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यूनिफॉर्म सिविल कोड, तीन तलाक मामला: धार्मिक पुस्तकों की गलत व्याख्या

महिलाओं के लिए समान अधिकार के खिलाफ अगर कोई खड़ा है तो वो स्वयंभू धार्मिक गुरुओं का वर्ग है.

Ghulam Rasool Dehlvi

यूनिफॉर्म सिविल कोड और इस्लामिक तीन तलाक के बीच चल रही बहस को कवर करने वाली न्यूज मीडिया ने एक खास बिंदु पर चुप्पी साधी हुई है. जिस तरह इस मसले पर अदालत के आदेश के बाद किए गए कई बड़े बदलावों को मीडिया ने नजरअंदाज कर दिया ठीक उसी तरह से इससे जुड़ी कई धार्मिक पाठ की भी गलत व्याख्या की गई.

हमें एक बात अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए, वो ये कि महिलाओं के लिए समान अधिकार के खिलाफ अगर कोई खड़ा है तो वो स्वयंभू धार्मिक गुरुओं का वर्ग है. कोई भी धार्मिक ग्रंथ उस व्यक्ति को अच्छा नहीं मानता जो महिलाओं का अपमान करता हो.


पर इस समय धर्म और संविधान को लेकर जो बहस चल रही है वो बिल्कुल ही अलग तथ्य साबित करने की कोशिश कर रहा है.

विवादास्पद यूनिफॉर्म सिविल कोड

यूनिफॉर्म सिविल कोड इस कदर विवादास्पद हो गया है कि अब लोग इसपर बात करना पसंद नहीं करते. अब इसका इस्तेमाल खासतौर पर वे नेता और पंडित करते हैं जो इसके जरिए अपनी प्रभुता बरकरार रखने की कोशिश करते हैं.

जैसे कि उम्मीद थी, अब ये सोच मजबूत होती जा रही है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड एक तरह से एक संवैधानिक उलझन की देन है जैसा धार्मिक पर्सनल-लॉ को निरस्त करने के मामले में हुआ.

इसलिए सभी धार्मिक नेताओं को सबसे पहले इस बात का अवलोकन करना चाहिए कि क्या उनके पर्सनल लॉ में महिलाओं को इंसाफ, समानता और सम्मान हासिल है.

इसी संदर्भ में जानी-मानी महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली वकील फ्लाविया एग्नेस ने सही कहा है कि- एक राजनैतिक रंग में रंगे यूनिफॉर्म सिविल कोड से ज्यादा जरुरी ये है कि महिलाओं को हर धर्म में समान अधिकार हासिल हो.

और ये तभी मुमकिन होगा जब हम अंदर से बदलाव की नीति पर अमल करें. इसी नीति के आधार पर बिना किसी विवाद के हिंदू, मुस्लिम और ईसाई कानून में बदलाव लाया गया.

मुसलमानों का मुद्दा

लेकिन मुसलमानों के मामले में ये कहा जा सकता है कि, उनके समाज ने ‘अंदर से बदलाव’ जैसी किसी चीज का अनुभव नहीं किया और इसका श्रेय काफी हद तक उन धार्मिक गुरुओं या मौलवियों को जाता है जो सदियों से अपने लोगों पर राज कर रहे हैं.

मुस्लिम कानून में समय के साथ बदलाव लाया जा सकता था, उनकी भी हिंदू कानून की तरह व्याख्या की जा सकती थी लेकिन, भारतीय मुसलमान समाज अपने मौलवियों और धार्मिक गुरुओं के आदेशों और फतवों से खुद को आजाद ही नहीं कर पाया.

इससे भी बुरा ये हुआ कि भारत की सरकारें भी इन मौलवियों और पंडितों का इस्तेमाल चुनावी फायदे के लिए करती रही. किसी भी राजनैतिक दल ने कभी भी इस मुद्दे पर प्रगतिशील मुस्लिम विद्वानों से बात नहीं की.

जिस तरह से मौजूदा केंद्र सरकार ने ‘तीन-तलाक’ और ‘हिंदू बच्चियों की भ्रूण हत्या’ का खुलकर विरोध किया है, उसे उत्तरप्रदेश की सांप्रदायिक स्थिती से जोड़कर देखा जा रहा है. ऐसे में इन समस्याओं को खत्म करने का इकलौता रास्ता अंदर से बदलाव लाना ही हो सकता है, फिर चाहे वो पर्सनल लॉ का मामला हो या फिर प्रचलित प्रथाओं या रीति रिवाज का.      

धार्मिक किताबों की गलत व्याख्या

मुसलमानों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि, वे लगातार अपनी धार्मिक पुस्तकों की गलत व्याख्या को अपने जीवन का हिस्सा बना रहे हैं. ये व्याख्या जाहिर तौर पर उन पुरातनपंथी और कट्टर मौलवियों द्वारा किया जा रहा है जो आमतौर पर मस्जिदों में इमाम के पद पर बैठे हैं.

