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महबूब से बातचीत करने को ग़ज़ल कहते हैं

सुगम संगीत की शैलियों में प्रचलित ग़ज़ल की कहानी

Shivendra Kumar Singh

अपनी इस खास सीरीज में हम आपको संगीत की तमाम शैलियों के बारे में बता रहे हैं. ध्रुपद, ख्याल गायकी और ठुमरी जैसी शैलियों के बारे में हम बता चुके हैं. आज आपको बताते हैं ग़ज़ल के बारे में.

यूं तो ग़ज़ल गायकी को सुगम संगीत या लाइट म्यूजिक में रखा जाता है. फिर भी इस शैली पर सुगम संगीत का ठप्पा लगाना इसलिए ठीक नहीं है क्योंकि जब महान फनकारों में शुमार मेहदी हसन या बेगम अख्तर जैसी शख्सियतें ग़ज़ल गाती हैं तो आप को उसमें उप शास्त्रीय गायन की बारीकियां दिखाई देने लगती हैं. कुछ ऐसा ही भजन के साथ भी होता है.


कहने को ये सुगम संगीत है लेकिन पंडित जसराज जैसे दिग्गज कलाकार इसे उप शास्त्रीय गायन की तरफ मोड़ कर ले जाते हैं. खैर, आज बात ग़ज़ल की, जो मौजूदा दौर की बेहद प्रचलित शैलियों में से एक है. ग़ज़ल की दुनिया का एक अलग ही अंदाज है. आज उसी ग़ज़ल के बारे में आपको बताते हैं जो मरहम है रिसते हुए जख्मों पर, ग़ज़ल जो दास्तान है महरूमियत की, ग़ज़ल जो कहानी है नाकामियों की और ग़ज़ल जिसका नूर ही नूर-ए-जहां हैं.

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इस बातचीत को शुरू करने से पहले आपको एक ग़ज़ल सुनाते हैं और फिर इसकी कहानी सुनाएंगे. यहां हम आपको वो ग़ज़ल सुना रहे हैं जो सबसे लोकप्रिय ग़ज़लों में ‘टॉप’ पर होगी. फिल्म ‘निकाह’में आपने इस ग़ज़ल के चंद शेर सुने भी हैं, जिसे मशहूर ग़ज़ल गायक गुलाम अली साहब ने गाया था.

ग़ज़ल का इतिहास सदियों पुराना है. शेरों के जरिए अपनी बात कहने को ग़ज़ल कहते हैं. मिर्जा गालिब, मीर तकी मीर, बहादुर शाह जफर, मजाज़, मोमिन, जोश, नजीर अकबराबादी जैसे बड़े शायरों ने ग़ज़ल को एक नई बुलंदी दी. माना जाता है कि भारत में ग़ज़ल की शुरुआत 12-13वीं शताब्दी के बीच हुई थी.

एक मान्यता ये भी है कि उर्दू जुबां में किसी की शान में कहे जाने वाले कसीदों को ही बाद में ग़ज़ल कहा जाने लगा. ग़ज़ल ने अरबी भाषा से फारसी और फिर फारसी से उर्दू का सफर तय किया. देश में मुगलों का शासन था. लिहाजा शुरुआत में ग़ज़ल का हिंदी भाषा से लेना देना कम ही था. ग़ज़ल का मायने था उर्दू जानने वालों की मिल्कियत.

धीरे-धीरे बदलते वक्त के साथ ग़ज़ल की भाषा भी आसान होती चली गई और ग़ज़ल को भारत और ईरान के साहित्य और संस्कृति की साझा पहचान के तौर पर जाना जाने लगा. इसमें हजरत अमीर खुसरो का बड़ा योगदान रहा. उन्होंने फारसी और हिंदुस्तानी बोलियों को करीब लाने का काम किया.

ग़ज़ल के पितामह कहे जाने वाले ग़ज़लकार जनाब अली ने 17वीं शताब्दी के करीब फारसी में ग़ज़ल कहने वालों का मोह उर्दू की तरफ किया. बाद में राजनीतिक उथल-पुथल के चलते उर्दू शायरी का केंद्र लखनऊ हो गया. आपको बहादुर शाह जफर की लिखी एक ग़ज़ल सुनाते हैं. जिसे कई बड़े फनकारों ने गाया भी है.

