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नवरात्र स्पेशल: 1050 बच्चों की मां जो श्मशान में रही और भीख से गुजारा किया

सिंधु ताई न सिर्फ एक मां बल्कि उन बच्चों के लिये देवी हैं जिनकी मुरझाई जिंदगी में उन्होंने मुस्कान बिखेरी और सपनों को परवाज दिया.

Kinshuk Praval

(नवरात्र के मौके पर नवरात्र की पूजा विधि बताने या देवी की प्रार्थना के बजाय आपको मिला रहे हैं कुछ जागृत देवियों से, इन महिलाओं ने ऐसा कुछ किया है कि जो जीवन में शक्ति की मिसाल बनी हैं)

एक ऐसी मां जिसकी शुरुआती जिंदगी की कहानी मां के साये के बिना गुजरी. मां होने के बावजूद जो बेघर, बेसहारा रह कर श्मशान में रहने और भीख मांग कर गुजारा करने को मजबूर थी. लेकिन वक्त का इम्तिहान उसके भीतर के जीवट के आगे टिक न सका.


आज इस मां के आंचल में हजारों बच्चों का आशियाना है. लोग इन्हें महाराष्ट्र की 'मदर टेरेसा' कहते हैं. नाम है सिंधु ताई.

सिंधु ताई की कहानी दर्द और तकलीफ का अंतहीन सिलसिला थी. 50 साल पहले इस मां के सिंधु ताई बनने की कहानी त्रासदी के चौखट से बाहर निकली थी.

सिंधु ताई का जन्म 14 नवंबर 1948 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के पिंपरी मेघे गांव में हुआ था. पिता का नाम अभिमान जी साठे था.

घर और ससुराल से मिला तिरस्कार 

सिंधु ताई को जन्म के बाद मां का प्यार नहीं मिला था. क्योंकि बेटा न होने की वजह से घर में खुशियों की जगह मातम था. वो एक ऐसी संतान थी जिसकी किसी को जरूरत नहीं थी.

सिंधु ताई की मां ने भी अपनी बेटी को प्यार का आंचल नहीं दिया. मां की बेरूखी की वजह से उनका दिल मां के प्यार के लिये तरसता रह गया. सिंधु ताई अपने ही घर में किसी बिन बुलाए मेहमान सी थी.

परिवार ने नाम भी दिया तो ‘चिंधी’ यानी फटे हुए कपड़े का टुकड़ा. उस वक्त की ‘चिंधी’ पढ़ना चाहती थी लेकिन मां खिलाफ थी. पिता ने किसी तरह चौथी कक्षा तक पढ़ाया. मात्र 12 साल की उम्र में एक तीस साल के आदमी के साथ शादी कर दी गई. पति से हमेशा गालियां और तिरस्कार मिली.

हालात तब नर्क में बदल गए जब नौ महीने गर्भवती होने के बावजूद सिंधु ताई को घर से निकाल कर गाय के तबेले में छोड़ दिया. गायों के तबेले में  सिंधु ताई ने एक बेटी को जन्म दिया.

एक मां के लिये इससे बड़े दुख का लम्हा क्या हो सकता था कि उसे ही प्रसव के समय गर्भनाल को पत्थर से तोड़ना पड़ा. सिंधु ताई आज जिंदगी के इस मोड़ पर भी उस रात को नहीं भूल सकी हैं.

बेटी के बाद सवाल सिर्फ खुद के पेट का नहीं बल्कि बेटी की जिंदगी का भी था. ससुराल के बाद घरवालों ने भी सिंधु ताई के लिए दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर दिए थे. न घर न परिवार और घोर गरीबी के बीच एक अबोध शिशु का भूख से क्रंदन अलग.

जब भूख और गरीबी से मान ली थी हार 

भूख ने सिंधु ताई को इस कदर तोड़ा कि वो दिन में रेलवे स्टेशन पर भीख मांग कर अपना और बेटी का पेट भरने लगीं . लेकिन रात काटने के लिये सिंधु ताई ने एक श्मशान घाट को अपना बसेरा बनाया.

उनके मुताबिक श्मशान में रात में किसी का डर नहीं होता था और केवल वही जगह ऐसी थी जहां वो खुद को सुरक्षित महसूस करती थीं. लेकिन इन हालातों से लड़ते-लड़ते एक दिन वो हार मान गईं. उन्होंने अनाथाश्रम में अपनी बेटी को रखा और आत्महत्या का फैसला कर लिया.

