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जन्मदिन विशेष: सत्यजीत रे तो एक खुशबू का नाम है

कुरोसावा ने कहा था, अगर आपने सत्यजीत रे का सिनेमा नहीं देखा तो आपने सूरज-चांद नहीं देखा

Girijesh Kumar

आते जाते ट्रैफिक में बड़ी बेचैनी से कुछ ढूंढ रही थीं एंतोनियो की परेशान नजरें. साथ चल रहा नन्हा ब्रूनो भी पापा पर अचानक टूटी आफत से उदास हो गया था. दोनों मिलकर जल्दी से जल्दी अपनी उस प्यारी साइकिल ढूंढ लेना चाहते थे. वो साइकिल जिसे खरीदने के लिए मारिया ने जरूरत की चीजों के साथ घर की बेडशीट तक गिरवी रख दी थी. वो साइकिल जिसके बिना एंतोनियो को बड़ी मुश्किल से मिली पोस्टर चिपकाने की नौकरी छिन सकती थी.

साल 1948 में आई इटालियन डायरेक्टर वितोरियो दे सिका की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म 'बायसिकिल थीव्स' के यही वो दिल छू लेने वाले सीन थे जिन्होंने 27 साल के एक युवक को फिल्ममेकिंग की तरफ मोड़ दिया था. तब कोई नहीं जानता था कि कलकत्ता में जन्मा और पला बढ़ा ये युवक आगे चलकर विश्व सिनेमा के दिग्गज निर्देशकों की कतार में खड़ा होने वाला है. तब कोई नहीं जानता था कि उस युवक का नाम 20वीं शताब्दी के महानतम निर्देशकों में शुमार होनेवाला है.


भारतीय सिनेमा में सत्यजीत रे की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि जापान के महान फिल्मकार अकीरो कुरोसावा ने कहा था- ‘अगर आपने सत्यजीत रे का सिनेमा नहीं देखा तो मतलब है आप सूरज या चांद देखे बगैर दुनिया में रह रहे हैं.’

कुरोसावा के साथ रे

एक बहुत पुराना घिसा पिटा जुमला है- उनके बारे में कुछ कहना तो सूरज को दीया दिखाने जैसा है, लेकिन सत्यजीत राय की शख्सियत को आप समझेंगे तो लगेगा कि ये जुमला उन्हीं के लिए गढ़ा गया था.

1955 में आई थी रे की पहली फिल्म पाथेर पांचाली. पहली ही फिल्म ने 11 इंटरनेशनल अवार्ड जीते. जी हां, 11 इंटरनेशनल अवार्ड जिनमें वैंकूवर में बेस्ट फिल्म, रोम में वेटिकन अवॉर्ड, टोक्यो में बेस्ट फॉरेन फिल्म अवॉर्ड और कान फिल्म फेस्टिवल का बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट अवॉर्ड भी शामिल है.

दरअसल रे की हर फिल्म ह्यूमन डॉक्यूमेंट ही लगती है. चाहे वो अपू ट्रायलॉजी हो जिसमें अपू के बचपन से युवा होने की कहानी पाथेर पांचाली से शुरू होकर अपूर संसार होते हुए अपराजितो तक पहुंचती है या फिर चारुलता हो, नायक हो, जसलाघर हो, देवी हो, तीन कन्या हो.

इंसानी रिश्ते, भावनाएं, संघर्ष, खुशियां, प्यार, मुस्कुराहटें, विसंगतियां, इन सब को इतनी बारीकी के छूते थे सत्यजीत रे कि लगता था हम फिल्म नहीं देख रहे, पड़ोस के घर की कहानी सुन रहे हैं. यही वजह है कि सत्यजीत रे की फिल्में हिंदुस्तान की जमीन से उठकर पूरी दुनिया और पूरी मानवता के फलक से जुड़ जाती हैं. यही वजह है कि रे का नाम उस फेहरिस्त में शामिल हो जाता है जिनमें अकीरा कुरोसावा, अल्फ्रेड हिचकॉक, चार्ली चैप्लिन, फेडेरिको फेलिनी, इंगमार बर्गमैन, ज्यां रेन्वार और यसुजीरो ओजू जैसे सिनेमा के चर्चित चितेरे शामिल हैं.