आइए अब आपको बताते हैं कि एक ग़ज़ल का स्वरूप कैसा होता है? ग़ज़ल एक ही बहर में कहे या गाए जाने वाले शेरों का समूह है. इसमें मतला, मक्ता, बहर, काफिया और रदीफ जैसी चीजें होती हैं. शेर दो लाइनों का होता है और अपनी पूरी कहानी कहता है. मसलन मिर्जा गालिब की ये ग़ज़ल देखिए-

हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन

हमारी जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल

जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है

हुआ है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता

वगर्ना शहर में ‘ग़ालिब’ की आबरू क्या है

यूं तो इस ग़ज़ल में और भी शेर हैं लेकिन हम आपको प्रचलित शेर ही यहां दे रहे हैं. शेर के मीटर को बहर कहते हैं. इसे आसान शब्दों में शेर की लंबाई कहकर समझा जा सकता है. वैसे तो 19 किस्म की बहर मानी जाती हैं लेकिन प्रचलित तौर पर छोटी, बड़ी और मध्यम बहर ही ज्यादा सुनने को मिलती है.

वैसे ये भी माना जाता है कि आधुनिक ग़ज़ल में बहर का बंधन खत्म हो गया है. आम तौर पर ग़ज़ल के सभी शेरों की दूसरी लाइन एक जैसे लफ्जों पर खत्म होती है. मसलन मिर्जा गालिब की इस ग़ज़ल के सभी शेरों की दूसरी लाइन ‘क्या है’ पर खत्म होती है. इसे रदीफ कहा जाता है. ये भी मुमकिन है कि कुछ ग़ज़लों में रदीफ ना हो, ऐसी ग़ज़लों को गैर- मुरद्दफ कहा जाता है. ग़ज़ल के पहले शेर को ‘मत्ला’कहते हैं. कभी कभार कुछ ग़ज़लों में एक से ज्यादा मत्ले भी होते हैं. ऐसे में दूसरे मत्ले को मत्ला-ए-सानी कहा जाता है. ग़ज़ल के आखिरी शेर को ‘मक्ता’ कहते हैं. कई बार शायर आखिरी शेर में अपना उपनाम भी लिखता है। इसे तखल्लुस कहा जाता है। आइए आपको जगजीत सिंह की गाई ये ग़ज़ल सुनाते हैं जिसका जिक्र हम लगातार कर रहे हैं.

ग़ज़ल के शेर की हर लाइन को ‘मिसरा’ कहते हैं. जैसा हमने पहले भी आपको बताया कि ग़ज़ल का हर शेर अपने आप में एक मुकम्मल बात है. एक शेर का दूसरे शेर से कोई रिश्ता होना जरूरी नहीं है. ग़ज़ल के सबसे खूबसूरत शेर को हासिले-ग़ज़ल-शेर कहते हैं. आप तौर पर इस शेर को सुनाने से पहले शायर लोगों का ध्यान इस शेर की तरफ जरूर खींचता है.

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ग़ज़ल को लेकर एक और बात ये भी समझनी होगी कि ये बिल्कुल जरूरी नहीं कि ग़ज़ल में सिर्फ प्यार और श्रृंगार की बात कही गई हो. इंकलाबी शेर भी जमकर लिखे और सुने गए हैं. इसके अलावा अमीरी-गरीबी, इंसानी फितरत, दोस्तों की बेवफाई, संघर्ष जैसे विषयों को भी ध्यान में रखकर शेरो-शायरी की गई हैं. ग़ज़ल पर अपनी इस सीरीज के अगले हिस्से में हम ग़ज़ल में रागदारी के साथ साथ मंच पर पढ़ी जाने वाली ग़ज़ल की बात भी करेंगे. फिलहाल आज जाते जाते आप बेगम अख्तर की गाई ये लाजवाब ग़ज़ल सुनिए.