाते हैं.

Sandipan Sharma

मैं बाहुबली-2 का 'फर्स्ट डे-फर्स्ट शो' देखकर आया तो, मेरे लिए लिखना मुश्किल हो रहा था. घर आने के घंटों बाद भी थिएटर का शोर मेरे कानों में गूंज रहा था. बार-बार बजती तालियां, जय महिष्मती के नारे और हॉल में बजती सीटियों का शोर मानो नस-नस में समाया हुआ था.

फिल्म की शुरुआत होते ही हॉल शोर, तालियों और सीटियों से गूंज उठा था. यूं लगा कि जैसे जंग का एलान हो गया. काल्पनिक साम्राज्य महिष्मती को लेकर दर्शकों में जबरदस्त जुनून दिखा. जैसे ही अमरेंद्र बाहुबली, पैर मारकर लकड़ी के एक विशाल दरवाजे को खोलता है, हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. बाहुबली उछलकर एक हाथी की सूंड़ के सहारे उसके मस्तक पर सवार होता है, ये सीन आते ही इतनी सीटियां बजीं कि शोर में डायलॉग सुनना मुश्किल हो गया.


हर सीन का जादू सा असर

फिल्म के हर सीन पर ऐसा ही होता है. यूं लगता है कि दर्शक नशे में झूम रहे हैं. कुछ कुछ देरी पर उन पर जुनून सवार होता है और वो तालियां बजाते हैं, शोर मचाते हैं, सीटियां बजाते हैं. बाहुबली तलवार भांजता है. या तीर से निशाना साधता है. या दुश्मनों की छाती पर सवार होकर उनका मर्दन करता है. उसके हर एक्शन पर तालियों की गूंज सुनाई देती है.

धीरे-धीरे हाल ये होता है कि बाहुबली अगर मुस्कराता हुआ धीमी चाल से चलता भी है, तो थिएटर में हंगामा सा बरपा हो जाता है. इसीलिए मैंने एक वक्त के बाद ये गिनना ही छोड़ दिया कि बाहुबली देखते वक्त कितनी बार तालियां बजीं, कितनी बार सीटियां बजीं.

ये बाहुबली की ताकत है. वो तीन घंटे में दर्शकों को ऐसा जुनूनी मनोरंजन देता है, ऐसे एहसास कराता है, जो उन्होंने जिंदगी में पहले कभी तजुर्बा नहीं किया. किसी भी कलाकार की कामयाबी इसी बात पर निर्भर करती है कि वो अपने सपनों को किस तरह देखने वालों को बेचता है. किस तरह उन्हें यकीन दिलाता है कि जो सपना वो दिखा रहा है वो हकीकत है. इसी दुनिया से ताल्लुक रखता है. फिल्म के निर्देशक एस.एस राजमौली ने बाहुबली में एक बार फिर ऐसा करके दिखा दिया है.

भौतिकी के सिद्धांतों और तर्कों के परे

इस फिल्म के कुछ सीन ऐसे हैं जो भौतिकी के सिद्धांत के खिलाफ हैं. कुछ सेट ऐसे हैं, जो यकीन के काबिल ही नहीं. कुछ मंजर ऐसे हैं, जो आइंस्टाइन के हर सिद्धांत की बखिया उधेड़ देते हैं. फिर भी लोग आंखें फाड़े इस फिल्म को देखे ही जाते हैं. बेयकीनी का खयाल तक उन्हें नहीं छू जाता. यूं लगता है कि अगर वो इक लम्हा भी ठहरकर सोचने लगे, तो, फिल्म देखने का लुत्फ खत्म हो जाएगा.

बाहुबली फिल्म की कहानी में हर उस कहानी से कुछ न कुछ शामिल किया गया है, जो आपने अब तक सुनी होगी. इसमें महाभारत की चचेरे भाइयों की जंग का किस्सा है. इसमें रामायण का भी एक हिस्सा लिया गया है. लेकिन यहां खुद राजा दशरथ ही साजिश रच रहे हैं. वो चाहते हैं कि सिंहासन का वाजिब अधिकारी को वनवास भेज दिया जाए. वहीं रामायण की कैकेयी यहां पर उसी उत्तराधिकारी को राजा बनाने की लड़ाई लड़ती है.

