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एक सुपरस्टार जिसने जमकर शराब पी... और जिसे शराब पी गई

आज तमाम जगह सहगल की आवाज के गाने सुनाते हुए उनका मजाक उड़ाया जाता है. उन सबके लिए जरूरी है कि वे सहगल को पहले जानें

Shailesh Chaturvedi

बहुत चर्चित किस्सा है. 1946 में एक फिल्म आई थी शाहजहां. इसके सारे गाने हिट थे. चाहे वो 'गम दिए मुस्तकिल हो' या 'जब दिल ही टूट गया हम जी के क्या करेंगे'. केएल यानी कुंदन लाल सहगल ने ये गाने गाए थे. वो उनका आखिरी दौर था. शराब की वजह से शरीर उनका साथ छोड़ने लगा था. ऐसा कोई गाना नहीं था, जो सहगल शराब पिए बगैर गाते हों.


फिल्म के संगीतकार नौशाद थे. उन्होंने सहगल को मनाने की कोशिश की. कहा कि एक गाना मेरे कहने पर बिना शराब पिए गाइए. सहगल मान गए. गाना बहुत अच्छा रहा. सहगल ने सुना और समझ आया कि बिना पिए वो बेहतर गाते हैं. सहगल थोड़ा भावुक थे. उन्होंने नौशाद के कंधे पर हाथ रखा और कहा – मियां नौशाद अली, अगर तुम मुझे इस काम के लिए पहले मना पाते, तो बेहतर होता.

सहगल ने कहा कि अब तो शराब मुझे पी चुकी है. ऐसा नहीं होता, तो मैं दुनिया को अपने गानों से और खुश कर सकता था. अफसोस इसी बात का है कि जब तक सहगल को अहसास हुआ, जिंदगी उनके मुट्ठी से फिसलने लगी थी. उन्हें पता था कि ये रेत की तरह है. एक बार फिसलने लगे, तो रोकना संभव नहीं होता. ये भारतीय फिल्म जगत के पहले सुपर स्टार की बेबसी की कहानी है.

कुछ समय पहले एक युवा के सामने सहगल की बात हुई थी, तो उसने मुंह बिचका के कहा था कि मैं तो एक ही सहगल को जानता हूं. वो बाबा सहगल हैं. दरअसल, ये कुंदन लाल सहगल नहीं, हम सबका दुर्भाग्य है कि इस महान कलाकार के बारे में हम पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को बता पाने में नाकाम रहे हैं.

मुकेश, रफी और किशोर के आदर्श थे सहगल

गायक मुकेश के शुरुआती गानों में फिल्म पहली नजर का गीत 'दिल जलता है तो जलने दे' था. वो गाना सहगल ने सुना तो कहा कि मुझे याद नहीं आ रहा, मैंने यह गाना कब गाया. मोहम्मद रफी भी सहगल के बड़े फैन थे. वो नौशाद के पास आए थे कि मैं सहगल साहब के साथ एक गाना गाना चाहता हूं. नौशाद ने फिल्म शाहजहां में 'रूही, रूही, रूही मेरे सपनों की रानी' की दो लाइनें रफी से गवाई थीं. वो गाना सहगल के साथ रफी ने कोरस की तरह गाया था. किशोर कुमार भी सहगल को अपना आदर्श मानते थे.

सुन-सुन कर सीखा संगीत

वाकई सहगल भारतीय फिल्म जगत के पहले सुपर स्टार थे. जन्म हुआ था 11 अप्रैल 1904 को जम्मू में. पिता अमरचंद जम्मू-कश्मीर के राजा के दरबार में तहसीलदार थे. मां केसर बाई बेहद धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. संगीत उन्हें बहुत पसंद था. बेटे को लेकर वो भजन, कीर्तन और शबद सुनाने ले जाती थीं.

