31 दिसंबर हर वर्ष आता है. हर वर्ष इस दिन, पूरी दुनिया एक अजीब से कौतूहल में होती है. उम्र की माला का एक मनका. ये गुजरेगा तो नया सवेरा होगा. एक नए सफर से पहले का, आखिरी कदम.
लेकिन आजाद हिंदुस्तान के इतिहास में यह आखिरी कदम, एक ऐसी शुरुआत दे गया जिसे युगांतकारी घटना के रूप में हमेशा याद किया जाएगा.
2016 में यह दिन, इसलिए विशेष है क्योंकि उन घटनाक्रमों की यादगार का यह सौवां साल है.
1917, 18 और 19, सौ साल पहले यह तीन साल, महात्मा गांधी और भारतीय इतिहास के लिहाज से बेहद खास हैं.
2019, महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं जन्मशती वर्ष है. इस वर्ष को वर्तमान सरकार ने स्वछता-वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया है. और यही वह वर्ष भी होगा जब देश में अगली लोकसभा के लिए आम चुनाव होंगे.
गांधी और नेहरू की पहली मुलाकात
महात्मा गांधी और स्वाधीनता संग्राम की स्मृतियों से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं की शुरुआत 2016 से ही हो जाती है. यही वह वर्ष है जब ठीक सौ साल पहले, 31 दिसंबर को पूरी तरह से बिखरी हुई कांग्रेस के बीच एकता कायम हुई और कांग्रेस और मुस्लिम-लीग में एक ऐतिहासिक समझौता हुआ.
ऐतिहासिक इस लिहाज से भी कि लीग और कांग्रेस के बीच ये पहला और आखिरी ऐसा समझौता था जिसपर दोनों प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किये.
यही वह साल भी है जब लखनऊ में पहली बार जवाहरलाल नेहरु और गांधी की मुलाकात हुई.
गांधी, नेहरु से 20 साल बड़े थे. क्रमवार देखें तो गांधी जी 22 दिसंबर को इलाहाबाद में ‘म्योर सेंट्रल कालेज’ के अर्थ-शास्त्र विभाग में 'क्या आर्थिक उन्नति, वास्तविक उन्नति के विपरीत बैठती है?' विषय पर भाषण देने पहुंचे.
पंडित मदन मोहन मालवीय इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे.नेहरु भी इलाहबाद में थे पर वहां इस मुलाकात का संयोग नहीं बन सका.
26 दिसंबर को गांधी, लखनऊ आये, नेहरु भी अपने पिता के साथ 28 दिसंबर को लखनऊ पहुंचे.
नेहरु-गांधी की पहली मुलाकात, हो सकता है कि यह एक साधारण घटना थी लेकिन इस साधारण घटना ने एक ऐसी ऐतिहासिक दोस्ती की प्रष्ठभूमि बना दी. जिसे अगले 32 साल तक चलना था.
गांधी को ना सिर्फ अपना एक भरोसेमंद साथी मिला बल्कि भारत को दो ऐसे महत्वपूर्ण राजनेता भी मिले जिन्होंने देश के स्वतंत्रता आन्दोलन को परिभाषित किया.
इस मुलाकात ने जवाहरलाल नेहरु की शख्सियत को पूरी तरह बदल कर रख दिया. आचार्य नरेंद्र देव, जो नेहरु के बड़े विश्वासपात्र थे, एक जगह लिखते हैं कि 'यदि गांधी से ना मिले होते तो शायद जवाहरलाल एक असफल वकील होते'.
इसी साल फरवरी में, जवाहर लाल की कमला नेहरू से शादी हुई थी. यह वह समय था जब न तो गांधी में राजनीति की उत्सुकता थी, न ही जवाहर लाल में. गांधी को लगता था कि वो एक अराजनैतिक व्यक्ति हैं.
उधर नेहरू भी वकालत करें या राजनीति करें के बीच झूल रहे थे, क्योंकि उन्हें डर था कि वैवाहिक-जीवन में खर्च कैसे चलेगा. लेकिन धीरे-धीरे वे दोनों एक दूसरे पर इतने निर्भर हो गए कि कांग्रेस के इतिहास और भारतीय स्वाधीनता संग्राम की कल्पना उनके बिना की ही नहीं जा सकती.
गांधीजी ने चंपारण में कमाल दिखाया और जवाहर लाल ने असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेकर अपना जीवन ही बदल दिया.
