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शायरी खेल नहीं है यारों जिसे कोई भी खेले…

शायरी खेल नहीं है, वो एक साधना है, मगर उसे खेल बना दिया गया है.

Nazim Naqvi

कोई तीस साल पहले इलाहाबाद में एक नॉन-वेज शेर सुना था. सुना क्या था कंठस्थ कर लिया था. उसकी पहली लाइन कुछ इस तरह थी ‘शायरी खेल नहीं है यारों जिससे लौंडे खेलें.’ शेर की दूसरी पंक्ति लिखना, शिष्टाचार के पैमानों को लांघना होगा. जिन्हें याद है वो उसे दोहरा लें, जिन्हें नहीं पता वो अपने हिसाब से दूसरी लाइन गढ़ लें. शेर का मतलब ये था कि शायरी बच्चों का खेल नहीं है, सदमे झेलते-झेलते हालत खराब हो जाती है.

नॉन-वेज शायरी? जी हां, नॉन-वेज शायरी. हमारे अदब (साहित्य) की एक ऐसी विधा जो लिखी कम गई लेकिन भारतीय शास्त्रीय संगीत की तरह सीना-ब-सीना चली आ रही है. बड़े-बड़े नामी शायरों (कवियों) ने इस रस में अपने हाथ आजमाए हैं और अक्सर महफिलों या गोष्ठियों में उनका अप्रकाशित कलाम, संजीदा माहौल का जाएका बदलने के लिए इस्तेमाल होता रहता है.


दरअसल शायरी वो कला है जिसके बारे में अक्सर ये कहा जाता है कि ये मानव-जाति को एक दैवीय-उपहार (गॉड-गिफ्ट) है जो किसी-किसी को मिलता है. सीधे अल्फाज में कहा जाए तो ये एक रुझान है लेकिन इस रुझान को अगर एक जौहरी मिल जाए और उसे तराश दे तो उसमें एक चमक पैदा हो जाती है.

तब यूं ही नहीं मिलती थी शागिर्दी 

शायरी में इस जौहरी को उस्ताद कहते हैं. एक जमाना था जब उस्ताद-शागिर्द का रिवाज आम था. उस जमाने में किसी उस्ताद की शागिर्दी मिलना इतना आसान भी नहीं था. पसंद के उस्तादों के सौ-सौ चक्कर लगाने पड़ते थे, तब कहीं जाकर, अगर आपके रुझान और सीखने की ललक से जनाब प्रभावित हो गए, तो शागिर्दी कुबूल करते थे.

शागिर्द बनने के बाद आपको अपने कलाम पर लगातार मश्क (साधना) करनी पड़ती थी. जब तक उस्ताद इजाजत न दें, शागिर्द किसी को अपना कलाम सुना नहीं सकता था. यानी जब शायरी काफी पुख्ता हो जाती थी तभी ये इजाजत मिलती थी कि वो अवाम के बीच जाकर उसे सुना सकता था.

आज जो शायरी हमारे सामने है उसका एक बड़ा हिस्सा, शायरी के उसूलों से वाकिफ ही नहीं है. न शब्दों का सही ज्ञान है न उच्चारण का अनुमान है. आज के ऐसे ही शायरों के लिए नांगिया साहब का एक शेर, वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ बड़े मजे लेकर अक्सर सुनाते हैं- ‘मैंने पूछा यारों से क्या मैं भी गा दूं एक गजल / यार बोले नांगिया जी देख लो.’

दाग़ देहलवी

जब निदा फाजली के पिता ने तोड़ी अपनी बेटी की मंगनी 

निदा फाजली उस्ताद-शागिर्द परंपरा का एक वाकया अपने ही घर का सुनाते थे. किस्सा नाखुदा-ए-सुखन ‘नूह नारवी’ से ताल्लुक रखता है. नूह साहब ‘दाग़-देहलवी’ के शागिर्द थे. उन्हें दाग़ साहब का पूरा कलाम मुंहजबानी याद था. नूह साहब के शागिर्द, निदा फाजली के वालिद ‘दुआ डिबायवी’ थे. हम आपको उस्ताद-शागिर्द के बीच किस तरह का रिश्ता होता था, इसकी झलक दिखाते हैं लेकिन पहले नूह साहब की शायरी की एक झलकी पेश है कि किस अंदाज की शायरी वो किया करते थे.

