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हम धर्मनिरपेक्ष देश ही क्यों, लिंगनिरपेक्ष देश क्यों नहीं हो सकते?

लगता है धर्मनिरपेक्षता बस हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई-पारसी-बौद्ध जैसे श्रेणियों में बंट गई है और लिंगभेद तक आते-आते हवा हो चुकी है

Tulika Kushwaha

पिछले साल 29 नवंबर को जब 70-80 महिलाओं का समूह मुंबई के मशहूर हाजी अली दरगाह पहुंचा, तो पूरे देश में इसे महिलाओं के साथ धार्मिक फ्रंट पर होने वाले लैंगिक भेदभाव के खिलाफ जीत बताया गया था. और कहा गया था कि अब महिलाओं का अगला पड़ाव सबरीमाला मंदिर होगा.

सबरीमाला में 10 से लेकर 50 साल की महिलाओं का प्रवेश निषेध है. इस भेदभाव के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को ये याचिका संवैधानिक पीठ को भेज दी है.


इस बहाने बात सबरीमाला मंदिर या ऐसे मंदिरों, मस्जिदों या दरगाहों की, जहां महिलाओं को अछूत समझकर प्रवेश नहीं करने दिया जाता है. ऐसा नहीं है कि इस बारे में पहली बार बात की जा रही है. इस मुद्दे पर सालों से सवाल उठाए जाते रहे हैं, दलीलें दी और खारिज की जाती रही हैं. लेकिन मुद्दा ज्यों का त्यों है.

45 दिन और 28 दिनों का चक्कर

सबरीमाला मंदिर के दर्शन की यात्रा की शुरुआत और समापन में पूरे 45 दिन लगते हैं. अब चूंकि महिलाओं को हर महीने (28 दिनों के चक्र पर) पीरियड से गुजरना होता है, तो वो ये 45 दिन बिना 'अपवित्र' हुए नहीं रह सकतीं, इसलिए उनकी 'अपवित्रता' को देखते हुए उनके प्रवेश को ही बैन कर दिया गया है.

इसके पीछे तर्क ये भी दिया जाता है कि इस मंदिर में जिन भगवान अयप्पा की पूजा की जाती है, वो ब्रह्मचारी हैं और तपस्या में लीन हैं, इसलिए महिलाओं का प्रवेश निषेध है. धार्मिक तौर पर बनाए गए ये विधान महिलाओं के लिए कई बार अपमानजनक प्रतीत होते हैं. क्योंकि हिंदू धर्म में किसी ऋषि की तपस्या तोड़ने का जिक्र आता है तो मेनका का जिक्र होता है. सबरीमाला मंदिर में भी दर्शन की इच्छा रखने वाली किसी महिला को भी आप ऐसे तर्कों से मेनका की कैटगरी में खड़ा कर देते हैं.

अगर मान भी लें कि इस मंदिर के पीछे महिलाओं की माहवारी ही समस्या है तो 1 दिन में ही दर्शन की प्रक्रिया पूरी हो जाने वाले मंदिरों या दरगाहों की क्या समस्या है? क्या 3-5 दिन पीरियड के चक्र में रहने वाली महिला हमेशा के लिए अपवित्र है?

क्या पुरुष ही भक्त होते हैं?

अब दूसरा सवाल, क्या धर्म महिलाओं का नहीं है? वो बस बेटे-पति के लिए व्रत रखने और सिर झुकाकर पूजा करने के लिए हैं? क्या उनकी आस्था हर मंदिर, हर मस्जिद, हर दरगाह के आगे बदलती रहती है? आखिर कोई धर्म, आस्था या विश्वास पर कैसे रोक लगा सकता है? क्या पुरुष ही सच्चे भक्त हो सकते हैं? क्या भगवान लिंग देखकर भक्त चुनते या फल देते हैं? खैर, भगवान क्या करते हैं, ये तो भगवान पर ही छोड़ दीजिए. ये देखिए कि यहां धर्म के नियम-कानून बनाने वालों ने क्या किया है.

एक औरत के शरीर से पैदा होकर, नवजात शिशु के रूप में उसका दूध पीकर, उससे जिंदगी का ककहरा सीखकर फिर उसे ही धर्म की एबीसीडी सिखाने वाले लोगों को खुद से ये पूछना चाहिए कि वो खुद अपवित्र कैसे नहीं हैं? जो शरीर अपवित्र है, जिस शरीर को मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं है, आप भी तो उसी शरीर के अंश हो, फिर आप कैसे शुद्ध हो गए?

धर्मनिरपेक्ष, लिंगनिरपेक्ष नहीं

धर्म को मानना न मानना, किसी निश्चित प्रतीक या विश्वास में आस्था रखना न रखना हर किसी का अधिकार होना चाहिए. संविधान में भी हर किसी को हर अपना धर्म चुनने का अधिकार है. हम एक धर्मनिरपेक्ष देश हैं लेकिन लगता है ये धर्मनिरपेक्षता बस हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई-पारसी-बौद्ध जैसे श्रेणियों में बंट गई है और लिंगभेद तक आते-आते हवा हो चुकी है.

इसलिए औरतों को बेवजह के तर्कों के आधार पर धर्म और आस्था के पाठ न पढ़ाए जाएं, धर्म के ठेकेदारों को ये पाठ सीखने की जरूरत है.