अविश्वसनीय एक्शन सीन

फिल्म के एक्शन सीन हॉलीवुड की मशहूर फिल्मों 'बेन हर', 'लॉर्ड ऑफ रिंग्स' 'फास्ट ऐंड फ्यूरियस' की टक्कर के लगते हैं. इसकी सिनेमैटोग्राफी, हॉलीवुड की फिल्म 'एविएटर' से मिलती जुलती दिखती है. फिल्म का दर्शक ऐसी दुनिया में पहुंच जाता है, जो तसव्वुर से भी परे है.

फिल्म के निर्देशक राजमौली ने कहानी को इतने दिलकश तरीके से बयां किया है. इतनी रफ्तार से पेश किया है, जो फिल्मों के कई बंधे-बंधाए फॉर्मूले के दायरे से बाहर की बात है. जिस वक्त बाहुबली देवसना की मौजूदगी में जंग के मैदान में दुश्मनों से लोहा ले रहा होता है, उस वक्त उसकी चाल-ढाल और हरकतें देखकर यूं लगता है कि वो उड़ते तीरों और खनकती तलवारों के बीच नाच रहा है. ये सीन इस शानदार तरीके से फिल्माया गया है कि आपको लगता है कि पहले ये सीन देख लें, फिल्म की कहानी को बाद में समझेंगे.

और जब बाहुबली और उसके जानी दुश्मन बल्लभदेवा की टक्कर होती है, तो यूं लगता है मानो पर्दे पर जलजला आ गया हो. ये मंजर इतना रियल लगता है कि कई बार आपको ये लगता है कि जान बचाने के लिए कोई और कोना तलाश लेना चाहिए.

लेकिन बस इतनी भर ही नहीं है फिल्म

बाहुबली सिर्फ महान किरदार और स्पेशल इफेक्ट के दीदार कराने वाली हिंदुस्तानी फिल्म भर नहीं. बल्कि ये फिल्म, हिंदुस्तान में फिल्में बनाने के ढब को नई ऊंचाई पर पहुंचाने वाली फिल्म भी है. जिसमें आम से दिखने वाले नजारे भी इतने खूबसूरत तरीके से दिखाए गए हैं कि वो दर्शक को नई दुनिया में पहुंचा देते हैं.

आप यूं महसूस करते हैं कि नई दुनिया में आकर आपको हर किरदार का दर्द, उसकी खुशी, उसकी तकलीफ उसका चलना-फिरना तक महसूस होता है.

फिल्म की कहानी इतनी कसी है. इसमें इतने जबरदस्त उतार-चढ़ाव हैं कि आपको लगता है कि जरा सा भी एहतियात कम हुआ और आप कुर्सी से गिरे. फिल्म के क्लाइमेक्स से पहले ही एक मिनी क्लाइमेक्स भी आता है, जो आपको जुनून से बाहर आने का भी जबरदस्त झटका देता है. फिल्म देखने का लुत्फ दोगुना बना देता है. हॉल, तालियों, सीटियों और शोर से भर जाता है.

बरसों पहले जब अमिताभ बच्चन की फिल्म खुदा गवाह रिलीज हुई थी, तो, इसके क्लाइमेक्स के वक्त जनता यूं ही दीवानों जैसा बर्ताव करती थी. सीटियों के शोर और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच श्रीदेवी कहती थीं: वो आएगा, मेरा बादशाह खान आएगा. मैंने 25 साल पहले वो फिल्म देखी थी. हॉल का वो शोर, सीटियों की आवाज, तालियों की गड़गड़ाहट और हॉल में फेंके गए सिक्कों की खनखनाहट, पिछले 25 सालों से मेरे कान में गूंज रही थी.

अब अगर आगे कोई नई बाहुबली नहीं बनी, तो इस फिल्म को देखने के दौरान दिखा दर्शकों का जुनून और हॉल का शोर अगले कई बरसों तक मेरे कानों में गूंजता रहेगा.