उदारहण के तौर पर अगर हम हलाला के सिद्धांत की बात करे तो पाएंगे कि कुरान में इस शब्द का जिक्र सिर्फ एक बार किया गया है और इसे सबसे ज्यादा गलत तरीके से परिभाषित किया गया है.

कुरान ने जहां तलाक का एक तार्किक तरीका बताया है, वहीं इन पुरुषवादी और कम पढ़े-लिखे मौलवियों ने इसे बिना समझे इसका गलत इस्तेमाल किया है. पहली बात तो ये है कि इसकी शुरुआत उस समय के सामाजिक और ऐतिहासिक हालातों को ध्यान में रखकर किया गया था.

दूसरी ये कि हलाला का मतलब होता है, किसी महिला के साथ उसके पहला पति की दोबारा शादी जायज होना...लेकिन तभी जब उस महिला की दूसरे व्यक्ति से शादी हुई हो और उससे भी तार्किक तरीके से तलाक.

लेकिन आज इस सुविधा का खूब बेजा इस्तेमाल इस्तेमाल हो रहा है, जिससे औरत की स्थिति एक उपयोग की वस्तु से ज्यादा नहीं रह गई.

 कुछ ऐसा ही मामला बहुविवाह को लेकर कुरान की आयतों को लेकर है. इस्लाम में बहुविवाह की इजाजत तब दी गई जब अरब में एक साथ बहुत सारी औरतें विधवा हो गईं थीं और बच्चे यतीम. तब कुरान में पुरुषों के एक से ज्यादा शादी करने को अनुमति दी गई, ताकि उन बेवा औरतों और बच्चों को सहारा दिया जा सके.

हिंदु मसला

महिलाओं के साथ भेदभाव और महिला विरोधी चलन हर धर्म में है. आज भी कई हिंदु समाज में दो औरतों के साथ शादी करने की परिपाटी जारी है, जो मुसलमानों के बहुविवाह की परंपरा   से काफी ज्यादा है. भारतीय दंड संहिता और हिंदू मैरिज एक्ट दोनों के ही इसे गैरकानूनी बताये जाने के बावजूद आज भी इसका चलन जारी है.

2011 के सेंसेस के आंकड़ों के अनुसार भारत की कुल तलाकशुदा महिलाओं में 68% हिंदू और 23.3% मुसलमान हैं. हालांकि, इस आंकड़े के मुताबिक ये भी गया है कि तलाक होने के आसार मुसलमानों में 79.21%  दूसरे धर्मों में 72.28% है.

कुछेक मामलों में तो हिंदू समाज में फैली हुई रवायत काफी महिला विरोधी है. जैसे गोवा में एक हिंदू व्यक्ति सिर्फ इसलिए दूसरी शादी करने का हकदार है, अगर उनकी पहली पत्नी 30 साल की उम्र तक बेटे को जन्म नहीं देती.

फ्लाविया एग्नेस ने फर्स्टपोस्ट को दिए गए एक इंटरव्यू ने कहा है कि, ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’ सही दिशा में नहीं बढ़ रहा है, क्योंकि वो पूरी तरह से मुस्लिम लॉ पर केंद्रित है और हिंदू लॉ के भेदभाव को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है.

फ्लाविया के अनुसार, ‘हमें सिर्फ कानून ही नहीं बल्कि हिंदू धर्म में व्याप्त महिला विरोधी परंपराओं का विश्लेषण करना चाहिए.’

मुस्लिम बहुविवाह बनाम हिंदू द्विविवाह

जाने-माने कानूनविद और हैदराबाद के नलसार यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रो.फैज़ान मुस्तफा कहते हैं कि, “मुस्लिम मर्दों को कानूनी तौर पर अपनी हर पत्नी को न सिर्फ घर में जगह देनी होगी बल्कि उनकी बराबर देखभाल भी करनी होगी.” क्योंकि एक से ज्यादा शादी करने की अनुमति जरूरी हालातों में ही मिलती है.

फैज़ान आगे कहते हैं, “इस तरह से एक मुसलमान महिला किसी हिंदु व्यक्ति की दूसरी पत्नी से बेहतर स्थिती मे होती है, जिसके पास कोई कानूनी अधिकार नहीं होता.”

हालांकि, इस तरह से हिंदू द्विविवाह और मुस्लिम बहुविवाह की तुलना करने कोई फायदा नहीं है. फायदेमंद स्थिती वो होगी जब पर्सनल लॉ को एक झटके में निरस्त करने के बजाय पहले कुछ शर्तें लागू की जाएं.

द्विविवाह हो या बहुविवाह ये दोनों ही एक प्रतिबंधित व्यवहार हो न कि हिंदु या मुसलमान पुरुष को मिला एक निरंकुश लाईसेंस.

इसके अलावा इन परिपाटियों के ‘न बदलने वाले’ तर्को को भी महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों से ज्यादा महत्व नहीं दिया जाना चाहिए.