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कहानी: फिर मुझे क्यों ऐसे देखा जाता है जैसे...

एक पुराना अखबार था जिसमें निसार के बारे में खबर छपी थी और फोटो में वो अपनी मां के गले लगा हुआ था

Pradeep Awasthi

रात के ढाई बज रहे थे. नींद कहीं से भी अपने पैर लेकर हमारी ओर नहीं बढ़ रही थी. परेशान रहना हमारी आदत में शुमार हो गया था. ऊब अपना स्वाद लेकर हमारी ओर बढ़ी, हमने एक-दूसरे को देखा और फिर कुछ कहने की जरूरत नहीं रही. हम उठे और बाहर निकल आए.

मुंबई ही इकलौता ऐसा शहर है जो आपको रात के किसी भी पहर आवारा की तरह घूमने की इजाजत देता है. बाहर भौंक और सन्नाटे के सिवाय कुछ नहीं था. हम पैदल चलते हुए पुराने दिनों की बातें करने लगे, जब अपने छोटे शहरों में रहते थे और वहां से दिल्ली-मुंबई जैसे बड़े शहरों की तरह-तरह की छवि मन में बनाते थे.


थोड़ी दूरी पर पुलिस वाले खड़े थे. वे ड्यूटी पर थे. उसने मुझसे रास्ता बदल लेने को कहा. मैंने कारण पूछा तो उसने कुछ नहीं कहा और पलट कर वापस जाने लगा. मैंने रोका. हमने एक-दूसरे की आंखों में देखा. ऐसा नहीं था कि उसकी दहशत मैं समझता नहीं था लेकिन हमारी आपसी समझ के अनुसार कुछ बातें ऐसी थी जिनके बारे में बात नहीं होनी थी, वो बस समझ लेने के लिए थीं.

मैंने उसे भरोसा करने को कहा. मैंने कहा कि डरने की कोई जरूरत नहीं है. यह बात मैं इसलिए कह पाया था क्योंकि मैं उस डर को जानता ही नहीं था, जिसमे वो दिन-रात डूबा रहता था.

मेरे मुंह से जब भरोसा शब्द निकला तो मैं खुद भी कांप गया था. लेकिन हम आगे बढ़े. मैंने उसका हाथ कस कर थाम रखा था. पूरे रास्ते वह सहमा हुआ था और उसके दिल में उठती डर की आवाज मुझ तक पहुंच रही थी.

जब हम पुलिस वालों के बीच से गुजरे, मैंने उनकी आंखों में देखा और मुझे इकत्तीस दिसंबर यानि नए साल की रात में ड्यूटी करते उस पुलिस वाले की आंखों का पानी याद आया जो मुझसे पूछ रहा था कि तुम तो ऐश कर रहे हो, और मैं यहां काम कर रहा हूं. मेरे बच्चे चाहते थे कि उनका पिता आज रात बारह बजे उनके साथ हो. मेरे मन में आया कि इनसे कैसा डर.

वह नजरें झुकाए चल रहा था. हम उनसे आगे निकल गए तो उसने ऐसी सांस ली जैसी घुटते दम से छूटने की पहली सांस हो. हम देर तक घूमे और वह रह-रह कर डरता ही रहा. जब आप किसी जगह संख्या में ज्यादा होते हैं तो आप इस डर की भयावहता का अंदाजा भी नहीं लगा पाते.

इन दिनों जब फिर से मंदिर-मस्जिद की बातें फुसफुसाहटों से बदलकर शोर में तब्दील हो रही हैं, तो उसने पुरानी कुछ बातें करनी शुरू कर दी हैं. अखबारों में ज्यादा देर तक नजरें गड़ाए रहता है. ढूंढता है कहां क्या हुआ. इस रात के ढाई बजने से पहले उसने मुझे दो तीन लोगों के बारे में बताया था.

उसने मुझे निसार के बारे में बताया जो 23 साल जेल में रहा और उसे निर्दोष पाया गया. उस ढांचे के गिराए जाने के एक साल बाद कुछ ब्लास्ट हुए थे. निसार और उसके भाई को उठा लिया गया था.

