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शरद जोशी : ‘कबीर की तरह बहुरि अकेला’

शरद जोशी तीखे व्यंग्य बाणों को बेआवाजों का हथियार बनाकर शासक और शोषक पर वार किए

Raajkumar Keswani

एक ऐसे समय में जब विकृतियों और विद्रूपताओं का बोल-बाला हो. समाज दो फाड़ होने के कगार पर आ खड़ा हुआ हो, ऐसे समय में सदा ही एक ऐसी आवाज की जरूरत होती है जिसे सुनकर बंद आंखें खुल जाएं. शब्द तीर की तरह चुभें और दर्द भी हो और ज्ञान चक्षु खुलने की प्रसन्नता में दिल खुशी से नाच भी उठे.

हिंदी कथाकार-व्यंग्यकार शरद जोशी (21 मई 1931, उज्जैन-5 सितंबर 1991) एक ऐसी ही आवाज थे. उन्होने अपने तीखे व्यंग्य बाणों को बेआवाजों का हथियार बनाकर शासक और शोषक पर वार किए और आम आदमी को अपनी ताकत का अहसास दिलाया. उन्हें सही और गलत को पहचानने में मदद की.


उनका एक प्रसिद्ध व्यंग्य है; ‘एक शंख बिन कुतुबनुमा’. यहां एक व्यक्ति हाथ में शंख लिए व्यंग्यकार से टकरा जाता है और सवाल करता है : ‘उत्तर दिशा किस तरफ है बाबू, आप पढ़े-लिखे हैं, इतना तो बता सकते हैं...? .... मुझे उत्तर दिशा की ओर मुंह कर यह शंख फूंकना है.’

इस सवाल के जवाब में कि वह ‘शंख किस उदेश्य से फूंकना चाहता है?’ वह कहता है : ‘मैं यह दिव्य शक्ति सम्पन्न शंख उत्तर दिशा की ओर फूंकूंगा. इसका स्वर दिगंत तक गूंज उठेगा और उत्तर दिशा की पापात्माएं इसका स्वर सुनकर नष्ट हो जाएंगी.’

जवाब सुनकर व्यंग्यकार उसे सलाह देता है : ‘आप चारों ओर घूमकर सभी दिशाओं में इसे फूंक दीजिए, पाप तो सर्वत्र फैला हुआ है.’

स्कूल के समय ही लगा लिखने का चस्का

शरद जोशी की जीवन गाथा बड़ी अनोखी है. स्कूल के जमाने से ही उन्हें लिखने का चस्का लग गया. स्वभाव में भरपूर खिलंदड़ापन था. सो कुछ बाल मित्रों के साथ मिलकर एक संस्था बनाई ‘बाल साहित्य’ का गठन किया. चाट-पकोड़ी की जगह जेब खर्च के पैसे से एक हस्तलिखित पत्रिका ‘हंसोड़’ निकालना शुरू किया. पत्रिका के सम्पादक थे शरद जोशी.

sharadjoshi.co.in से साभार

पूत के पांव पालने में न सही लेकिन स्कूल में तो दिख ही गए. मां का बड़ा अरमान था कि बेटा इतना पढ़-लिख ले कि उसे पोस्ट ऑफिस में नौकरी मिल जाए. मां की इस तमन्ना के पीछे एक बड़ी मार्मिक वजह थी. उन्हें लगता था कि दुनिया में हर जगह बेईमानी का बोल-बाला बढ़ रहा है. पोस्ट ऑफिस एक ऐसी जगह है जहां टिकट और लिफाफे सही कीमत में और हर किसी को बिना भेद-भाव मिल जाते है.इससे ज्यादा ईमानदारी की नौकरी और कोई नहीं हो सकती.

मां चाहती थीं पोस्ट ऑफिस में नौकरी करें शरद

शरद जोशी ने मां की इस मासूम लेकिन ईमानदार अभिलाषा को एक विराट रूप देकर और जीकर दिखाया. पोस्ट ऑफिस में नौकरी तो न की लेकिन एक ‘पोस्ट ऑफिस’ नामक एक व्यंग्य जरूर लिखा और इस एक व्यंग्य के जरिए देश में व्याप्त राजनीतिक भ्रष्ट व्यवस्था की धज्जियां बिखेर दीं. उनका विचार था कि अगर अंग्रेज एक पोस्टल व्यवस्था कायम न कर चुके होते तो हमारी देसी सरकार यह काम करती. और कुछ यूं करती.

