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जीवन पुण्यतिथि विशेष: कश्मीर से आया था हिंदी फिल्मों का मशहूर नारद

अपनी खास संवाद शैली के कारण जीवन अपने वक्त के चरित्रों से अलग पहचान बना गए

Satya Vyas

मराठी अखबार लोकसत्ता में एक बेहद मजेदार खबर आई थी. खबर के अनुसार यदि देवर्षि नारद स्वयं धरती पर आ पहुंचें और वह ‘जीवन साहब’ की तरह ‘नारायण नारायण’ न कहें तो लोग उन्हें नारद न मानकर कोई बहुरूपिया ही समझेंगे. सच भी यही था. जीवन साहब ने प्रदर्शित-अप्रदर्शित मिलाकर कुल 60 फिल्मों में नारद मुनि का किरदार जीवंत किया और इतनी आसानी से किया कि वह नारद का पर्याय ही बन गए.


मूल रूप से कश्मीरी ओंकार नाथ धर उर्फ जीवन साहब की कहानी भी उस वक्त के अन्य कलाकारों के संघर्ष गाथा जैसी ही थी. वह अट्ठारह साल की अवस्था में मात्र कुछ रुपए लेकर मुंबई भाग आए थे.

फोटोग्राफी सीखने की गरज से एक फिल्म स्टूडियो में काम करते रहे. एक दिन रिफ्लेक्टर पर सिल्वर पेपर को सूखने के लिए छोड़ कर कास्टिंग देखने लगे. वहीं दुर्लभ संयोग हुआ. एक कलाकार ठीक समय पर गायब मिला. निर्देशक मोहन सिन्हा ने जीवन साहब से पूछा- एक्टिंग करोगे? दिल-ओ-दिमाग पर पृथ्वीराज कपूर तारी थे. 'न' का तो सवाल ही नहीं था. युवा जीवन साहब ने हीर-रांझा की कुछ पंक्तियां सुना दीं. असर ऐसा रहा की जीवन साहब को फिल्म 'फैशनेबल इंडिया' मिली और दर्शकों को जीवन साहब.

मगर जीवन साहब को यह नाम विजय भट्ट ने दिया. इससे पहले जीवन साहब, माधव या ओ.एन.धर के नाम से ही जाने जाते रहे थे. विजय भट्ट की फिल्मों से जो शुरुआत हुई वह जीवन साहब के साथ आजीवन जुड़ी रही.चंद्रमोहन का वक्त गुजरा, दिलीप कुमार आए. उनका वक्त गुजरा अमिताभ बच्चन आए, मगर जीवन साहब खुद को किरदारों के अनुसार बदलते हुए टिके रहे. नागिन, शबनम, हीर-रांझा,जॉनी मेरा नाम, सुरक्षा, लावारिस, अमर-अकबर-एंथनी सहित कितनी ही यादगार भूमिकाएं जीवन साहब ने निभाईं.

करियर की शुरुआत में ही जीवन जान गए थे कि चेहरे-मोहरे के लिहाज से वह नायक के किरदार में फिट नहीं बैठते. उन्होंने वक्त की नब्ज पकड़ी और खलनायक, धूर्त रिश्तेदार, कपटी सेनापति, बेईमान भाई इत्यादि के किरदारों में आने और पसंद किए जाने लगे. अपनी खास संवाद शैली के कारण जीवन अपने वक्त के चरित्रों से अलग पहचान बना गए. उन्होंने उम्र के हिसाब से अपनी संवाद शैली बदली और स्थापित हुए.

खलनायकी में हास्य के पुट को कादर खान ने नया आयाम दिया जिसे शक्ति कपूर और परेश रावल जैसे कलाकार आगे लेकर गए, मगर कम ही लोग जानते हैं कि इस विधा का प्रारम्भ जीवन साहब ने ही ‘मेला’ फिल्म से किया था. बकौल जीवन साहब यह सबसे दुश्वार काम था. एक तरफ तो आपको अपने चरित्र से नफरत पैदा करनी होती थी और दूसरी तरफ उन्हीं दर्शकों को अपने संवाद या मूर्खताओं से हंसाना भी पड़ता था.

जीवन साहब ने फोटोग्राफी, नृत्य, एक्शन, संगीत इत्यादि सभी में हाथ आजमाया और असफल हुए, लेकिन इसका फायदा यह मिला कि उनकी अदाकारी में निखार ही आया. वह नायकों से तलवार भिड़ाते वक्त कभी नौसीखिए नहीं लगे.

जीवन साहब उन चंद खुशनसीब कलाकारों में से रहे जिन्होंने जीवन पर्यंत काम किया. स्वास्थ्य ने भी उनका साथ दिया और वह आखिरी दिनों तक सक्रीय रहे. यहां तक कि बकौल जीवन साहब उन्होंने ललिता पवार के पति, मामा, भाई से होते हुए बेटे तक के चरित्र निभाए. फिल्म 'कानून' में कटघरे के सीन का उनका एकालाप तो अभिनय स्कूलों में उद्धृत किया जाता है.

10 जून 1987 को जीवन साहब शरीर छोड़ गए. मगर आज भी मिमिक्री कलाकारों और बच्चों के कार्टून चरित्रों तक के संवाद अदायगी में हम जीवन साहब को ढूंढ ही लेते हैं.