काशी की सांस्कृतिक विरासत का शृंगार है रामनगर की रामलीला. करीब 245 साल पुरानी इस रामलीला का आकर्षण वक्त के साथ और बढ़ता ही गया. यहां परंपराओं का रस है, रामभक्ति का भाव है जो एक महीने तक चलने वाले इस उत्सव से भक्तों को बांधे रखता है.
काशी की ये मशहूर रामलीला मंगलवार तीसरे पहर से शुरू हो गई है और अगले 31 दिनों तक यूं ही अनवरत चलेगी.
तकनीकी के इस दौर में भी रामनगर की रामलीला पुरानी रवायत, सदियों की संस्कृति को अपने साथ लेकर चल रही है. आज भी इस रामलीला में बिजली, लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं होता. सुनकर शायद यकीन न हो, लेकिन रामलीला स्थल पर पात्रों के संवाद वहां मौजूद सबसे आखिरी शख्स को भी साफ सुनाई देता है. और वह आखिरी शख्स और कोई नहीं बल्कि हाथी के हौदे पर सवार, राजसी वस्त्रों में सुशोभित काशी नरेश होते हैं.
व्यापारी की उलाहना पर शुरू की थी रामलीला
रामनगर की रामलीला कब शुरू हुई, इसका कोई स्पष्ट ऐतिहासिक साक्ष्य तो नहीं है. कहते हैं कि काशी नरेश उदित नारायण ने इसे 1776 में शुरू कराया था. कई लोग रामलीला शुरू होने का समय 1780 के बाद भी मानते हैं. यहां के लोग बताते हैं कि एक बार मिर्जापुर का एक व्यापारी काशी नरेश से मिलने आया था. उसने यहां कोई रामलीला न होने पर आश्चर्य तो जताया ही था, काशी नरेश को इसकी उलाहना भी दी थी.
बताते हैं कि उस व्यापारी की बात काशी नरेश को चुभ गई थी. उन्होंने इसके बाद ही यह रामलीला शुरू की थी जो आज विश्व पटल पर अपनी अलग पहचान बना चुकी है. कई लोग ये भी मानते हैं कि खुद महारानी ने रामनगर में रामलीला न होने की उलाहना महाराज को दी थी. उसके बाद ये रामलीला शुरू हुई थी.
सावन से ही शुरू हो जाती है रामलीला की तैयारी
इस ऐतिहासिक रामलीला की तैयारी सावन महीने से ही शुरू हो जाती है. श्रीराम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघभन और सीता के पात्र ब्राह्मण कुल के कलाकार ही निभाते हैं. उनकी उम्र भी 16 साल से अधिक नहीं होनी चाहिए. दो सदी की परंपरा जस की तस बरकरार है. सावन में ही पात्रों का चयन के लिए बाकायदा ऐसे पात्रों की खोज शुरू हो जाती है.
पात्रों का चयन होने के बाद उस पर मुहर काशी नरेश लगाते हैं. उनकी अनुमति मिलने के बाद पात्रों को दो महीने तक नए जीवन में ढलना होता है. पूरी रामलीला अवधी भाषा में होती है. पात्रों को अवधी भाषा का सटीक उच्चारण करना सिखाया जाता है. उनको संस्कृत का उच्चारण करते हुए भारी स्वर में बोलने का प्रशिक्षण दिया जाता है.
परिवार से मिल नहीं सकते, संन्यासी का जीते हैं जीवन
चारों भाइयों समेत सीता, हनुमान समेत अन्य पात्रों का चयन होने के बाद उनका जीवन रामलीला तक बदल जाता है. वह रामनगर में ही रहते हैं. उनको संन्यासी का जीवन जीना होता है. माना जाता है कि सांसारिक जीवन जीते समय जो अशुद्धियां आ जाती हैं, उन्हें दूर करने के लिए उन्हें संन्यासी का जीवन जीना होता है. भोर से ही दिनचर्या शुरू हो जाती है. मन, कर्म और वचन से उनको आदर्श का पालन करना होता है. मान्यता है कि इस तरह का जीवन जीने से उनमें आध्यात्म का समावेश हो जाता है.
अयोध्या भी यहीं, लंका की अशोक वाटिका भी यहीं
रामनगर की रामलीला की सबसे बड़ी खासियत है लीला का अलग अलग स्थान. रामनगर में इस समय लीला के लिए मंच सज चुका है. यहां अयोध्या, जनकपुरी, लंका, अशोक वाटिका, पंचवटी समेत रामायण के अनेक स्थल हैं. करीब पांच किलोमीटर के दायरे में फैले रामलीला स्थल में सब हैं. सालों की ये परंपरा आज भी यहां कायम है. लीला का स्थल बदलना भक्तों के लिए खासा आकर्षक होता है. पूरा रामनगर ही इस समय रामभक्ति के रस में डूबा नजर आता है. हालांकि कई लीला स्थलों की देखरेख नहीं हो सकती है और यहां अतिक्रमण भी हो गया है. इसे लेकर यहां के लोगों में नाराजगी भी है.
काशी नरेश करते हैं रामनगर की रामलीला का शुभारंभ
रामनगर की रामलीला का आरंभ काशी नरेश करते हैं. पहली लीला के मंच से आज तक यह परंपरा जारी है. लीला के पहले दिन हाथी पर सवार होकर काशी नरेश पहुंचते हैं और श्रीराम जानकी समेत चारों भाइयों की पूजा करते हैं. काशी नरेश परंपरा के मुताबिक रोजाना की लीला में शामिल होते हैं. वह लीला स्थल पर सबसे पीछे हाथी के हौदे पर सवार होते हैं. लीला का समापन भी रोजाना काशी नरेश की आज्ञा पर ही होता है.
न लाउडस्पीकर, न ही बिजली की रोशनी
जहां देश की करीब सभी रामलीलाओं का कलेवर समय के साथ बदल गया है. रामनगर की रामलीला आज भी वैसी है. तड़क भड़क से दूर और तकनीकी का तो इस्तेमाल तक नहीं होता. हजारों की भीड़ होने के बाद भी यहां लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं होता. लीला स्थल पर बिजली की रोशनी भी नहीं की जाती. यहां पेट्रोमैक्स की रोशनी होती है. लीला स्थल के आसपास मशाल जलाई जाती है. सिर्फ काशी ही नहीं बल्कि विदेशी भी इसके आकर्षण में बंधे रहते हैं. लीला देखने के लिए यहां विदेशों से काफी संख्या में लोग यहां पहुंचते हैं.