2014 में मैं गोविंदा से उनके जूहू ऑफिस में मिला था. ‘अभिनय चक्र’ नामक फिल्म की एक स्टैंडी वहां एक तरफ लगी हुई थी. ये फिल्म ‘अभिनय चक्र’ तीन साल बाद रिलीज हुई है और इसका नया नामकरण हुआ है - आ गया हीरो. और हां, एक सच ये भी है कि अक्सर तकदीर देर हो जाने वाली फिल्मों का साथ नहीं देती.
ये गोविन्दा का होम प्रोडक्शन है. इसमें न केवल एक पचास साल से ऊपर का एक थोड़ा मोटा सा हीरो है बल्कि इसमें फिल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले, संवाद और गीतों के बोल लिखने में भी इस हीरो का योगदान रहा है. खोई हुई ऊंचाइयों और धुंधलाती प्रसिद्धि वापस पाने की ये गोविन्दा की थोड़ी निराशापूर्ण और बेढंगी किस्म की कोशिश है. लगभग हर फ्रेम में यही देखना दुखद है. चाहे कितने भी उत्साही और समर्पित वो नजर आएं, लेकिन सच तो यही है कि गोविंदा अब हीरो नंबर वन नहीं हैं.
ये फिल्म सीरियल बम ब्लास्ट के एक मामले से शुरू होती है. कई गमछों और धोतियों से मुंह बांधे लोग और एक अलग डरावनी किस्म की हंसी वाला शख्स इन अपराधों की पीछे हैं. एक गुफा के भीतर कहीं बनी एक बैठक में बहुत ही बेकार किस्म के कंप्यूटर ग्राफिक्स इस शख्स को पेश करते हैं जहां उसके सामने बड़े तकनीकी उपकरण धरे हुए हैं. ये इतना बेहुदा लगता है कि समझ ही नहीं आता कि इस शॉट को रखने की ज़रूरत ही क्या थी क्योंकि वैसे भी ये गुफा बेमतलब है क्योंकि अगले दो घंटों में जो होने वाला है उसका इससे कुछ लेना-देना नहीं है.
टॉप कॉप (गोविंदा) एंट्री मारते हैं. इस बिंदु तक तो मुझे लगा कि मुझे कहानी समझ आ रही है. लेकिन जैसे-जैसे आगे नए-नए चरित्रों का परिचय मिलने लगा, कहानी के तत्व अंदर डाले जाने लगे और खलनायक खून-खराबे में व्यस्त होते गए, ज्योंही छात्रों ने आत्महत्या की और अलग-अलग किस्म की औरतें गोविंदा के साथ नाचने लगीं, फिल्म की कथावस्तु धीरे-धीरे पूरी तरह से मेरी पकड़ से बाहर हो गई ... बिलकुल वैसे ही जैसे वो गोविंदा और निर्देशक दीपंकर सेनापति की पकड़ से निकल गयी.
अपने बिखरे करियर को पटरी पर लाने वाली गाड़ी बनाने के चक्कर में एक ज़माने के इस दिल अजीज़ सितारे ने शायद 1980 वाली अपने कपड़ों की आलमारी खोली और 1990 के दशक वाली पटकथा में डुबकी मार ली. उम्र के मुताबिक ऐसी गाड़ियां पेश करने वाले मणिरत्नम (रावन) और यहां तक कि शायद अली (किल दिल) को लेकर भी उम्मीदों की किरण जिंदा रहती थीं. लेकिन तभी आ गई - आ गया हीरो.
रवींद्र एक निष्ठावान पुलिसवाले हैं जो उपदेश देने और भाषण देने के अभ्यस्त हैं. वह गोली चलाने, घूंसा मारने, छलांग लगाने, दौड़ने और गाना गाने लगने में भी फटाफट है, क्योंकि हमको पता चलता है कि औरतें उनकी कमजोरी हैं. कैमरे में हाव-भाव और बोलने के बीच में वो अचानक गाना और नाचना शुरू कर देते हैं और इस तरह का हर नाच-गाना बिलकुल एक जैसा है - पीछे नाचने वालों का कोरस, भड़कीली पोशाकें और बीच में गोविंदा हैं जो नृत्य निर्देशक गणेश आचार्य के अलग किस्म के डांस मूव्स को आसान बना कर पेश करते नज़र आते हैं.
खलनायकों की लाइन लगी हुई है इसमें जिनमें आशुतोष राणा, मकरंद देशपांडे और मुरली शर्मा भी शामिल हैं जो कि अपने मजाकिया लहजे के साथ-साथ बेहतर भी नजर आते हैं. आप और क्या कर सकते हैं जब आपके सामने इस तरह के दृश्य हों जिनमें बदमाश राणा अपनी मां की पिटाई करता है और उसके बाद मां अस्पताल में लेटी होती है और उसको खून की ज़रूरत होती है. ऐसे में राणा को जो पहला रक्त दान करने वाला मिलता है वो वहीं का ड्यूटी वाला डॉक्टर है जिसे खुद डायबिटीज होता है.
तकनीकी नजरिए से देखें तो फिल्म में कोई भी दो दृश्य एक दूसरे से टोन, रंग, ग्रेडिंग, लेंसिंग वगैरह में एक दूसरे से मेल नहीं खाते. और अगर ये सब भी ज्यादा बुरा नहीं है, तो फिर तो बेहतर है कि हम महिलाओं की बात ही न करें जो कि यहां फिल्म में पीड़ित या आइटम गर्ल्स के रूप में ही पेश की गई हैं.
हां, इसमें कोई शक नहीं कि हमारे डांसिंग हीरो के भीतर अभी भी ऊर्जा और उत्सुकता बची हुई... लेकिन 'आ गया हीरो' देख कर एकदम से यही खयाल आता है - कहां गया हीरो?