वो कहते हैं आओ मेरी अंजुमन में, मगर मैं वहां अब नहीं जाने वाला

कि अक्सर बुलाया, बुलाकर बिठाया, बिठाकर उठाया, उठाकर निकाला

या फिर उनका ये शेर –

जो वो गम न रहा तो वो दिल न रहा, जो वो दिल न रहा तो वो हम न रहे

जो वो हम न रहे तो वो तुम न रहे, जो वो तुम न रहे तो मजा न रहा

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निदा साहब बताते थे कि मेरे वालिद दुआ डिबायवी नूह साहब के फारिगुल-इस्लाह शागिर्द थे (फारिगुल-इस्लाह उस शागिर्द को कहते हैं जिसके कलाम में इतनी प्रौढ़ता या मश्क आ जाए कि उस्ताद उसे बिना दिखाए कलाम पढ़ने की इजाजत दे दे). उस्ताद के प्रति मेरे वालिद की आस्था, मेरे बचपन की एक ऐसी याद है जो मैं कभी नहीं भूल सकता.

नूह नारवी

‘मेरी मां ने मेरी बड़ी बहन के लिए, अपनी बड़ी बहन के मंझले बेटे को चुना था. वो लोग दिल्ली में रहते थे, हम लोग ग्वालियर में. ये रिश्ता जब वालिद को मंजूर हो गया तो मेरी मौसी/खाला अपने बेटे को लेकर, मंगनी की रस्म करने दिल्ली से ग्वालियर आयीं. रस्म की एक रात पहले गुफ्तुगू के दौरान मेरी बहन के मंगेतर ने दिल्ली के किसी मुशायरे का हवाला देते हुए कहा कि ‘उस मुशायरे में नूह नारवी साहब को पसंद नहीं किया गया और मैंने और मेरे साथियों ने उन्हें खूब ‘हूट’ किया.’

निदा साहब बताते थे कि ‘अपने होने वाले दामाद के मुंह से अपने उस्ताद की शान में ऐसी गुस्ताखी पर उस वक़्त तो वो खामोश रहे लेकिन दूसरे दिन उन्होंने ये कहकर मंगनी तोड़ दी कि जो लड़का मेरे उस्ताद का एहतेराम नहीं कर सकता वो मेरी बेटी के लिए कैसे ठीक हो सकता है. उनके इस फैसले को न मेरी मां के आंसू बदल सके और न ही लड़के की लगातार माफी ने कोई असर किया. वो जैसे आये थे वैसे ही चले गए और दो जिंदगियां करीब आते-आते अलग-अलग दिशाओं में मुड़ गईं.’

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नूह साहब को भी ऐसी ही आस्था अपने उस्ताद ‘दाग़ देहलवी’ से थी. दाग़ साहब भी जिसको अपना शागिर्द बनाते थे उस से, पहले अपने उस्ताद ‘जौक़’ और जौक़ के उस्ताद ‘शाह नसीर’ की फातिहा दिलवाते थे और इसी को अपनी ‘दक्षिणा’ कहते थे. नूह साहब के लिए मशहूर था कि वो जिसे शागिर्द बनाते थे उससे भी उस्तादों के कम से कम पांच हजार ‘अशआर’ (शेर का बहुवचन) याद करवाने कि मशक्कत करवाते थे.

निदा फाजली

शायरी एक साधना है 

निदा फाजली से अक्सर इस विषय पर हमारी बात होती रही. उनका खयाल था कि अब शायरी बाजारी हो गई है. लफ्ज का बहुवचन अल्फाज होता है लेकिन अब अल्फाज का अल्फाजों होने लगा है. जज्बात को धड़ल्ले से जज्बातों कहकर इस्तेमाल किया जा रहा है. ये वो दौर है जहां झूठ बोलना जुर्म है, चोरी करना जुर्म है मगर जबान का गलत होना जुर्म नहीं है. आज शायर को परफार्मेंस से जाना जाता है, शायर बहुआयामी हो गया है. अब मुशायरे की परंपरा में शायर वही लिख रहा है जो मंच पर पसंद किया जाए.

शायरी खेल नहीं है, वो एक साधना है, मगर उसे खेल बना दिया गया है. अच्छी बात ये है कि इस खौफनाक दौर में भी कुछ नौजवान अच्छी शायरी कर रहे हैं इसलिए उम्मीद का दामन हाथों से छूटा नहीं है. इस विषय के कुछ और पहलू लेकर फिर हाज़िर होऊंगा, फिलहाल चलते-चलते मुज़्तर खैराबादी का एक शेर मुलाहिजा फरमाइए-

निगाहे-यार मिल जाती तो हम शागिर्द हो जाते

जरा ये सीख लेते दिल के ले लेने का क्या ढब है