सिंधु ताई  रेलवे स्टेशन में ट्रेन से कटकर जान देने चली गईं. रेलवे स्टेशन पर सिंधु ताई अपनी जिंदगी की आखिरी रेल का इंतजार कर रही थीं. दुश्वारियों से निजात पाने के लिय मौत ही मुक्ति की तरह दिखाई दे रही थी.

तभी एक भिखारी की कराह ने उनका ध्यान खींचा. पास जाने पर उस भिखारी ने उनसे पानी और खाना मांगा. सिंधु ताई के पास जो कुछ भी था उन्होंने उस भिखारी को दे दिया. लेकिन ये मौका सिंधु ताई को अजीब सी तृप्ति दे गया.

भिखारी का पेट भरने से उन्हें जो शांति मिली उसने उनकी जिंदगी के मकसद की राहें ही बदल दी. उनके मन में ख्याल आया कि मरके खत्म होने से बेहतर है कि मरने वालों के लिये जीना सीखें.

यूं हुआ सफर शुरू 

सिंधु ताई ने सोचा कि जिस तरह वो एक अनाथ की तरह गुजर बसर को मजबूर हैं और अपनी बेटी को अनाथाश्रम में छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा, ऐसे ही न जाने कितने अनाथ बच्चे होंगे जो भूख प्यास से बेहाल भटकते होंगे. सिंधु ताई ने उसी पल ये फैसला किया कि वो अनाथ बच्चों की मां बनेंगीं और उन्हें सहारा देने की कोशिश करेंगीं.

रेलवे स्टेशन पर सिंधु ताई को एक अनाथ बच्चा मिला और फिर शुरु हुआ सिंधु ताई की जिंदगी का नया मोड़.

सिंधुताई अनाथ-बेसहारा बच्चों को ढूंढती और उन्हें अपनातीं. रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, मंदिर और सड़क चौराहों पर उन्हें भीख मांगते बच्चे मिलते चले गए. सिंधु ताई का पिंपरी के पास के आदिवासियों ने साथ दिया. वहां उनके रहने की व्यवस्था की. वहीं धीरे धीरे बाकी बच्चों का भी आशियाना बनता चला गया.

ये कहानी किसी फिल्म सी शुरु हुई और आगे बढ़ते बढ़ते 1050 बच्चों तक पहुंच गई. सिंधु ताई ने इन सारे बच्चों को अपनाया, पढ़ाया और शादी-ब्याह कराया.

पचास साल में आज सिंधुताई के अपनाए बच्चे कहीं डॉक्टर हैं तो कहीं इंजीनियर तो कहीं वकील. सभी बच्चे उन्हें माई कह कर बुलाते हैं.

वटवृक्ष जैसे बड़े परिवार की मां  

सिंधु ताई का परिवार आज बहुत बड़ा हो चुका है जहां बेटे-बहू हैं तो बेटियां और दामाद भी. सिंधुताई के परिवार में 36 बहुएं, 272 दामाद और एक हजार से ज्यादा पोते-पोतियां शामिल हैं.

सिंधु ताई के दामन में कभी दर्द, वेदना, बेबसी, और मुफलिसी थी तो आज उसी आंचल में हजार बच्चों की खुशियां हैं और सपने हैं. महाराष्ट्र में सिंधु ताई के नाम पर 6 संस्थाएं चलती हैं जहां कि अनाथ बच्चों को सिंधु ताई का सहारा और आशीर्वाद मिलता है.

सन्मती बाल निकेतन आज महाराष्ट्र की 5 बड़ी संस्थाओं में शुमार किया जाता है. सिंधु ताई की जिजीविषा ने उनको ऐसे मुकाम पर ला दिया जहां सम्मानों की सेज सी बिछी है. सिंधुताई को 750 से ज्यादा सम्मानों से नवाजा गया है.

ये अवार्ड उस मां के नाम है जिसने रेलवे प्लेटफॉर्म पर कभी जिंदगी गुजारी थी और आज वो बेसहारा लोगों के लिए ममता की छांव है. सिंधु ताई महाराष्ट्र में कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आंदोलन भी चला रही हैं.

सिंधु ताई पर मराठी भाषा में ‘मी सिंधु ताई सपकाल बोलते आहे' नाम से एक फिल्म भी बनाई गई. डेढ़ घंटे की इस फिल्म में सिंधु ताई की जिंदगी को उतारा गया है.

सिंधु ताई न सिर्फ एक मां बल्कि उन बच्चों के लिये देवी हैं जिनकी मुरझाई जिंदगी में उन्होंने मुस्कान बिखेरी और सपनों को परवाज दिया.