सत्यजीत रे इस कदर बहुमुखी प्रतिभावाले फिल्मकार थे कि सुनकर भी यकीन करना मुश्किल है. वो अपनी फिल्मों के सारे स्क्रीन प्ले खुद लिखते थे (बहुत सी फिल्में तो उन्होंन अपनी ही कहानियों पर बनाईं) वो खुद की फिल्म का सेट और कॉस्ट्यूम डिजाइन करते थे, 1961 के बाद से उन्होंने अपनी हर फिल्म में संगीत भी खुद दिया, 1964 में आई चारुलता के बाद से वो कैमरा भी खुद संभालने लगे थे. इतना ही नहीं अपनी नई फिल्मों के लिए पोस्टर तक वो खुद डिजाइन किया करते थे. रे कंपोजर थे, राइटर थे, ग्राफिक डिजाइनर थे. अब कहां मिलते हैं ऐसे महामानव.

खास बात ये है कि सत्यजीत रे ने अपना सिनेमाई सफर ऐसे एक्टर्स और टेक्नीशियंस के साथ शुरू किया जिनमें से ज्यादातर फिल्मों में नए थे. और 37 साल और 36 फिल्मों के अपने पूरे करियर में उनके क्रू में कोई खास बदलाव नहीं आया. उनकी हर फिल्म एक ही एडिटर रहे- दुलाल दत्त, उन्होंने अपनी सारी फिल्में सिर्फ 3 सिनेमैटोग्राफर और 2 आर्ट डायरेक्टर्स के साथ बनाईं.

पाथेर पांचाली का दृश्य

रे को सौमित्र चटर्जी के अभिनय पर शायद सबसे ज्यादा भरोसा था, अपू ट्रायोलॉजी हो या फिर देवी, तीन कन्या हो या फिर चारुलता, रे की 36 फिल्मों में से 15 फिल्मों में सौमित्र चटर्जी मुख्य भूमिका में रहे. यहां तक कि 1990 में आई शाखा-प्रशाखा में भी सौमित्र चटर्जी अहम भूमिका में नजर आए.

दरअसल कलाप्रेम और दार्शनिक सोच रे को विरासत में मिली थी. उनके दादा उपेन्द्र किशोर रे जाने माने वैज्ञानिक थे जबकि पिता सुकुमार रे लेखक थे. कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद अपनी मां के कहने पर रे 2 साल के लिए गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन में भी रहे. गुरुदेव के सानिध्य में भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा का विकास हुआ. 1943 में ब्रिटिश एडवरटाइजमेंट कंपनी से बतौर ‘जूनियर विजुलायजर’ उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की, लेकिन नियति उन्हें फिल्मों की तरफ खींच लाई.

देखा जाए तो बायसिकिल थीव्ज के निर्देशक वितोरियो डि सिका के अलावा सत्यजीत रे को फिल्मों से जोड़ने में फ्रांसीसी निर्देशक ज्यां रेन्वार का भी बड़ा रोल रहा. रेन्वार साल 1949 अपनी फिल्म ‘द रिवर’ की शूटिंग के लिए लोकेशन की तलाश में कलकत्ता आये थे. उन्हीं दिनों उनकी सत्यजीत रे से मुलाकात हुई. रेन्वार ही रे की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें फिल्मों से जुड़ने की सलाह दी. इसी के बाद रे अपने अलहदा अंदाजा का सिनेमा बनाना शुरू किया.

सत्यजीत रे को अभी बहुत काम करना था, अभी सिनेमा संसार को बहुत कुछ देना था. महज 70 साल की ही तो उम्र हुई थी उनकी, लेकिन वो एक शेर है ना –

बड़े शौक से सुन रहा था जमाना

तुम्ही सो गए दास्तां कहते-कहते

1991 में उत्पल दत्त के अभिनय से सजी आगंतुक सत्जीत रे की आखिरी फिल्म रही. 1992 में इस महान फिल्मकार की जिंदगी के चलचित्र का पटाक्षेप हो गया. सत्यजीत रे की कालजयी फिल्में हमेशा सिनेमा प्रेमियों और सिनेमा के प्रशिक्षुओं के लिए अनमोल धरोहर रहेंगी और आने वाली सदियों को बहुत कुछ सिखाती रहेंगी.

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(यह लेख 2 मई 2017 को छप चुकी है. इसे दोबारा प्रकाशित किया गया है.)