निसार का कहना है, ‘मेरे जीवन के 8,150 दिन जेल में बीत गए. जीवन मेरे लिए खत्म है. जो आप देख रहे हैं वो एक जिंदा लाश है. मैं 20 साल का होने वाला था, जब उन्होंने मुझे जेल में डाल दिया. आज मैं 43 साल का हूं. मेरी छोटी बहन 12 साल की थी जब मैंने उसे आखिरी बार देखा था, अब उसकी बेटी 12 साल की है. मेरी भतीजी एक साल की थी, अब उसकी शादी हो चुकी है. एक पूरी पीढ़ी मेरे जीवन से गायब रही.’

वो फार्मेसी का सेकंड इयर का छात्र था और पंद्रह दिन बाद उसके एग्जाम थे. वो कॉलेज जा रहा था जब हैदराबाद से कर्नाटक आई एक पुलिस टीम ने उसे उठा लिया था.

मोहम्मद आमिर खान 14 साल जेल में बिताने के बाद बेगुनाह साबित हुआ. उसने एक किताब लिखी कि कैसे उसे फ्रेम किया गया. फरवरी 1998 में पुरानी दिल्ली में अपने घर के पास से उसे उठा लिया गया और नंगा करके मारा पीटा गया, गालियां और धमकियां दी गईं जिसके बाद उसने कई कोरे कागजों पर साइन किए.

उसे 19 मामलों में फंसाया गया. इसी तरह वाहिद शेख 9 साल जेल में रहकर बेगुनाह छूटा. उसे मुंबई सीरियल ट्रेन ब्लास्ट के मामले में पकड़ा गया था.

इन दिनों कई बार मुझे उसे झकझोरना पड़ता था कि वो इन सब बातों से अपना ध्यान हटाने की कोशिश करे. वो मुझे बताने लगता कि कैसे अब इतना आसान हो गया है कि व्हाट्सएप्प जैसी चीजों से अफवाह फैलाकर लोगों को भड़काया और मारा जा सकता है, कि कैसे गाय को लेकर राजनीति बढ़ गई है और कितना आसान है लोगों को बरगलाना.

करीब ढाई दशक पहले जब एक इमारत गिराई गई थी, उसके पिता ने यह डर सीखा था. उसके एक साल बाद उसके पिता पागल भीड़ से बचकर भागते हुए जब घर पहुंचे, तो उन्होंने अपने बेटे को सीने से लगाते हुए अपनी आंखों का डर उसकी आंखों में भर दिया, जो नई सदी की शुरुआत के दूसरे साल में और बढ़ गया.

वो भीड़ उस दिन उनके घर में घुस आई थी. इसके बाद और भी ऐसे साल आए जब कई-कई दिनों के लिए उसे सहमे हुए अपने घर में दुबके रहना पड़ा.

इस रात से पहले मैं उसकी बातें यूं ही टाल देता था कि इतना भी खराब नहीं सब कुछ. लेकिन एक छोटी सी घटना हुई थी. हमें गश्त लगाती हुई एक पुलिस वैन ने रोका था. हमने नाम बताया था. मैं घर से कोई आई-डी लेकर नहीं निकला था. उसके पास आई-डी थी.

मैं लापरवाह होने का खतरा उठा सकता था, वो नहीं. उसके बाद हम घर लौट आए. मेरी नजर बिस्तर पर बिखरे पड़े अखबार पर पड़ी जिसे वो सुबह पढ़ रहा था. ये एक पुराना अखबार था जिसमें निसार के बारे में खबर छपी थी और फोटो में वो अपनी मां के गले लगा हुआ था.

मैंने अखबार उठाया और उस खबर को पूरा पढ़ डाला.  ताज्जुब हुआ कि मैंने इससे पहले क्यों गंभीरता से इस खबर को पढ़ा तक नहीं.

तक नहीं. मुझे याद आया कि जब हम नए आए थे, तो किराए पर फ्लैट मिलने में हमें कितनी दिक्कत हुई थी.

सोने से पहले उसने मुझसे बस इतना कहा कि मुझे इस सब से क्या मतलब. मैंने तो कभी नहीं किया कुछ भी, फिर मुझे क्यों ऐसे देखा जाता है जैसे ……