'और वह पोस्टल व्यवस्था भी एकदम भिन्न एवं सरकारी पद्धति के माफिक होती. यह मजाक नहीं चलता कि अगर मुझे चिट्ठी लिखनी है तो खरीदा पोस्ट कार्ड, लिखा और लाल डिब्बे में झोंक दिया. होता यों कि जैसे मुझे भोपाल से दिल्ली चिट्ठी लिखनी है, तो मैं कलेक्टरेट जाता और एक आवेदन करता कि मुझे दिल्ली चिट्ठी भेजनी है. जवाब में क्लर्क दस पैसे ले एक प्रपत्र (यदि उस समय उपलब्ध होता तो) मुझे दे देता. नाम,पिता का नाम,राष्ट्रीयता,स्थायी पता, जिसे पत्र भेजना है उसका नाम,पता,राष्ट्रीयता,पत्र भेजने तथा पाने वाले के परस्पर संबंध, पत्र भेजने का कारण तथा इस बात की गारंटी कि ऐसी-वैसी नहीं लिखूंगा तथा पत्र की सामग्री संक्षिप्त में. मेरा वह आवेदननुमा प्रपत्र क्लर्क द्वारा जांचे जाने के बाद उपरांत कलेक्टर अथवा डिप्टी कलेक्टर इंचार्ज के पास जाता. जाहिर है, वे तब दौर पर होते....'

शरद जोशी ने कालेज के जमाने से ही इंदौर से प्रकाशित हिंदी दैनिक ‘नई दुनिया’ में कॉलम लिखना शुरू कर दिया था. गमे रोजगार से मजबूर होकर मध्य प्रदेश सरकार की नौकरी की तो उनके आजाद और बेबाक लेखन के नतीजे में नौकरी भी छोड़नी पड़ी. कला और संस्कृति के सरकारी आकाओं से इस कदर विवाद हुए कि भोपाल में अपने परिवार को छोड़ बंबई जा पहुंचे.

1968 में चकल्लस कार्यक्रम में लूट वाहवाही

शरद जोशी व्यंग्य लिखने में जितने सिद्ध-हस्त थे उतने ही उस लिखे को पढ़ने में. उन्होने 1968 में बंबई के ‘चकल्लस’ कार्यक्रम में हास्य कवियों के साथ जब अपनी गद्य रचना का अनोखा पाठ किया तो सभागार दर्शकों की वाह-वाह से गूंज उठा. उसके बाद तो यह सिलसिला देश भर में चल पड़ा और तकरीबन 20 साल तक चलता रहा.

इस समय तक ‘धर्मयुग’ और बाद में ‘रविवार’ के अपने कॉलम ‘नावक के तीर’ से भी उनकी ख्याति घर-घर जा पहुंची थी. बंबई में फिल्म जगत ने उन्हें खुली बाहों आमंत्रित किया लेकिन यहां भी उन्होने हर प्रस्ताव स्वीकार करने की बजाय सिर्फ अपनी जरूरत और पसंद को तवज्जो दी.

उन्होने ‘क्षितिज’(1974) से शुरुआत करते हुए उन्होने बीआर.चोपड़ा की सुपर हिट फिल्म ‘छोटी सी बात’(75), ‘गोधुलि’(77) ‘सांच को आंच नहीं’(79), ‘चोरनी’(82), ‘उत्सव’(84) और ‘दिल है कि मानता नहीं’(91) जैसी कई फिल्मों के डॉयलाग लिखे.

दूरदर्शन को एक अनोखी पहचान देने वाला उनका लिखा सिटकॉम ‘ये जो है जिंदगी’ आज भी अपनी यादों से लोगों के दिल में गुदगुदी पैदा कर देता है. टीवी पर उन्होने ‘विक्रम और बेताल’, ‘सिंहासन बत्तीसी’, ‘दाने अनार के’, ‘वाह जनाब’, ‘श्रीमती जी’ जैसे कामयाब सीरियल लिखे.

जीवन भर अपने उसूलों से समझौता न करने के कारण उन्हें जीवन भर ही संघर्ष करना पड़ा. इन्हीं कारणों से वे हमेशा ही सत्ताधीशों की नजर की किरकिरी बने रहे और उन्हें हर तरह के संस्थागत मान-सम्मान से वंचित रखा गया. 1990 में जाकर उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया. 5 सितम्बर 1991 को 60 वर्ष की आयु में उनका देहांत हुआ.

उनकी मृत्यु को 26 बरस बीते जाते हैं लेकिन उनके लिखे लोकप्रियता में कमी होने की बजाय लगातर वृद्धि हो रही है. 2009 में उनकी प्रकाशित कहानियों पर आधारित टीवी सीरियल ‘लापतागंज’ जबरदस्त हिट हुआ. उनकी एक पुरानी कहानी पर आधारित ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ 2010 में एक बेहद कामयाब फिल्म साबित हुई.

'शरद जोशी आखिरी दिन तक चलते रहे'

प्रसिद्ध पत्रकार, ‘जनसत्ता’ के प्रखर संपादक प्रभाष जोशी ने शरद जोशी के अवसान के समय लिखा था : 'शरद जोशी आखिरी दिन तक चलते रहे. कबीर की तरह बहुरि अकेला आदमी बहुत दूर तक जाता है. जहां शरद जोशी पहुंचे, वह खाला का घर नहीं है. वहां शरद जोशी अपना सिर देकर गए हैं. कोई माई का लाल वहां क्या पहुंचेगा. शरद जोशी ने आसमान में अपनी खूंटी गाड़ी है. कोई गाड़ेगा ? गाड़े तो मुझे बताना.'