इसी दिन हुआ था कांग्रेस-लीग के बीच समझौता
28 दिसंबर तक कई महत्वपूर्ण हस्तियां लखनऊ पहुंच चुकी थीं. इंडियन नेशनल कांग्रेस के लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, सरोजिनी नायडू, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना.
लखनऊ गवाह बन रहा था एक ऐसे लम्हे का जिसे अगले सौ वर्षों तक याद किया जाना था. इसी सम्मलेन में सरोजनी नायडू ने मोहम्मद अली जिन्ना को ‘हिन्दू-मुस्लिम’ एकता का राजदूत घोषित किया था.
कहते हैं कि जिन्ना ने लगभग एक साल की कड़ी मेहनत के बाद कांग्रेस और लीग को करीब लाने का काम किया था. लेकिन इतिहासकार आर सी मजूमदार इस समझौते की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि दरअसल कांग्रेस ने 1916 में ही पाकिस्तान निर्माण की आधारशिला रख दी थी.
दरअसल अबतक कांग्रेस की पहचान एक अभिजात्य वर्ग की पार्टी से ज्यादा कुछ नहीं थी. जिसके नेता आपसी झगड़ों में समय की बर्बादी के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं कर पाए थे जिसे मील का पत्थर माना जाता.
लेकिन लखनऊ सम्मलेन से पहले, बड़ी मेहनत और मशक्कत से कांग्रेसियों ने दल के भीतर पड़ी दरारों को पाटा था और अब वो एक कदम आगे बढ़ कर मुस्लिम-लीग का समर्थन भी चाहते थे ताकि अंग्रेजी सरकार पर प्रभावशाली दबाव बनाया जा सके.
जनता के बीच कांग्रेस द्वारा की गई इस पहल को आम जनता कैसे देख रही थी? इसकी एक बानगी देखिये. 29 दिसंबर को जब कांग्रेस अध्यक्ष और मराठा लीडर बाल-गंगाधर तिलक लखनऊ पहुंचे तो रेलवे स्टेशन से, सम्मेलन के मंच तक लोगों ने अपने कंधों से उनकी बग्घी को खींचा.
29 दिसंबर को सम्मेलन की शुरुआत में ही कांग्रेस ने समझौते का प्रस्ताव रखा जिसे मुस्लिम-लीग ने, सोच-विचार के बाद, 31 दिसंबर को स्वीकार कर लिया.
कांग्रेस की राजनीतिक दिशा में बड़ा बदलाव
लखनऊ के इस यादगार सम्मलेन के बाद भारतीय राजनीति में अनेक परिवर्तन आये. कांग्रेस असरदार लोगों के बजाय आमजन की पार्टी बनने लगी.
लखनऊ सम्मलेन से पहले तक गांधी की रुचि दक्षिणी-अफ्रीका में बसे भारतियों तक ही सीमित थी, जिसमें परिवर्तन आने लगा. उनकी संवाद शैली, लोगों को जागरूक करने का उनका तरीका, और फिर संयम बरतने और सिखाने का उनका तरीका, सब कुछ इतना रोचक था कि लोग आजादी के सपने, जागती आंखों से देखने लगे.
गांधी का व्यक्तित्व बहुत गंभीर था, दक्षिण-अफीका में बसे भारतीयों की बेहतर जिंदगी के लिए वह जिस तरह से प्रयत्नशील थे, उस लगन में उनकी गंभीरता, भारत लौटने के बाद भी कम नहीं हुई थी.
यही वजह थी कि वह यहां की सरगर्मियों को महसूस तो कर रहे थे लेकिन संभवतः समय के अभाव में उनकी ओर पूरी तरह से आकर्षित नहीं हो पा रहे थे. लेकिन लखनऊ सम्मलेन अप्रैल 2017 में अपनी चंपारण यात्रा तक भारत की स्वाधीनता ने उन्हें अपने बाहु-पाश में पूरी तरह जकड़ लिया.
गांधी के सौ साल का भारत, जिसका आरम्भ 31 दिसंबर 1916 के घटनाक्रमों से होता है. गांधी ने नीव रखी थी एक सोच की, और ये आमतौर पर कहा जाता है कि जिसके परिणामस्वरूप देश को आजादी मिली.
ये दास्तान है एक बीज की जो बोया गया, अंकुरित हुआ, पुष्पित हुआ, फिर सियासी पर्यावरण का शिकार हो गया. लेकिन जिस बाग में वो बोया गया वहां और भी फूल थे और आज भी हैं.