यहीं से संगीत का कीड़ा कुंदन को लगा. कुंदन को एक्टिंग भी बहुत पसंद थी. रामलीला में वो सीता बनते थे. सूफी संत सलामत यूसुफ की दरगाह पर जाकर गाते थे. कहा ये भी जाता है कि एक तवायफ के घर जाते और छुप-छुप कर गाना सुनते थे. उसके बाद घर आकर उस गाने को खुद गाते थे. उन्होंने सुन-सुन कर ही संगीत सीखा.

पढ़ने में मन नहीं लगता था, तो स्कूल छोड़ दिया. रेलवे टाइमकीपर बन गए. फिर रेमिंगटन कंपनी के लिए टाइपराइटर बेचने लगे. इसी दौरान लाहौर के अनारकली बाजार में उनकी मुलाकात मेहरचंद से हुई. दोस्ती हो गई. मेहरचंद उन्हें गाने के लिए प्रोत्साहित करते. सहगल ने तमाम बार कहा कि वो जो भी हैं, मेहरचंद की वजह से हैं.

सहगल होटल मैनेजर भी बने. लेकिन संगीत से लगाव हर दिन बढ़ता गया. आरसी बोराल ने पान की दुकान पर उन्हें गुनगुनाते सुन लिया था. वो इतने प्रभावित हुए कि सहगल को अपने साथ लाने का फैसला किया. सहगल कलकत्ता में न्यू थिएटर से जुड़े. उन्हें 200 रुपए प्रतिमाह पर रखा गया. सहगल के गायन में फैय्याज़ खां, पंकज मलिक और पहाड़ी सान्याल का भी रोल था.

सहगल ने की तमाम यादगार फिल्में

सहगल मुंबई आ गए. उन्होंने करीब 36 फिल्मों में एक्टिंग की. इनमें देवदास भी थी, जिसे उस दौर के लोग दिलीप कुमार की देवदास से बेहतर मानते रहे. उनके गाए गैर फिल्मी गानों में भजन, गजल वगैरह गाए. ग़ालिब, ज़ौक जैसे शायरों को उन्होंने गाया. वो स्टार बन गए.

इस बीच उनका शराब से प्यार बढ़ता जा रहा था. शराब जिंदगी का सबसे जरूरी हिस्सा बन गई. उस दौर में मानते थे कि शराब से उनकी आवाज में सोज़ बढ़ता है. लेकिन इसका असर उनके काम पर दिखाई देने लगा.

जब तक कुंदन लाल सहगल को अपने हालात का अहसास हुआ, बहुत देर हो चुकी थी. काफी बीमार होने पर वो जालंधर में एक संत के पास जाना चाहते थे. लेकिन परिवार चाहता था कि मुंबई में अच्छे डॉक्टर से इलाज कराया जाए.

आखिर तय हुआ कि डॉक्टर उनके साथ जाएगा. लेकिन डॉक्टर और संत कुछ नहीं कर पाए. 42 साल की उम्र में 18 जनवरी 1947 को जालंधर में उनका निधन हो गया. सहगल के बारे में कहा जाता है कि वो आजाद भारत देखना चाहते थे. हालांकि ऐसा नहीं हो पाया.

उस दौर में जो भी गायक आते थे, वे सहगल बनना चाहते थे. चाहे वो सीएच आत्मा हों या सुरेंदर. रफी, किशोर और मुकेश की बात हम कर ही चुके हैं. लता मंगेशकर के लिए भी आदर्श थे.

यकीनन वो शहंशाह-ए मौसिकी थे. आज तमाम जगह उनकी आवाज के गाने सुनाते हुए उनका मजाक उड़ाया जाता है. उन सबके लिए जरूरी है कि वे सहगल को पहले जानें. उस दौर को जानें. उन्हें समझें. शायद तब उनके लिए सिर्फ और सिर्फ सम्मान बचेगा...और ये समझ आएगा कि काश शराब उन्हें इतनी जल्दी न छीन लेती.