मुंबई की हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को कट्टरपंथियों पर औरतों की जीत के तौर पर पेश किया जा रहा है. उत्साही टिप्पणीकार इसको महिला सशक्तीकरण से जोड़कर पेश कर रहे हैं.
इसके पहले ऐसा ही माहौल महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत देने के वक्त भी बना था. तब भी और अब हाजी अली दरगाह मैनेजमेंट का ये फैसला सिर्फ प्रतीकात्मक है.
लोकतंत्र में प्रतीकात्मक फैसलों का अपना एक महत्व है लेकिन प्रतीकों से किसी समस्या का हल नहीं हो सकता है. राजनीति में प्रतीकों का महत्व हो सकता है, है भी, लेकिन समाज में इन प्रतीकात्मक जीत का बौद्धिक जुगाली के अलावा कोई खास मतलब नहीं है.
इनसे देश में महिलाओं की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. हाजी अली या शनि शिंगणापुर मंदिर जाने वाली अकेली महिला को अब भी अपने परिवार में पूछताछ का सामना करना पड़ता है. कहां जा रही हो, किसके साथ जा रही हो, कब लौटोगी, पहुंचकर फोन कर देना आदि-आदि.
प्रधानमंत्री बनने के बाद लालकिले की प्राचीर से पहली बार नरेंद्र मोदी ने जब देश को संबोधित किया था तो इस तरह की बातें करने पर उनको आलोचना का सामना करना पड़ा था. ये समाज की हकीकत है और अगर हमको इस विसंगति को दूर करना है तो इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है.
कई अधिकारों को आधार पर आंकी जाती है स्थिति
दरअसल अगर हम देखें तो पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति को पांच पैमानों पर आंका जाता है- आर्थिक आजादी, बेहतर सामाजिक स्थितियां, संपत्ति का अधिकार, मनचाहा काम करने की आजादी, संवैधानिक अधिकार.
हमारे देश में महिलाओं को संविधान बराबरी का अधिकार देता है. कुछ सालों पहले सुप्रीम कोर्ट ने संपत्ति पर भी बराबरी का हक दे दिया. बावजूद इसके अभी भी हमारे देश की सभी महिलाओं को आर्थिक आजादी हासिल नहीं है.
भारत की स्थिति बेहद दिलचस्प है. विश्व बैंक की एक स्टडी के मुताबिक भारत में पुरुषों की तुलना में कम महिलाएं मजदूरी करती हैं. इसमें एक और दिलचस्प तथ्य है कि जब देश की आर्थिक स्थिति बेहतर होती है तो ये अनुपात और कम हो जाता है यानि की परिवार की आय बढ़ती है तो महिलाएं काम करना छोड़ देती हैं.
अर्थशास्त्री इस स्थिति को अब तक स्पष्ट नहीं कर पाए हैं. इसके अलावा अगर हम देखें तो लड़कियों और महिलाओं को लेकर सामाजिक हालात बहुत अच्छे नहीं हैं. उनको अब भी अपनी मर्जी से कहीं भी कभी भी आने-जाने की न तो स्वतंत्रता है और न ही सुरक्षा.
राजधानी दिल्ली में जब हालात अच्छे नहीं हैं तो गांव देहात की तो कल्पना ही की जा सकती है. आजादी के सत्तर साल बाद भी देश की राजधानी में महिलाओं के लिए सुरक्षित और खतरनाक सड़कों और डॉर्क स्पॉट पर होने वाली बहसें इस बात का सबूत हैं कि उनकी सुरक्षा कैसी है?
औरतों और लड़कियों के लिए नागरिक सुविधाएं भी कम हैं. लड़कियों के स्कूल ड्रॉप आउट होने की एक वजह वहां शौचालयों का नहीं होना भी माना जाता है. इस दिशा में जो काम हो रहे हैं वो नाकाफी हैं.
स्कीमों का हो रहा है असर
अब से करीब एक दशक पहले यानि आजादी के साठ साल बाद देश के बजट में उन स्कीमों का अलग से जिक्र होने लगा जो सिर्फ महिलाओं के लिए प्रस्तावित की गई थीं. उसके बाद से देश में महिलाओं की स्थिति बेहतर बनाने के लिए कई राज्य सरकारों ने गंभीरता से सोचना शुरू किया.
हालात का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि बजट में महिलाओं के लिए अलग से स्कीम बनाने का काम अब तक सिर्फ सोलह राज्यों ने ही शुरू किया है. जबकि तमाम तरह के शोध इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि बजट में महिलाओं के लिए स्कीमों का अलग से प्रावधान करने से उनकी हालात में सुधार दिखाई देना शुरू हो गया है.
जिन राज्यों ने इस तरह की एक्सक्लूसिव स्कीमों को अपने बजट में जगह दी है वहां लैंगिक समानता को लेकर स्थिति बेहतर दिखाई दे रही है. स्कूलों में लड़कियों के नामांकन में बढ़ोतरी दर्ज की गई है. इसका राजनीतिक फायदा भी होता है जैसे बिहार में नीतीश कुमार ने स्कूली लड़कियों को मुफ्त में साइकिल बांटी तो उनकी लोकप्रियता बढ़ी और चुनावी नतीजों पर उसका असर दिखा. महिलाओं की स्थिति बेहतर करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना भी जरूरी है.
हमारे देश में महिला अधिकारों के लिए बात-बात पर झंडा लेकर निकलने वाली महिलाएं उनकी बेहतरी को या फिर उनकी आजादी को उनकी देह से जोड़ दे रही हैं. मेरा तन, मेरा मन जैसे नारे फिजां में गूंजते रहते हैं. मन और तन की आजादी महिलाओं के लिए आवश्यक हैं लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है उनको आर्थिक आजादी मिले, उनको सुरक्षा मिले.
समाज में वैसी स्थिति बने जो महिलाओं को सुरक्षित माहौल दे सके तभी तो सही मायने में मन और तन दोनों की आजादी का अनुभव कर पाएंगी. प्रतीकों से उपर उठकर नारीवादियों को भी ठोस काम करने की जरूरत है अन्यथा वो लेखों, कहानियों और सेमिनारों के दस्तावेजों में दफन हो जाएगा.